अफगानिस्तान में तालिबानियों के कब्जे के बाद अब उस हर भयावह मंजर को याद किया जा रहा है जो किसी समय में तालिबानी शासन का सच हुआ करता था। उस दौर की सच्चाई को बयान करने वाली एक घटना बामियान में स्थित मशहूर बुद्ध प्रतिमा से भी जुड़ी है, जिसे विस्फोट में आज से 20 साल पहले उड़ा दिया गया था। ये सांस्कृतिक नरसंहार की कोशिश थी। इस काम का जिम्मा 26 साल के मिर्जा हुसैन को दिया गया था। मिर्जा थे तो शिया मुसलमान लेकिन तालिबानी उनको काफिर मानते थे।
2015 में प्रकाशित बीबीसी की एक रिपोर्ट में मिर्जा हुसैन का पूरा पक्ष बताया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, मिर्जा ने बताया था कि कैसे अफगानिस्तानियों ने बुद्ध मूर्ति पर हमला किया। उन्होंने बताया कि तालिबानियों ने पहले तो बुद्ध प्रतिमा पर टैंक और भारी गोलियों से हमला किया था, लेकिन जब वह उसे नष्ट करने में नाकाम रहे तो उन्होंने कुछ स्थानीय युवकों से उसमें विस्फोटक लगवा दिया। इस काम में मिर्जा हुसैन भी शामिल थे।
मिर्जा बताते हैं, “मैं 25 कैदियों में से एक था। शहर में कोई भी नागरिक नहीं था सिर्फ़ तालिबानी थे। हमें इस काम के लिए इसलिए चुना गया क्योंकि वहाँ कोई और था ही नहीं। हम लोग क़ैदी थे और हमारे साथ इस तरह बर्ताव किया जाता था जैसे हमें कभी भी मारा जा सकता है।”
उल्लेखनीय है कि बामियान की अधिकांश आबादी शिया मुसलमानों की है। सुन्नी सुमदाय वाले तालिबानी उनको काफिर मानते हैं। इसलिए जब मई 1999 में कई महीनों तक चले युद्ध के बाद तालिबान ने बामियान पहाड़ियों पर कब्जा किया तो, ज्यादातर स्थानीय निवासी या तो भाग गए थे या उनको गिरफ्तार कर लिया गया था।
मिर्जा, चूँकि गिरफ्तार हुए थे, तो वह 2001 में घटे उस मंजर के गवाह बने, जिसे सुन कोई भी सहम जाए। उनके अनुसार, तालिबानी कई ट्रकों में भरकर विस्फोटक ले आए थे। उसके बाद उन लोगों (कैदियों) ने उसको अपनी पीठों और हाथों में उठाकर प्रतिमा के पास सेट किया। इस बीच एक कैदी बहुत चोटिल हो गया था और विस्फोटक नहीं ले जा पा रहा था। तालिबानियों ने उसे उसी वक्त गोली मारी और दूसरे को उसकी लाश ठिकाने लगाने को कहा।
बुद्ध की मूर्ति में चारों ओर विस्फोटक लगाने में तीन दिन का वक्त लगा था। सबकी तारें नजदीकीं मस्जिद के पास तक बिछाई गईं थी। वहीं से उन्हें चार्ज किया गया और अल्लाह-हू-अकबर की आवाजों के बीच बम धमाका किया गया। धमाका बहुत तेज था। बुद्ध की मूर्ति के सामने सिर्फ धुआँ और आग की लपटें दिख रहीं थी। हवा के बहने के साथ बारूद की गंध नाक में जा रही थी।
तालिबानी कमांडर सोच कर बैठा था कि वो लोग न सिर्फ बुद्ध की मूर्ति को तबाह करेंगे बल्कि पूरी पहाड़ी को गिरा देंगें। लेकिन इस भारी धमाके ने केवल बुद्ध की टांगें ही उड़ाईं। इस हरकत की हर जगह आलोचना हुई। मगर, तालिबान शांत नहीं हुआ। वह दोबारा साबुन जैसे और आटें की लोई जैसे विस्फोटक लाया और रोजाना दो-तीन विस्फोट करने लगा।
मिर्जा हुसैन के अनुसार, वह लोग खुद ड्रिल करके प्रतिमा में डायनामाइट लगाते थे। इसके बदले उन्हें खाने में थोड़े चावल और रोटियाँ मिलती थीं और बर्फीली रातों में एक पतला सा कंबल ओढ़ने को दिया जाता था। जब तमाम प्रयासों के बाद प्रतिमा को पूरा नष्ट करने में ये लोग सफल हुए तो जश्न मना, हवा में गोलियाँ चलीं, डांस हुआ और कुर्बानी के लिए नौ गायों की हत्या हुई।
रिपोर्ट के अनुसार, 6 साल पहले (2015) मिर्जा हुसैन बामियान में साइकल मैकेनिक के तौर पर काम कर रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि विदेशी दानदाता और सरकार मिलकर उस बुद्ध प्रतिमा को दोबारा खड़ा करेंगे। उनको बहुत पछतावा था कि उस मूर्ति के टूटने में उनका भी हाथ था। लेकिन वह करते भी क्या? अगर विरोध किया होता तो शायद तालिबानियों के हाथों मार दिए गए होते।
उल्लेखनीय है कि काबुल से करीब 200 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में बामियान घाटी एक बौद्ध केंद्र थी। छठी शताब्दी में कई बौद्ध सन्यासी इस घाटी में रहते थे। बौद्ध सन्यासियों के साथ ही केंद्रीय अफगानिस्तान के पहाड़ी इलाकों में बौद्ध कला और संस्कृति आई। लाल रेतीले पत्थर की बड़ी बड़ी चट्टानों में रहने लायक गुफाएँ बनाई गईं। बुद्ध की वो मूर्तियाँ भी इसी पत्थर से बनाई गई थीं। लेकिन 2001 में तालिबानी कहर ने इसे नष्ट कर दिया। बड़ी मूर्ति 174 फीट की थी। बाद में इसे 3-डी तकनीक से खड़ा किया गया और पर्यटकों को लुभाने के लिए प्रोजेक्टेड छवि बनाई गई। इसमें 76.70 लाख रुपए का खर्चा आया। लेकिन इसे बनाने वाली चीनी दंपत्ति झेयांग शिन्यु और लियांग हॉग ने कहा कि ये अफगानिस्तान को चीन का तोहफा है।