बांग्लादेश की स्वतंत्रता की 50वीं वर्षगॉंठ। राजधानी ढाका के नेशनल परेड ग्राउंड में राष्ट्रीय दिवस कार्यक्रम। इसमें गुरुवार (26 मार्च 2021) को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश की अपनी समकक्ष शेख हसीना के साथ मौजूद थे। समारोह को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा था, “यहाँ के लोगों पर पाकिस्तानी सेना के अत्याचार हमें व्यथित कर देता था, कई दिनों तक इन तस्वीरों ने हमें सोने नहीं दिया।”
शेख हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान, जिन्हें ‘बंगबंधु’ के नाम से भी जाना जाता है। उनके नेतृत्व में ही बांग्लादेश ने पाकिस्तान के अत्याचार से मुक्ति पाई थी। लेकिन, मुक्ति की यह लड़ाई आसान नहीं थी। अथक संघर्ष और प्रताड़नाओं के एक लंबे सिलसिले के बाद यह मिली थी। इस दौरान पाकिस्तानी सेना ने जिस तरीके से स्थानीय लोगों का दमन किया वह आज भी रूह कँपा देती है।
इन्हीं कहानियों में से एक नीवा पाल की कहानी है। नीवा उन 35 औरतों में से एक हैं जिनके न केवल पतियों को पाकिस्तानी सेना ने मारा बल्कि उनका रेप कर उन्हें प्रताड़ित भी किया। आज नीवा 70 साल पार कर चुकी हैं। लेकिन वह उनकी आँखों से उस समय की तस्वीरें धूमिल नहीं होतीं। वह कहती हैं, “ये बयान नहीं किया जा सकता। मैं कह ही नहीं सकती। तुम्हें मालूम हैं उन्होंने औरतों के साथ क्या किया?”
बकौल नीवा, “बात 25 अप्रैल 1971 की है। पंजाबियों ने हमारे गाँव को घेर लिया था। मैं अपने पति के साथ थी। तीन लोगों ने दरवाजा तोड़कर मेरे पति को उठाया। उस समय मैं दो बच्चों की माँ थी। उन्होंने मुझे कस कर पकड़ा कि मैं भाग नहीं पाई। काश मैं वहाँ से निकल पाती।”
इसी तरह, काली रानी पाल बताती हैं, “पाकिस्तानियों ने मेरे पति को मारा। मैं उस समय प्रेगनेंट थी। उन्होंने मेरे पेट पर मारा। जिसके बाद मुझे एक मृत बच्चे को जन्म देना पड़ा।” सुजोला रानी पाल भी एक ऐसी वीरांगना हैं जिन्हें आज भी अपने लिए पहचान नहीं मिल पाई है। वह एक नौकर के तौर पर घरों में काम करती हैं। वह बताती हैं, “नरसंहार के कुछ दिन बाद का समय बहुत मुश्किल था। हमें कई दिन बिना खाने के रहना पड़ा। हम अपने घरों में खाना नहीं बना सकते थे।”
स्थानीय लोग 1971 के उस दौर को याद करते हुए बताते हैं कि कैसे अटायकुला में 6 नावों पर बैठकर 150 पाकिस्तानी नदी पार कर आए और जोगेंद्रनाथ पाल के आँगन में 60 पुरुषों को खड़ा किया। इसके बाद सारे पुरुषों को दो पंक्ति में बाँटा गया। एक जो अपना पैसा और सोना मर्जी से देने को तैयार हो गए और दूसरे वो जिन्होंने मना कर दिया।
सेना ने पहले उन पर गोली चलाई जिन्होंने सब देने से मना किया फिर उन पर जो अपनी जान बचाने को सब देने को तैयार हो गए थे। 60 पुरुषों में से कुल 8 बचे। लेकिन चोटें उनकी भी कम नहीं थी। बाकी सारे शवों को जोगेंद्रनाथ के घर के पास दफनाया गए। शायद तब संभव नहीं था कि हिंदू रीति-रिवाजों से उनका दाह संस्कार हो।
प्रद्युत्त पाल उस नरसंहार के समय जीवित बचे लेकिन उन्होंने अपने पिता, चाचा और तीन भाई सबको खो दिया। गोली उन्हें भी लगी थी, लेकिन बहुत हल्के से। प्रद्युत्त कहते हैं, “सैंकड़ों गोलियाँ मेरे सिर के ऊपर से गईं। घायल मेरे ऊपर गिर रहे थे। वह मुझे चुप रहने को कह रहे थे। मैं देख पा रहा था छोटो जमुना खून से लाल हो गई थी। वहाँ बस खून ही खून था।”
स्थानीय बताते हैं कि पुरुषों को मारने से पहले पाकिस्तानी सेना ने औरतों को उनसे अलग कर दिया था। पुरुष जानते थे कि हमारी कोई महिला नहीं बचेगी। लेकिन खुद को बचाने के लिए कई महिलाओं ने आत्महत्या कर ली और कई लड़कियाँ कुँवारी भी मर गईं।
अटायकुला गाँव की तरह देशवाली पारा के कुश्तिया में बना कोहिनूर विला भी नरसंहार की तमाम कहानियाँ समेटे हुए है। स्वतंत्रता सेनानी रफीकुल इस्लाम कहते हैं कि 1971 में जो यहाँ पर हुआ वह बताने योग्य नहीं है। जानकारी के अनुसार ये घर रबिउल हक मलिक और अरशद हक नाम के दो भाइयों का था। 1947 के विभाजन के बाद दोनों पश्चिम बंगाल के हुगली के पंचपीरतला से कुशतिया आए थे और अपना बेकरी का कारोबार करते थे।
रबिउल और अरशद का भतीजा बताता है कि कैसे उनके पूरे मलिक परिवार को मारा गया। कुल 16 लोग उस नरसंहार में मरे। हलीम के अनुसार, कुछ की हत्या कर दी गई और अन्य को काट दिया गया। हत्यारों ने सबको मारते हुए एक कैसेट प्लेयर पर जोर से संगीत बजाया ताकि पड़ोसियों को पीड़ितों की चीख की आवाज सुनाई न दे। अगले दिन किसी का शव बाथरूम में, किसी का किचन में तो किसी का घर के कॉरिडोर में पड़ा मिला।