पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उस फैसले को वापस ले लिया है, जिसमें उसने कहा था कि अहमदिया समुदाय अपने मजहब का पालन करने के लिए स्वतंत्र है। इस निर्णय के बाद सुप्रीम कोर्ट के बाहर विरोध प्रदर्शन हुए थे और जजों को धमकियाँ दी गई थीं। पाकिस्तानी जज अब अपने उस फैसले के लिए माफ़ी माँग रहे हैं और मौलवियों से सलाह ले रहे हैं।
दरअसल, पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने मुबारक सानी मामले में यह निर्णय दिया था। इस जजों ने समीक्षा निर्णय में सुधार के लिए पाकिस्तानी सरकार की अपील को स्वीकार कर लिया है। इसके साथ ही उसने अपने पिछले आदेश से उन सभी ‘विवादास्पद पैराग्राफों’ को हटा दिया है, जिसमें इस्लाम के अहमदिया समुदाय को अपने दीन-मजहब का अधिकार दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायालय में उपस्थित मौलाना के अनुरोध पर समीक्षा करते हुए निर्णय से पैराग्राफ 7, 42 और 49-सी को हटा दिया। हटाए गए पैराग्राफ में प्रतिबंधित पुस्तक और अहमदिया समुदाय की धर्मांतरण गतिविधियों का उल्लेख था। सुनवाई के दौरान मौलाना फजलुर रहमान ने न्यायालय को सलाह दी कि वह अपनी भूमिका को जमानत देने तक सीमित रखे।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संघीय सरकार ने निर्णय की समीक्षा की माँग की थी और इस्लामिक विचारधारा परिषद (सीआईआई) की सिफारिशों पर विचार किया था। इससे पहले, न्यायालय के तीन सदस्यीय पीठ का नेतृत्व करने वाले मुख्य न्यायाधीश काज़ी फ़ैज़ ईसा ने इस मामले में मुफ़्ती तकी उस्मानी और मौलाना फ़ज़लुर रहमान सहित इस्लामी उलेमाओं से सहायता माँगी थी।
Pakistan Supreme Court has taken back its judgement, in which it said Ahmeddiyyas are free to practice religion their religion.
— . (@jxh45) August 24, 2024
It comes protest outside Supreme Court & threats to judges.
Pak Judges are now apologizing & consulting Maulvis.https://t.co/iSTFegkPxv pic.twitter.com/3ElePnSzMs
सुप्रीम कोर्ट ने उलेमाओं से अपने निर्णय में किसी भी त्रुटि की पहचान करने को कहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखने बाद उलेमाओं ने फ़ैसले में संशोधन करने या फिर इसे पूरी तरह रद्द करने का सुझाव दिया था। तुर्किये से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए भाग लेते हुए मुफ़्ती तकी उस्मानी ने धर्मांतरण की व्याख्या पर चिंताओं का हवाला देते हुए पैराग्राफ़ 7 और 42 को हटाने की सिफ़ारिश की।
सुप्रीम कोर्ट ने उस्मानी की इन चिंताओं को स्वीकार किया और अन्य इस्लामी विद्वानों से आगे की राय माँगी। अटॉर्नी जनरल ने अदालत को बताया कि संसद और मजहबी उलेमाओं ने संघीय सरकार से सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप का अनुरोध करने का आग्रह किया था, क्योंकि सिविल प्रक्रिया के तहत दूसरी समीक्षा संभव नहीं थी।
मुख्य न्यायाधीश काज़ी फ़ैज़ ईसा ने न्यायिक अखंडता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा, “मैं हर नमाज़ के बाद दुआ करता हूँ कि कोई गलत निर्णय न लिया जाए।” उन्होंने संसद के प्रति सम्मान भी व्यक्त किया। अदालत ने इस बात पर जोर देते हुए निष्कर्ष निकाला कि मुबारक सानी समीक्षा निर्णय से हटाए गए पैराग्राफों को भविष्य के मामलों में मिसाल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।
दरअसल, मुबारक अहमद सानी पर ‘पंजाब दीनी किताब कुरान (मुद्रण और रिकॉर्डिंग) (संशोधन) अधिनियम 2021’ के तहत आरोप लगाया गया था। इस मामले में वह दोषी भी ठहराया गया था। हालाँकि, उसका अपराध यह कानून लागू होने से पहले हुआ था। इसके कारण उसे अदालत से जमानत और रिहाई मिल गई। इसके विरोध में सुप्रीम कोर्ट के बाहर भारी प्रदर्शन हुए।
पंजाब सरकार ने कानून, सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता से संबंधित संवैधानिक अधिकारों को स्पष्ट करने के लिए समीक्षा याचिका दायर की। 24 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता और धर्म को मानने का अधिकार कानून, नैतिकता और सार्वजनिक व्यवस्था के अधीन है। बाद में इस्लामिक विचारधारा परिषद ने अदालत से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया।
क्या है मुबारक सानी मामला?
ईंशनिंदा के आरोप में गिरफ्तार किए गए अहमदिया समुदाय के मुबारक अहमद सानी को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने रिहा करने का आदेश दिया था। साल 2023 में उन्हें तफसीर-ए-सगीर (कुरान का छोटा संस्करण) बाँटने के लिए गिरफ्तार किया गया था। इसमें अहमदिया संप्रदाय के संस्थापक के बेटे मिर्ज़ा बशीर-उद-दीन महमूद अहमद द्वारा कुरान की 10 खंडों की व्याख्या की गई है।
सानी पर 2021 के पंजाब कानून का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया था, जो कुरान से संबंधित टिप्पणियों के मुद्रण और वितरण पर रोक लगाता है। सानी ने तर्क दिया कि उन्होंने कानून लागू होने से पहले साल 2019 में इसे बाँटा था। पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश काज़ी फ़ैज़ ईसा ने अपने फैसले में कहा कि आपराधिक कानूनों को पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसे रिहा कर दिया। शुरू में इस पर किसी का ध्यान नहीं गया, लेकिन बाद में तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) ने इसे सोशल मीडिया खूब हाईलाइट किया। इसके बाद इस फैसले के विरोध में लोग सड़कों पर उतरने लगे। फजलुर रहमान जैसे कट्टरपंथी इसमें कूद पड़े और आग में घी डालने का काम किया।
Three Supreme Court of Pakistan judges retract controversial sections of their judgment in the Mubarak Sani case.
— Ghulam Abbas Shah (@ghulamabbasshah) August 22, 2024
*“If we make a mistake, it should be corrected, not turned into an ego issue. I’m grateful to those who filed a review petition,” says CJP Qazi Faez Isa.*
Thousands… https://t.co/VOWmneRP9h pic.twitter.com/fEPvYmxzNH
इस साल 23 फरवरी को हज़ारों पाकिस्तानियों ने न्यायाधीश ईसा के खिलाफ प्रदर्शन किया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस ईसा के फैसले का बचाव करते हुए एक बयान जारी किया और कहा कि यह फैसला पाकिस्तान के इस्लामी संविधान का उल्लंघन नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका के खिलाफ अभियान की निंदा की थी।
हालाँकि, विवाद बढ़ने के बाद पंजाब सरकार ने इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर की। कई मजहबी दलों ने भी याचिका दायर की। उधर कट्टरपंथी सुप्रीम कोर्ट पर लगातार दबाव बनाते रहे और सुप्रीम कोर्ट के सामने विरोध करते रहे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को चेतावनी दी थी कि अगर 7 सितंबर से पहले फैसले को बदला नहीं गया तो इस्लामाबाद में कोई शांति नहीं रहेगी।
आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को कट्टरपंथियों के आगे झुकना पड़ा। 24 जुलाई को प्रधान न्यायाधीश ईसा सहित तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने फैसले की दोबारा जाँच की। न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया कि अहमदिया समुदाय अभी भी मुस्लिमों के रूप में पहचान नहीं रखते हैं या ना ही अपनी इबादतगाहों के बाहर अपनी मान्यताओं का प्रचार कर सकते हैं।
कट्टरपंथियों ने सीआईआई के अहमदिया को अपनी इबादतगाहों के भीतर अपना दीन मानने की अनुमति देने के फैसले की आलोचना की। उन्होंने अहमदिया समुदाय पर और कठोर नियम लागू करने की माँग की। तहफ़्फ़ुज़े-ख़त्मे नबुव्वत ने अदालत से इसे पूरी तरह से वापस लेने के लिए कहा और विरोध प्रदर्शन किया।
विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस को भीड़ नियंत्रित करने के लिए लाठी चार्ज और आँसू गैसे को गोले दागने पड़े। इसका सोशल मीडिया पर कई वीडियो सामने आए हैं। हालाँकि, कट्टरपंथी पीछे हटने को तैयार नहीं दिखे। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को पीछे झुकना पड़ा और मौलवियों की सलाह के मुताबिक फैसले में संशोधन करना पड़ा।
पाकिस्तान में अहमदिया को मुस्लिम का दर्जा नहीं
पाकिस्तान में 20 से 50 लाख अहमदिया रहते हैं। अपनी मत के कारण इस्लाम के कट्टरपंथी सुन्नी उन्हें मुस्लिम नहीं मानते। अहमदिया को उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें मस्जिदों में नमाज पढ़ने, इस्लामी अभिवादन का उपयोग करने, कुरान को सार्वजनिक रूप से उद्धृत करने और धार्मिक सामग्री का उत्पादन या प्रसार करने से कानूनी रूप से प्रतिबंधित किया गया है।
उन्हें नमाज पढ़ने के लिए सिर्फ अहमदिया संप्रदाय के लिए बनाए गए मस्जिदों का ही इस्तेमाल करने के लिए बाध्य किया जाता है। अहमदिया को पासपोर्ट या राष्ट्रीय पहचान पत्र प्राप्त करने के लिए खुद को गैर-मुस्लिम घोषित करना है। इन प्रतिबंधों का उल्लंघन करने पर उन्हें कारावास हो सकती है। इतना ही नहीं, उन पर ईशनिंदा जैसे कठोर कार्रवाई का भी सामना करना पड़ता है।