गुजरात की घटना के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लिबरल गिरोह और मीडिया गिरोह के गले की फाँस बने हुए हैं, और खासकर बीबीसी जैसे विदेशी मीडिया ने पूरे देश में न केवल प्रधानमंत्री बल्कि हिंदू समुदाय की छवि को धूमिल करने की पुरजोर कोशिश की। अपनी इन्हीं कोशिशों के मद्देनजर बीबीसी ने पूर्व आईपीएस संजीव भट्ट को मिले आजीवन कारावास के बचाव में तमाम झूठी और ऐसी खबरें पेश की, जो अपने आप में ही बेहद उलझीं हुई थीं। साथ ही संजीव भट्ट पर रिपोर्टिंग करते हुए बीबीसी ने कारसेवकों को जिंदा जला देने की बात पर भी लगातार झूठ बोला।
बीबीसी ने अपने लेख की शुरूआत में ही पाठकों को बरगलाना शुरू कर दिया। क्योंकि जिस मामले में संजीव भट्ट को दोषी करार दिया गया है उसका प्रधानमंत्री मोदी से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन फिर आर्टिकल में उनका नाम जबरदस्ती लिखा गया। 30 अक्टूबर 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद बुलाए बंद के बाद संजीव भट्ट ने जमजोधपुर शहर में करीब 150 लोगों को सांप्रदायिक दंगों के इल्जाम में गिरफ्तार किया था। इनमें एक प्रभुदास वैष्णवी नाम का भी व्यक्ति था, जिसकी हिरासत से छूटने के बाद मौत हो गई थी। प्रभु के भाई ने पुलिस में संजीव भट्ट समेत 6 पुलिस ऑफिसरों पर एक एफआईआर दर्ज करवाई थी। इस एफआईआर में शिकायत की गई थी कि संजीव भट्ट समेत 6 पुलिस कर्मियों ने शिकायतकर्ता के भाई को हिरासत में लेकर इतना मारा कि उसकी मौत हो गई।
उल्लेखनीय है 1990 में नरेंद्र मोदी पार्टी को आगे लाने में प्रयासरत थे और 2001 में वो गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। अब ऐसे में बीबीसी या कोई अन्य मीडिया संस्थान बिना किसी सबूत के संजीव भट्ट के मामले में प्रधानमंत्री का नाम कैसे जोड़ रहे हैं ये अपने आप में एक रहस्य है।
बीबीसी ने अपने लेख में संजीव भट्ट को मामले को उजागर करने वाला यानी ‘whistle blower’ बताया जो कि बिलुकल गलत है। शायद बीबीसी को याद नहीं है या जानबूझकर अनजान बन रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संजीव भट्ट ने अपने ड्राइवर पर अपने ऐसा हलफनामा दायर करने के लिए दबाव बनाया था ताकि वो यह गवाही दे कि 27 फरवरी 2002 को भट्ट मोदी की एक मीटिंग में उपस्थित थे जहाँ मोदी ने (भट्ट के अनुसार) कहा था कि हिंदुओं को मुस्लिमों के प्रति अपना गुस्सा निकालने देना चाहिए। जबकि रिकॉर्ड्स के मुताबिक कांस्टेबल के डी पंथ (भट्ट के ड्राइवर) 25 फरवरी 2002 से लेकर 28 फरवरी 2002 गुजरात में ही नहीं थे।
भट्ट के कहने पर ड्राइवर ने पहले इस बारे में बयान दिया था लेकिन बाद में इससे इंकार कर दिया। इतना ही नहीं भट्ट ने इस बात पर भी दबाव बनाया था कि उसके ड्राइवर से SIT जाँच में पूछताछ उसकी देखरेख में हो। साथ ही भट्ट चाहता था कि पंथ ऐसी गवाही दे कि वो खुद भट्ट को मुख्यमंत्री मोदी के घर तक लेकर गया, जिसके लिए वो उसे गुजरात कॉन्ग्रेस अध्यक्ष और लीगल सेल के अध्यक्ष के घर भी लेकर गया।
इसके बाद भट्ट और एक पत्रकार के बीच में ईमेल के जरिए कुछ बातचीत हुई, जिसमें भट्ट ने यह दर्शाने की कोशिश की कि वह पत्रकार 27 फरवरी को हुई मीटिंग के दौरान भट्ट से मिला। इसके बाद भट्ट ने यह ईमेल टीवी चैनल के एक सदस्य को भेज दिया, ताकि वो हलफनामा दायर कर पाए कि वो उस दिन पत्रकार के साथ था। भट्ट की इन कोशिशों पर सुप्रीम कोर्ट ने संजीव भट्ट को कहा था कि उस रात हुए ईवेंट्स को दोबारा रिक्रिएट करने की कोशिश कर रहे हैं।
जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि संजीव भट्ट और हरेन पांड्या उस मीटिंग में मौजूद ही नहीं थे। उनकी सेल फोन लोकेशन ने इस बात को साबित किया कि वो भट्ट के सभी बयान झूठे हैं। खासकर ये कि वो प्रधानमंत्री मोदी के घर मीटिंग में गया था और प्रधानमंत्री ने हिंदुओं और मुस्लिमों को लेकर ऐसी टिप्पणी की है जिसका उपर उल्लेख है।
इन सभी आधारों पर किसी को भी हैरानी होगी कि बिना तथ्यों को जाने परखे, बीबीसी संजीव भट्ट के लिए ‘WHISTLEBLOWER’ शब्द का प्रयोग कैसे कर सकता है। बीबीसी का झूठ यही पर नहीं रुका।
बीबीसी की रिपोर्ट में कहा गया कि ट्रेन में लगी आग का कारण अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है, हिंदू समुदाय का कहना है कि ट्रेन में आग इस्लामी भीड़ ने लगाई है जबकि हाल ही में आई जाँच में खुलासा हुआ कि ये एक एक्सीडेंट था।
गोधरा कांड मामले पर बीबीसी ने अपने अनेक झूठ को दो छोटे वाक्यों में समेट दिया। 2011 में बीबीसी ने खुद रिपोर्ट की थी कि इस्लामी भीड़ ने साबरमती एक्सप्रेस पर हमला किया था, जिसमें 31 लोग दोषी पाए गए थे। इन सभी 31 लोगों को कारसेवकों को जिंदा जलाने के आरोप में अपराधी पाया गया था। खास बात ये थी कि ये सभी समुदाय विशेष से थे।
कोर्ट ने सुनवाई के दौरान इनमें से कुछ को आजीवन कारावास की सजा सुनाई तो कुछ को सजा-ए-मौत मिली। इस दौरान कोर्ट ने माना था कि ये एक पूर्व तैयारी के साथ अंजाम दी गई घटना है क्योंकि इसमें पेट्रोल भी एक दिन पहले ही खरीदा गया था।
न्यायाधीश जी टी नानावटी और न्यायाधीस अक्षय एच मेहता के नानावटी आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में यही कहा कि कारसेवकों को जिंदा जलाना कोई दुर्घटना नहीं थी बल्कि इस्लामी भीड़ का किया काम है।
यह लेख www.opindia.com पर प्रकाशित नूपुर शर्मा के लेख पर आधारित है। पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।