Tuesday, March 19, 2024
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मदरसाछाप सोच पर यूनेस्को की भी मुहर: रिपोर्ट में बताया- मदरसों में जिनकी तालीम, उनके लिए औरतें बच्चों की मशीन

रिपोर्ट में कहा गया है कि मदरसों के मजहबी और संस्थागत इतिहास अक्सर राज्य और गैर-राज्य संस्थानों के बीच की सीमाओं को धुंधला करते हैं और विश्लेषण को और अधिक जटिल बनाते हैं। उनके बीच विचारधारा का पालन, मजहबी किताबों और इस्लामी शिक्षाओं पर जोर दिया जाता है। इसके साथ ही दैनिक मजहबी उपस्थिति और स्थानीय मस्जिदों से लगाव जैसे कई कारक हैं।

देश में मदरसा में दी जाने तालीम (शिक्षा) को लेकर लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं, लेकिन इसे धार्मिक शिक्षा का अंग बताकर किसी भी सवाल की संभावना को नकार दिया जाता रहा है। संयुक्त राष्ट्र (UN) की संस्था यूनेस्को (UNESCO) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मदरसों में पढ़े लोगों में लैंगिक पूर्वाग्रह होता है।

यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मदरसों में पढ़े बेहद कम लोगों में महिलाओं की उच्च शिक्षा और कामकाजी माताओं के प्रति सकारात्मक राय थी। इन लोगों का मानना ​​​​था कि बीवियों का मूल काम बच्चों की परवरिश करना है, क्योंकि अल्लाह को बच्चों की संख्या निर्धारित करनी है। ऐसे लोगों ने बड़े परिवार का समर्थन किया।

रिपोर्ट में कहा गया है कि मदरसा छात्र महिलाओं और उनकी क्षमताओं के बारे में कम अनुकूल रवैया रखते थे। पारंपरिक मदरसों में शिक्षकों के परिवार काफी बड़े पाए गए थे। हालाँकि, इसके असर को लेकर कहा गया है कि मदरसों के कारण सुदूर ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा में बढ़ोत्तरी हुई है। इसमें प्रमुख भूमिका आस्था आधारित शिक्षा देने वाले संस्थानों का गैर सरकारी संस्थानों के साथ गठजोड़ की भूमिका महत्वपूर्ण है।

हालाँकि, इस संख्या में बढ़ोत्तरी पर आशंका जाहिर करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है, “मदरसा शिक्षा पहुँच में वृद्धि लैंगिक समानता पर हुए कुछ सकारात्मक प्रभाव को भी खत्म कर सकता है। पहला, मदरसा शिक्षा के पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुस्तकें लिंग-समावेशी नहीं हो सकती हैं। इसके बजाय वे लिंग आधारित पारंपरिक भूमिकाओं पर जोर देती हैं। बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, पाकिस्तान और सऊदी अरब में अध्ययनों से यही पता चला है। दूसरा, उनके शिक्षण और सिखाने की प्रथाएँ जैसे कि सामाजिक मेलजोल के दौरान लैंगिक अलगाव और विशिष्ट लैंगिक प्रतिबंध यह धारणा बना सकते हैं कि इस तरह की लैंगिक असमानता सामाजिक रूप से स्वीकार्य हैं।”

रिपोर्ट में आशंका दर्ज की गई है कि मदरसों शिक्षकों के पास लैंगिक मुद्दों का समाधान करने के लिए प्रशिक्षण की कमी है और वे इसका नकारात्मक मॉडल के रूप में कार्य कर सकते हैं। जैसे कि वे प्रजनन क्षमता को लेकर छात्रों के दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकते हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि मदरसे आमतौर पर एक ही तरह के पाठ्यक्रम अपनाते हैं, जो मजहब पर आधारित होते हैं। हालाँकि, हर देश में इनकी स्थिति एक जैसी नहीं है। कुछ देश मदरसों को सरकारी पाठ्यक्रमों जोड़ देते हैं, जबकि अन्य मुल्क पारंपरिक मॉडल से चिपके रहते हैं।”

रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति पर गैर-राज्य आस्था-आधारित स्कूलों के प्रभाव से मजहबी विश्वास एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के प्रभाव को अलग करना बहुत मुश्किल है। मदरसा नामांकन में किसी के घर के मजहबी विश्वास की प्रगाढ़ता और मजहबी स्कूल से दूरी के बीच अंतरसंबंध है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि मदरसों के मजहबी और संस्थागत इतिहास अक्सर राज्य और गैर-राज्य संस्थानों के बीच की सीमाओं को धुंधला करते हैं और विश्लेषण को और अधिक जटिल बनाते हैं। उनके बीच विचारधारा का पालन, मजहबी किताबों और इस्लामी शिक्षाओं पर जोर दिया जाता है। इसके साथ ही दैनिक मजहबी उपस्थिति और स्थानीय मस्जिदों से लगाव जैसे कई कारक हैं।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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