अभी से लगभग 3 महीने पहले एक ख़बर सामने आई थी कि प्रसार भारती समाचार एजेंसी पीटीआई के साथ संबंध ख़त्म कर सकता है। यह ख़बर ठीक उस घटना के बाद आई, जब पीटीआई ने लद्दाख सीमा विवाद मुद्दे पर चीन के राजदूत को प्रचार-प्रसार करने का मंच दिया था। समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए साक्षात्कार में सून वीडाँग ने गलवान घाटी में हुए टकराव के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहरा दिया।
इस मुद्दे पर विरोध करते हुए प्रसार भारती ने पीटीआई को पत्र लिखा और इस बात पर असहमति जताई। साथ ही यह भी कहा कि प्रसार भारती पीटीआई के साथ संबंधों की समीक्षा करेगा। इस तरह की कोई कार्रवाई होने का एक मतलब यह भी है कि प्रसार भारती पीटीआई को दिया जाने वाला आर्थिक सहयोग भी बंद कर सकता है जो कि करोड़ों में है।
हालाँकि इस मुद्दे पर अभी तक कोई स्पष्ट नतीजा निकल कर नहीं आया है। बीते कुछ दिनों में भारत सरकार ने भारत चीन सीमा मुद्दे से संबंधित हर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मुद्दे पर कड़े फैसले लिए हैं। चाहे वह चीनी एप्लिकेशन पर पाबंदी लगाना हो या चाहे चीन का समर्थन करने वाले संदिग्ध लोगों जैसे पत्रकार राजीव शर्मा की गिरफ्तारी हो, जो रक्षा क्षेत्र से जुड़े खुफ़िया दस्तावेज़ चीन से साझा कर रहा था।
सरकारी संस्थाओं से लेकर अर्ध सरकारी संस्थाओं तक, महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले समय लेकर सोच-विचार हर जगह किया जाता है। लेकिन ऐसा मुद्दा जो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ है, उस पर निर्णय लेने में देरी करना तर्क पूर्ण नहीं कहा जा सकता। जिस तरह के हालात बने हैं, ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रसार भारती इस मुद्दे पर स्पष्टीकरण जारी करे कि आखिर किन कारणों और वजहों से समाचार एजेंसी (पीटीआई) से इस मुद्दे पर सख्ती से बात नहीं कर रहा है। वह भी ऐसी समाचार एजेंसी, जिसका रवैया इतने संवेदनशील मुद्दों पर संदिग्ध है।
पीटीआई का फ़र्ज़ी और भ्रामक समाचारों से रिश्ता बहुत पुराना है। इस साल अगस्त महीने में पीटीआई ने कोरोना वायरस के आँकड़ों पर प्रधानमंत्री को मिसकोट (गलत उद्धरण) किया था। इस साल हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी पीटीआई ने कई राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड को लेकर गलत रिपोर्ट पेश की थी।
आम आदमी पार्टी के कुल 51 फ़ीसदी उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे थे, जबकि पीटीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सिर्फ 25 फ़ीसदी उम्मीदवारों पर गंभीर मामले दर्ज थे। ऐसे ही पीटीआई ने एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में कई बड़े बदलाव किए थे। ठीक इसी तरह समाचार एजेंसी ने भाजपा और कॉन्ग्रेस के उम्मीदवारों के गलत आँकड़े पेश किए थे। इन दोनों घटनाक्रमों से साफ़ हो जाता है कि इतने संवेदनशील मामलों में पीटीआई का रवैया कैसा रहा है।
पिछले साल जुलाई महीने में पीटीआई ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उस रिपोर्ट में पीटीआई ने दावा किया था कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में कहा, “विमुद्रीकरण का अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।” इसके बाद कई समाचार समूहों ने इस मुद्दे पर भ्रामक ख़बरें फैलाना शुरू कर दिया, जिसके बाद वित्त मंत्री ने खुद इस मुद्दे पर सफाई दी कि उन्होंने इस तरह का कोई भी बयान नहीं दिया है।
प्रसार भारती देश की लोक सेवा प्रसारक एजेंसी है, जिसे संसद द्वारा बनाए गए अधिनियम के अंतर्गत बनाया गया है। दूरदर्शन टेलीविज़न नेटवर्क और आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) भी प्रसार भारती के तहत ही आते हैं।
ऑपइंडिया से बात करते हुए सूत्रों ने बताया कि 1980 से लेकर अभी तक पीटीआई को जनता के प्रति ज़िम्मेदारी के बगैर 200 करोड़ रूपए की पब्लिक फंडिंग (चंदा) मिल चुकी है। आज के समय में उतनी धनराशि की कीमत 400 से 800 करोड़ रुपए (ब्याज दर के हिसाब से) है।
ऑपइंडिया को इस मामले की जाँच के दौरान एक और हैरान करने वाली बात पता चली। पीटीआई को सिर्फ प्रसार भारती से आर्थिक सहयोग नहीं मिलता है बल्कि वह बिना आधिकारिक अनुबंध के भी आर्थिक सहयोग उठा रहा है। पिछला अनुबंध साल 2005 में हुआ था जो कि साल 2006 में ख़त्म हो गया था। तभी से इस मुद्दे पर बातचीत जारी है लेकिन स्थायी अनुबंध पर कोई नतीजा निकल कर नहीं आया है।
ऑपइंडिया को यह भी पता चला कि साल 2006 के बाद से प्रसार भारती पीटीआई की सारी सेवाएँ एड हॉक आधार पर ही ले रहा है। साल 2011 और साल 2013 के दौरान रेट रिवीज़न भी एड हॉक आधार पर था। साल 2011 के पहले रिवीज़न रेट को लेकर पीटीआई ने माँग की थी कि यह 56 करोड़ होना चाहिए। यानी पीटीआई के मुताबिक़, प्रसार भारती को यह धनराशि बतौर सालाना सब्सक्रिप्शन देनी चाहिए थी।
साल 2014 में प्रसार भारती बोर्ड ने फैसला किया कि पीटीआई को दी जाने वाली राशि घटा कर 2 करोड़ रुपए कर दी जाए। साल 2019 को लिखे गए एक पत्र में भी यही बात दोहराई गई। पीटीआई से संबंधित तमाम कागज़ी कार्रवाई प्रबंधन निर्णयों के अंतर्गत आती है, जो लोक सेवा प्रसारक द्वारा लिए जाते हैं। वहीं प्रशासनिक विभाग, प्रबंधन द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देशों के आधार पर संवाद करता है। कुल मिला कर पीटीआई से संबंध समाप्त करने को लेकर अंतिम निर्णय बोर्ड ही ले सकता है, जब भी वह लेना चाहे (ऑपइंडिया द्वारा इकट्ठा की गई जानकारी के अनुसार)।
नतीजा यह निकलता है कि प्रसार भारती और पीटीआई के बीच साल 2006 के बाद से कोई आधिकारिक अनुबंध नहीं हुआ है। यहाँ तक कि पीटीआई द्वारा चीन के समर्थन में किए गए प्रचार प्रसार और फ़र्ज़ी ख़बरें प्रकाशित करने के बावजूद एड हॉक समझौता ख़त्म नहीं किया गया। एक चेतावनी पत्र ज़रूर भेजा गया था, जो अभी तक विचाराधीन है। ऑपइंडिया ने इस दौरान अधिकारियों से भी बात करने का प्रयास किया लेकिन कोई आधिकारिक तौर पर बयान देने को तैयार नहीं हुआ।
यह बात खुद में कितनी चिंताजनक है कि सुदर्शन समाचार संबंधी मामले की सुनवाई देश की सबसे बड़ी अदालत में हो रही है, वहीं पीटीआई पर इतने गंभीर आरोपों के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि क्या पुरानी लिबरल लॉबी पीटीआई को बचाने के लिए काम कर रही है? साथ ही क्या वो लॉबी प्रसार भारती पर दबाव बना रही है, जिससे पीटीआई को मिलने वाला आर्थिक सहयोग जारी रहे?