बिहार की एक पार्टी है। पार्टी क्या, पारिवारिक दल कह लीजिए। लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा। इसके संस्थापक रामविलास पासवान फिलहाल राज्यसभा से सांसद और मोदी कैबिनेट के मंत्री हैं। रामविलास की राजनीति में पहचान मौसम वैज्ञानिक के तौर पर है। सरकार भले बदल जाए सरकार में उनकी हिस्सेदारी नहीं बदलती। हवा का रूख भांपने में उनका कोई सानी नहीं। अब ऐसा लगता है कि यह हुनर पीके यानी प्रशांत किशोर में भी कूट-कूट कर भरी है। बतौर चुनावी रणनीतिकार राजनेताओं से करीबी गढ़ने में माहिर पीके हर बार हवा के साथ होते हैं। इसकी बदौलत अपनी ब्रांडिंग करते हैं और मीडिया को भी दीवाना बना लेते हैं।
11 फरवरी को आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल हुई और अरविन्द केजरीवाल के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ हो गया। इसी दिन प्रशांत किशोर के साथ केजरीवाल की फोटो वायरल हुई। दोनों साथ में टीवी पर चुनाव परिणाम देख रहे थे। दोनों के गले मिलते हुए फोटो वायरल हुए। आधुनिक राजनीति में पर्दे के पीछे से रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर के पीछे एक बार फिर मीडिया बावला हो गया और उनकी ‘चाणक्य’ वाली छवि के महिमामंडन में जुट गया। क्या सचमुच AAP की जीत प्रशांत किशोर की देन है?
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत करीब-करीब तय थी। सवाल था कि क्या एकतरफा लग रहे इस चुनाव को बीजेपी और कॉन्ग्रेस मुकाबले में बदल पाएगी। वोटों की हिस्सेदारी से तो कुछ हद तक भाजपा ऐसा करती दिख रही है। लेकिन, कॉन्ग्रेस के प्रचार के दौरान ही सरेंडर करने का फायदा आप को मिला है यह भी स्पष्ट है। सारे ओपिनियन और एग्जिट पोल्स में भी आप की सत्ता में धमाकेदार वापसी के अनुमान लगाए गए थे।
चुनाव से ठीक पहले केजरीवाल ने ट्वीट कर सूचना दी थी कि प्रशांत किशोर की कम्पनी ‘इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमिटी (I-PAC)’ ने उनके चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी सँभाली है। केजरीवाल की जीत के साथ ही प्रशांत किशोर के लिए ‘अल्लाह मेहरबान…’ वाली कहावत चरितार्थ हुई। दिल्ली की 8 मुस्लिम बहुल सीटों पर केजरीवाल की पार्टी की जीत हुई। इनमें से 4 प्रमुख मुस्लिम बहुल सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों के खाते में गई। मुस्लिमों में गजब का ध्रुवीकरण हुआ। कॉन्ग्रेस के आधे वोटर निकल लिए।
अगर एक भी सर्वे, ओपिनियन पोल अथवा एग्जिट पोल में भाजपा की जीत की भविष्यवाणी जताई गई होती और तब केजरीवाल सत्ता में वापसी करते, तब प्रशांत किशोर के योगदान पर कम से कम चर्चा तो हो ही सकती थी। लेकिन, जहाँ चीजें सपष्ट दिख रही थी, वहाँ प्रशांत किशोर ने एक तरह से फिर से बहती गंगा में हाथ धोकर खुद की जिताऊ रणनीतिकार की गढ़ी हुई छवि और मजबूत कर ली। उन्हें हाल ही में जदयू से निकाल बाहर किया गया है। सीएए पर उनका रुख पार्टी के मुखिया नीतीश कुमार से एकदम भिन्न था। सार्वजनिक रूप से सवाल उठाने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा।
इसके बाद जिस नीतीश कुमार ने पीके को कैबिनेट मंत्री स्तर का दर्जा दिया था, उन्होंने ही उन्हें पार्टी से बाहर करने में देर न लगाई। जदयू ने प्रशांत किशोर का समर्थन करने वाले चन्दन कुमार सिंह को भी निकाल बाहर किया। चन्दन पटना महानगर युवा जदयू के राज्य सचिव थे। सोचने वाली बात है, कोई भी दल किसी ‘राजनीतिक चाणक्य’ को निकाल बाहर क्यों करेगा, जब वो चुटकियों में चुनाव जिताने की क्षमता रखता हो। कम से कम मीडिया तो उन्हें यही तमगा देती है। लेकिन, नीतीश ने ऐसा किया। क्योंकि उन्हें भलीभॉंति पता था कि 2015 के विधानसभा चुनाव में उन्हें जीत पीके की रणनीतियों के बदौलत नहीं मिली थी।
Thank you India for standing up in 2019 by showing Prashant Kishor the middle finger of India. https://t.co/PZABuH0WzX
— Keh Ke Peheno (@coolfunnytshirt) February 12, 2020
असल में बिहार के राजनीतिक समीकरण ही कुछ ऐसे हैं कि दो बड़े दल जिधर होते हैं बाजी उसके ही हाथ लगती है। बीजेपी को छोड़ 2014 के आम चुनावों में कमजोर हुई जदयू ने विधानसभा चुनाव से पहले राजद से गठबंधन किया। राजद का मुस्लिम-यादव समीकरण उसे 30% से भी अधिक जनसंख्या को साधने का जरिया बनाता रहा है। ख़ासकर लालू यादव के सक्रिय रहने से ये चीज और आसान हो जाती है। नीतीश के सोशल इंजीनियरिंग को मिला दें तो महादलितों और कुर्मी वर्ग का भी साथ महागठबंधन को मिल जाता है। ऊपर से नीतीश कुमार की ‘सुशासन बाबू’ वाली छवि। ऐसे में प्रशांत किशोर ने ज्यादा से ज्यादा सीटें टच करने की सलाह लालू और नीतीश दोनों को दी। दोनों ने लगभग हर सीट पर सभाएँ की और महागठबंधन जीत गया।
एक मँझे हुए राजनेता नीतीश कभी भी प्रशांत किशोर को जाने नहीं देते, अगर उनका 2015 की जीत में जरा सा भी योगदान होता। इसी तरह पंजाब में अकाली सरकार के ख़िलाफ़ घोर एंटी-इंकम्बेंसी थी, जिसे कॉन्ग्रेस ने भुनाया। कैप्टेन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस की वापसी तय थी। अगर उन्हें सीएम उम्मीदवार न घोषित किया गया होता तो शायद कुछ चर्चा हो भी सकती थी। बीच चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गाँधी को कैप्टेन के सामने झुकना पड़ा और उन्हें चेहरा बनाने को मजबूर होना पड़ा। कॉन्ग्रेस की जीत हुई और प्रशांत किशोर एक बार फिर से लहरिया लूट ले गए।
आंध्र प्रदेश में लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए। प्रशांत किशोर की कम्पनी ने वाईएसआर कॉन्ग्रेस के जगन मोहन रेड्डी के लिए रणनीति बनाने व प्रचार की कमान सँभाली। लोकसभा और विधानसभा, दोनों में ही चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी को बुरी हार का सामना करना पड़ा। यहाँ भी नतीजे आश्चर्यजनक नहीं थे। जगन ने राज्य भर में पदयात्राएँ और सभाएँ महीनों पहले शुरू कर दी थी। नायडू के ख़िलाफ़ एंटी-इंकम्बेंसी थी सो अलग। पीके के जुड़ने से पहले से ही राज्य की सत्ता में जगन के काबिज होने के कयास लगाए जा रहे थे। इस लिहाज से यहॉं भी पीके ने हवा के साथ होकर अपनी ब्रांडिंग की।
इस दौरान पीके को जो सबसे मुश्किल मोर्चा मिला था उस पर वह बुरी तरह नाकाम रहे। 2017 में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों के लिए कॉन्ग्रेस ने रणनीति बनाने की जिम्मेदारी उन्हें ही सौंपी थी। कॉन्ग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन भी किया। लेकिन, पीके कॉन्ग्रेस की किस्मत नहीं बदल पाए थे। साफ़ है जहाँ मुकाबला कठिन हो, वहाँ पीके की परफॉरमेंस एकदम शून्य हो जाती है। बाद में इस दाग को धोने के लिए उन्होंने यूपी में हार का ठीकरा पूरी तरह कॉन्ग्रेस के नेताओं पर फोड़ दिया। लेकिन, उसी समय पंजाब में कॉन्ग्रेस की जीत का सेहरा अपने सिर बॉंधने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई।
Whoever @PrashantKishor consults, turns religious and start going to temples with cameras ? ON !
— Shantanu Gupta (@shantanug_) February 11, 2020
Interesting observation by @maryashakil during my recent debate with her on @CNNnews18 pic.twitter.com/oknDLBY1o1
असल में 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने जो भी तौर-तरीके आजमाए- सब हिट हो गए। उन्होंने जिसके साथ हाथ मिलाया, वो जननेता बन गया। उन्होंने जो नारा दे दिया, वो चुनाव का ही स्लोगन बन गया। उनके लिए जिन लोगों ने काम किया, वो ‘चाणक्य’ कहला गए। उन्हीं में से एक प्रशांत किशोर भी थे, जो मोदी की लोकप्रियता की नाव चढ़ कर मीडिया के महिमामंडन के कारण उभर कर सामने आए। पीके का मोदी की जीत में क्या योगदान था, ये आज तक किसी को नहीं पता चल पाया। लेकिन हाँ, वो जुड़े हुए थे, तो मीडिया की नज़रों में छा गए।
अब आते हैं कुछ ऐसी ख़बरों पर, जिनकी चर्चा तो हुई लेकिन वो छिप गईं। प्रशांत किशोर को लेकर नीतीश कुमार कह चुके हैं कि उन्होंने भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर उन्हें पार्टी में शामिल किया था। उससे पहले ख़बर आई थी कि प्रशांत किशोर ब्यूरोक्रेसी में ‘लेटरल एंट्री’ चाहते हैं और वो मोदी से इसी कारण नाराज़ हुए। वो कहते रहे हैं कि वो पीएमओ के लिए एक विंग बनाना चाहते थे, जिसके लिए वो भर्तियाँ करते। एक ‘Lobbyist’ अपने अलग-अलग लोगों को कुर्सी तक पहुँचा कर विभिन्न प्रकार के काम निकलवा सकता है, ये छिपा नहीं है। नीरा राडिया से लेकर अमर सिंह जैसे लोग ये काम दशकों से करते रहे हैं।
दिल्ली के सियासी गलियारों में चुनाव के दौरान कॉन्ग्रेस के सरेंडर को प्रियंका गॉंधी के साथ पीके के अच्छे संबंधों से जोड़कर देखा जा रहा है। चर्चा जोरों पर है कि पीके की सलाह पर ही कॉन्ग्रेस के नेतृत्व ने इस चुनाव को लेकर उत्साह नहीं दिखाया और आप के लिए लड़ाई को आसान बनाने की कोशिश की।
असल में मोदी मैजिक पर सवार होकर आए पीके अब भाजपा विरोधी गैंग में अपनी घुसपैठ मजबूत करने की फिराक में लगे हुए हैं। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जदयू के स्टैंड से विपरीत जाकर उनका आक्रामक रूख अपनाना और दिल्ली के नतीजों के बाद ट्वीट कर यह कहना कि भारत की आत्मा की रक्षा करने के लिए दिल्ली की जनता का धन्यवाद, को उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से जोड़कर ही देखा जा रहा है। अब यह तो वक्त ही बताएगा पीके अपनी सियासी महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर पाएँगे या फिर ब्रांडिंग की दुनिया के ‘रामविलास’ बनकर ही रह जाएँगे।