Sunday, November 17, 2024
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10000 गाड़ियाँ फूँकी, 307 इमारतों को जला दिया, ₹1794 करोड़ का नुकसान… 18 साल पहले भी दहला था फ्रांस, नैरेटिव – बेरोजगारी-नस्लवाद से भड़के युवा

जिन 4800 लोगों को हिरासत में लिया गया था, उनमें से 1000 नाबालिग थे। इनमें फ्रांस के नागरिकों के साथ-साथ कई विदेशी नागरिक भी थे, जिनमें से अधिकतर इस्लाम मजहब को मानने वाले अरब और अफ़्रीकी थे।

फ्रांस में ट्रैफिक नियमों को तोड़ रहे 17 वर्षीय नहेल नाम के एक मुस्लिम किशोर को गोली मार दी, जिसके बाद वहाँ दंगे भड़क गए। सैकड़ों गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया, कई सरकारी इमारतों को नुकसान पहुँचाया गया और सैकड़ों पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया गया। यूरोप में घुसपैठियों का जम कर जम कर स्वागत किया गया, ऐसे में अब ये उनके गले की फाँस बनते दिख रहे हैं। फ्रांस में एक बड़े पुस्तकालय को भी फूँक दिया गया है। दंगे रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं।

क्या आपको पता है कि फ्रांस में 2005 में भी इसी तरह का दंगा हुआ था, जो इससे भी भयंकर था और लंबे समय तक चला था। तब देश में 1 महीने तक हिंसा जारी रही थी और पुलिस के बल प्रयोग का भी कोई असर नहीं पड़ रहा था। तब पहली बार था जब यूरोप के इस देश ने देखा था कि कैसे जिहाद के नाम पर भीड़ जुटाई जा सकती है। असल में तब भी दंगे 2 किशोरों की मौत के बाद ही शुरू हुए थे, जिनमें से एक अरब मूल का था तो एक अफ़्रीकी मूल का।

आइए, बताते हैं कि 2005 में क्या हुआ था। घटना उस वर्ष 27 अक्टूबर को शुरू होती है, जब क्लिची-सूस-बोइस सबअर्ब के 2 किशोरों की पेरिस के सबअर्ब सीन-सेंट-डेनिस में एलेक्ट्रोक्यूट होने की वजह से मौत हो गई। बताया गया कि पुलिस के डर से वो एक इलेक्ट्रिकल पॉवर स्टेशन में छिप गए थे, जिसके बाद ये घटना हुई। इसके बाद उसी रात उस इलाके में दंगे शुरू हुए और 23 गाड़ियों को आग के हवाले के दिया गया।

मृतकों में एक 15 वर्षीय किशोर का नाम Bouna Traoré था, जो अपने घर के 11 बच्चों में से एक था। वहीं दूसरे का नाम ज़ायद बेन्ना था, जो अपने घर की 6 संतानों में सबसे छोटा था। दोनों के पिता घरों की साफ़-सफाई का काम करते थे। जहाँ पहला मूल रूप से पश्चिमी अफ्रीका के मौरीटानिया का था, वहीं दूसरा उत्तरी अफ्रीका के ट्यूनीशिया से ताल्लुक रखता था। आरोप लगा था कि इसघटना के बाद फ्रांस के तत्कालीन गृह मंत्री निकोलस सरकोजी ने सबअर्ब के युवाओं के लिए गलत भाषा का इस्तेमाल किया, जिससे लोग और भड़क गए।

निकोलस सरकोजी आगे चल रहा 2007 में फ्रांस के राष्ट्रपति बने। हालाँकि, इन दंगों की असली वजह कुछ और ही थी। अक्सर देखा जाता जाता है कि इस तरह की हिंसा के बाद किसी असली वजह छिपाते हुए दोष किसी के सर मढ़ दिया जाता है। दिल्ली में फरवरी 2020 में हुए हिन्दू विरोधी दंगों के बाद भी कई दिनों तक भाजपा नेता कपिल मिश्रा को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा, जबकि उनके भाषण से पहले ही पत्थरबाजी शुरू हो गई थी।

जहाँ तक 2005 के फ्रांस दंगों की बात है, सबसे पहले स्थानीय इलाके में दंगे शुरू हुए। इसके बाद राजधानी पेरिस के आसपास के इलाकों में हिंसा शुरू हो गई। इन सबमें अधिकतर युवक ही शामिल थे। इस घटना के लगभग 10 दिन बाद पूरे फ्रांस में दंगों की आग फ़ैल गई। सबसे भयानक रात आई 7-8 नवंबर को, जब डेढ़ हजार गाड़ियों को जला दिया गया। फ्रांस के 274 शहरों में हिंसा की घटनाएँ हुईं। दंगों का स्तर ऐसा था कि 17 नवंबर को ‘मात्र 100’ गाड़ियाँ जलाई गईं तो माहौल सामान्य होने की बात कही जाने लगी।

फ्रांस में 2005 में हुए इन दंगों में 10,000 गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया था। सोचिए, इन दंगों में हुआ कुल नुकसान 20 करोड़ यूरो का आँका गया था, आज के समय में ये रकम 1794 करोड़ रुपए की होगी। उस समय के हिसाब से भी ये 1120 रुपए करोड़ बैठता। 233 सरकारी और 74 प्राइवेट इमारतों को आग के हवाले कर दिया गया था। इनमें स्कूल और जिम से लेकर होटल तक शामिल थे। 10-15 हजार युवक इन दंगों में शामिल थे, जिनमें 15 युवकों तक जैसे छोटे-छोटे समूह भी थे।

आपको ये जान कर हैरानी होगी कि दंगाइयों की औसत उम्र मात्र 16 वर्ष ही थी। जिन 4800 लोगों को हिरासत में लिया गया था, उनमें से 1000 नाबालिग थे। इनमें फ्रांस के नागरिकों के साथ-साथ कई विदेशी नागरिक भी थे, जिनमें से अधिकतर इस्लाम मजहब को मानने वाले अरब और अफ़्रीकी थे। फ्रांस के तत्कालीन गृह मंत्री निकोलस सरकोजी ने इस ओर इशारा किया था कि मुस्लिम समूह इन दंगों में शामिल थे और बेरोजगारी से लेकर नस्लवाद तक के मुद्दों पर लोगों को भड़काया गया।

तब फ्रांस में मुस्लिमों की जनसंख्या 50 लाख थी और वो कुल जनसंख्या का 8% हिस्सा हुआ करते थे। जैसा कि भारत में शाहीन बाग़ के समय हुआ था, इन दंगों को भी बाद में बेरोजगारी और नस्लवादी भेदभाव के खिलाफ हुआ आंदोलन बता दिया गया। शाहीन बाग़ के बारे में यही फैलाया गया कि ये मुस्लिम महिलाओं का आंदोलन था, जो महिला सुरक्षा से लेकर बेरोजगारी तक के मुद्दों पर हुआ। जबकि सच्चाई ये थी कि ये पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के खिलाफ उतरे थे और लाखों दिल्लीवासियों को रोज परेशान किया गया।

फ्रांस के उन दंगों को लेकर भी मीडिया के एक बड़े धड़े ने ऐसा ही माहौल बनाया। बाद में मौलानाओं और मुस्लिम संस्थानों से अपील करवा दी जाती है कि शांति बनाए रखें। इसी तरह फ्रांस में भी तब वहाँ के सबसे बड़े इस्लामी संगठनों में से एक ‘फ्रेंच फतवा’ ने इस घटना की निंदा की थी। फ्रांस की सरकार को मौलानाओं से मुलाकात करनी पड़ी थी। ‘अल जज़ीरा’ जैसे इस्लामी अख़बारों ने फ्रांस की पुलिस द्वारा कार्रवाई को ही दंगों के और फैलने का कारण बता दिया

सवाल ये उठता है कि बार-बार इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा इस तरह की हरकतें किए जाने के बावजूद फ्रांस ने विदेशी घुसपैठियों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे। इतना ही नहीं, इमैनुएल मैक्रों की बतौर राष्ट्रपति पहली जीत को लिबरलों की जीत बताया गया। वो अलग बात है कि एक कट्टरपंथी मुस्लिम छात्र द्वारा पैगंबर मुहम्मद के कार्टून को लेकर अपने शिक्षक सैमुएल पैटी का गला रेते जाने के बाद फ्रांस की जनता सड़कों पर उतरी और सरकार पर कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाया।

तब दंगों को रोकने के लिए 11,000 पुलिसकर्मियों को सक्रिय किया गया था। अगर आप आज भी इन दंगों के बारे में इंटरनेट पर पढ़ेंगे तो वहाँ यही लिखा मिलेगा कि ये बेरोजगारी और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ हुआ था। क्या इसके लिए सार्वजनिक संपत्ति को लोग तबाह करेंगे? मुस्लिम भीड़ या जिहादियों द्वारा उकसाए गए हर एक दंगे का बचाव करने के लिए ऐसे ही बेकार तर्क दिए जाते हैं और उलटा किसी और के ही माथे सब मढ़ दिया जाता है, कभी सरकार तो कभी कोई विपक्षी।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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