बांग्लादेश की राजधानी ढाका का धनमंडी। धनमंडी के रोड नंबर 32 का हाउस नंबर 677। 15 अगस्त 1975 को इस घर में एक के बाद एक 20 लोगों की हत्या कर दी गई।
इस नरसंहार से पहले 1971 में धनमंडी के इस घर को पाकिस्तानी सैनिकों ने घेर रखा था। एक परिवार करीब नौ महीने से घर में बंधक बना हुआ था। किसी भी वक्त उस परिवार के हर सदस्य मौत के घाट उतारे जा सकते थे। लेकिन एक भारतीय कर्नल ने अपने तीन जवानों के साथ मिलकर उस परिवार को सुरक्षित बाहर निकाल लिया।
यह परिवार था बांग्लादेश के संस्थापक, उसके पहले राष्ट्रपति ‘बंगबंधु’ शेख मुजीब-उररहमान का। बंगबंधु के साथ उनके परिवार को बचाने वाले भारतीय कर्नल थे अशोक तारा।
लेकिन, 15 अगस्त 1975 को बांग्लादेश की सेना के ही कुछ बागी अफसरों ने बंगबंधु सहित उनके पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया। केवल उनकी दो बेटियॉं बांग्लादेश की मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना और शेख रेहाना जीवित बचीं, क्योंकि दोनों उस वक्त जर्मनी में थीं।
बताते हैं कि भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ को इसका अंदेशा पहले से ही था। हत्या से सात महीने पहले दिसंबर 1974 में रॉ के संस्थापक आरएन काव ने शेख मुजीब से मुलाकात कर उन्हें आगाह किया था। लेकिन बंगबंधु का जवाब था, “ये मेरे बच्चे हैं मुझे नुकसान नहीं पहुँचाएँगे।”
अशोक रैना की किताब ‘इनसाइड रॉ’ के मुताबिक आरएन काव ने उस वक्त शेख मुजीब से कहा था कि उनके पास पुख्ता सूचनाएँ हैं और वे इससे जुड़े विवरण उन्हें भेजेंगे। मार्च 1975 में रॉ के एक शीर्ष अधिकारी ने ढाका पहुॅंच कर शेख मुजीब को इस साजिश में शामिल अधिकारियों के बारे में विस्तार से जानकारी दी। लेकिन, वे फिर भी नहीं माने।
सलील त्रिपाठी ने अपनी किताब ‘द कर्नल हू वुड नॉट रिपेंट’ में बताया है कि बागी अधिकारियों के अपने मिशन पर निकलने के बावजूद शेख मुजीब को अंदाजा तक नहीं था कि उनकी हत्या का मिशन शुरू हो चुका है। बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष जनरल शफीउल्ला को सेना की दो बटालियन के बिना किसी आदेश के शेख मुजीब के घर की ओर बढ़ने की सूचना मिली।
उन्होंने शेख मुजीब को फोन मिलाया, लेकिन लाइन व्यस्त थी। बहुत कोशिशों के बाद उनका शेख मुजीब से संपर्क हुआ। शेख मुजीब गुस्से में बोले, “शफीउल्ला तोमार फोर्स आमार बाड़ी अटैक करोछे। तुमि जल्दी फोर्स पठाओ (तुम्हारे फोर्स ने मेरे घर पर हमला किया है, जल्दी सेना भेजो)।” इसी दौरान पीछे से गोलियों की आवाज सुनाई पड़ी और पूरे परिवार का सफाया हो गया।
एंथनी मैस्करेनहास अपनी किताब ‘बांग्लादेश ए लेगसी ऑफ ब्लड’ में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं, “शेख मुजीब को देखते ही मोहिउद्दीन नर्वस हो गया। उसके मुॅंह से केवल इतना ही निकला, सर आपनी आशुन (सर आप आइए)। मुजीब ने चिल्ला कर कहा-क्या चाहते हो? क्या तुम मुझे मारने आए हो? भूल जाओ। पाकिस्तान की सेना ऐसा नहीं कर पाई। तुम किस खेत की मूली हो?”
तभी स्टेनगन लिए मेजर नूर ने प्रवेश किया और मोहिउद्दीन को धक्का देते हुए पूरी स्टेनगन खाली कर दी। मुजीब मुँह के बल गिरे। उनका पसंदीदा पाइप उनके हाथ में था।
‘द कर्नल हू वुड नॉट रिपेंट’ के मुताबिक एक नौकर शेख मुजीब को गोली लगने की खबर दौड़कर उनकी बीवी को देता है। पीछे से सैनिक भी वहॉं आ धमके और गोली चलानी शुरू कर दी। देखते-देखते सारे लोग मारे गए। तभी एक जीप शेख मुजीब के घर के सामने आकर रुकी और उसमें से मेजर फारूक रहमान बाहर निकला। मेजर हुदा ने उसके कान में फुसफुसाकर कहा ‘सब खत्म हो गए।’
2010 में कर्नल फारूक रहमान, मेजर हुदा सहित पॉंच हत्यारों को ढाका की केंद्रीय जेल में फॉंसी दी गई। सात हत्यारे अब भी फरार हैं। बांग्लादेश के इतिहास का ये सबसे लंबा चला मुकदमा है। अरसे तक इन हत्यारों पर मुकदमा ही नहीं चला। 1996 में आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दायर किया गया।