इतिहासकार रामचंद्र गुहा जैसा और पत्रकार आरफा खानम शेरवानी जैसी। कल्पना करिए कि इनके बीच हुई बातचीत का बॉयप्रोडक्ट क्या निकलेगा। बिलकुल सही समझा आपने। पीएम मोदी के लिए भरपूर घृणा और भाजपा के लिए ढेर सारी नफरत।
साक्षात्कार के नाम पर वामपंथ प्रमाणित अलग-अलग क्षेत्रों की दो कालजयी शख्सियतें द वायर पर एक साथ बैठीं। मकसद अलग-अलग विषयों पर नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ जहर उगलना।
दिक्कत क्या है? भाजपा का आना या फिर कॉन्ग्रेस के हाथ से सत्ता जाना
इंटरव्यू की शुरुआत से ही आरफा अपने मेहमान रामचंद्र गुहा से भाजपा सरकार पर सवाल शुरू करती है। सवालों से ज्यादा उनके शब्दों में इस बात की नाराजगी झलकती है कि आखिर मोदी प्रदेशों में पार्टी की सरकार बनाने पर क्यों आतुर हैं।
वो पूछती हैं कि आखिर केंद्र में बैठे लोग क्यों राज्यों में सरकार गिरा रहे हैं? क्या इससे लोकतंत्र सुरक्षित रह गया है? रामचंद्र गुहा भी अपनी पर्सनेलिटी के हिसाब से इन सवालों का जवाब देते हैं। लेकिन मध्यप्रदेश में कॉन्ग्रेस सरकार गिरने से आहत दोनों वामपंथ सर्टिफाइड वरिष्ठ भूल जाते हैं कि राज्य सरकार बनने पर जिस भाजपा को आज लोकतंत्र का खतरा करार दिया जा रहा है, उसी भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को 13वें लोकसभा चुनाव में सियासी उलटफेर के चलते अपनी केंद्र से हाथ धोना पड़ा था। लोकतंत्र पर खतरा उस समय नहीं आया था शायद। क्योंकि लोगों ने उसे राजनीति का हिस्सा मान लिया था।
आज मध्यप्रदेश में सीट जाने का दुख है। मगर, ये नहीं समझना चाहते कि इसके पीछे भाजपा उत्तरदायी कैसे है? क्या सिंधिया के मन में खटास भाजपा ने पैदा की या फिर कॉन्ग्रेस के उस नेतृत्व ने जो आज भी परिवारवाद के पुराने ढर्रे पर पार्टी को नेहरू की कॉन्ग्रेस साबित करना चाहता है और काबिल नेताओं को दरकिनार कर। आज राजस्थान में भी जो हालत है- क्या उसके लिए जिम्मेवार बीजेपी है या फिर सीएम गहलोत जैसे कॉन्ग्रेसी ओल्ड गार्डों का अहंकार। जिन्होंने पायलट की काबिलियत को हमेशा से नकारा।
हर कोई इस बात को जानता है कि मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट ने कॉन्ग्रेस को जिताने के लिए क्या कुछ नहीं किया। उनकी क्षमताओं की अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जब सिंधिया पार्टी से हटे तो मध्यप्रदेश में सरकार गिर गई और जब पायलट गए तो कई नेताओं ने उनका समर्थन किया।
आरफा खान्नम और रामचंद्र गुहा आज भाजपा को लोकतंत्र पर खतरा बता रहे हैं। लेकिन इस पर बात नहीं करते कि कॉन्ग्रेस पार्टी में वे कौन सी कमियाँ हैं जिसके कारण जरा सी सियासी बयार पर उसकी कुर्सी हिल जाती है।
राजनीति का स्वरूप मोदी ने बदला और मीडिया का वामपंथ ने?
साक्षात्कार में बात निकलती है कि पिछले कुछ सालों में राजनीति का स्वरूप बहुत बदल गया है। बिलकुल बदला है और समय की माँग है राजनीति में बदलाव। संसाधन, माध्यम, तकनीक, बौद्धिकता, सजगता कुशलता सब इस बदलाव में बराबर के हिस्सेदार हैं। मगर, कोई बता सकता है कि मीडिया का स्वरूप क्यों बदला? और क्यों बदला मीडिया के सवाल पूछने का ढंग?
क्या कारण है कि राजनीति गलियारों में मची हलचल का आँकलन करने से ज्यादा मीडिया के लिए सवाल ये है कि आखिर ये क्यों हुआ और कैसे इसे लोकतंत्र के लिए घातक कहा जाए। आखिर क्यों सूचनाओं से ज्यादा प्रोपेगेंडा परोसा जा रहा है? क्यों ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख से ज्यादा उनका महिमामंडन हो रहा है?
जो लोग देश की अर्थव्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। क्या उन्हें नहीं मालूम कि यूपीए में भी एक फ्री ट्रेड एग्रीमेंट हुआ था। क्या उस समय विषय गर्माया था? शायद नहीं। क्योंकि तब बोलने की आजादी की नहीं थी। बात चमचागिरी की थी।
भाजपा के ख़िलाफ़ विकल्प, एकमात्र विकल्प को सर-आँखों पर बैठाने की थी और उन्हीं की नीतियों की जी हुजूरी की थी। आज जब समय बदला तो कुछ गिने-चुने शब्दों के आधार पर सवाल-जवाब हो रहा है।
अब आगे इंटरव्यू में बात करते हुए गुहा दावा करते हैं कि भाजपा की राजनीति का एक स्वरूप ये भी है कि जो उनकी बात नहीं मानता उसके पीछे जाँच एजेंसी लग जाती है और सुप्रीम कोर्ट भी अपना काम सही से नहीं कर पाती। गुहा जी के ऐसे सवालों का क्या जवाब हो खुद सोचिए।
क्या निराधार मामलों में किसी राजनेता को बेवजह फँसाया जा सकता है वो भी तब जब सबूत ही न मिले। किसी पर केस तब होता है जब उसका इतिहास काले चिट्ठों में सना हो। पूर्व मंत्री व कॉन्ग्रेस नेता चिंदंबरम का मामला लीजिए। जब चिदंबरम जेल गए तब बातें उठी कि अमित शाह का बदला है। क्या पर्याय था ऐसी अनर्गल बातों का? क्या चिंदबरम का INX घोटाले से कोई लेना देना नहीं था?
सुप्रीम कोर्ट और मीडिया को भी नहीं छोड़ा गुहा-आरफा ने
सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठाना भी आज इस धड़े के लिए आसान हो चुका है, क्योंकि वहाँ से सुनवाई हर तारीख पर टलने की बजाय अब फैसला आ रहा है। ऐसे लोगों को तो खुश होना चाहिए कि जिन मुद्दों पर कभी किसी ने कॉन्ग्रेस काल में सोचा नहीं था कि फैसला आ पाएगा, उन पर सुप्रीम कोर्ट तेजी से सुनवाई करके उन्हें सुलझा रहा है। मगर, नहीं, क्योंकि फैसला इनके विरुद्ध है तो न्यायपालिका पर आरोप मढ़ना इनके लिए आसान है।
आगे बात भाजपा पर आने वाले पैसे की अकॉउंटिबिलीटी की। गुहा कहते हैं कि पता ही नहीं चल रहा पार्टी के पास पैसा कहाँ से आ रहा है। कहाँ से वह विधायकों को खरीदने के लिए पैसे खर्च कर रही है।
विचार करिए, देश का इतना जागरूक नागरिक जो आज किसी पार्टी के बारे में कुछ पता लगाना चाह रहा है और सूचनाएँ उससे छिपा ली जा रही है। ऐसा मुमकिन है क्या? अगर ऐसे ही मुखर होकर इतिहासकारों और पत्रकारों की लॉबी ने कॉन्ग्रेस से उस समय में सवाल किया होता तो आज जो राजीव गाँधी फाउंडेशन के नाम पर जो कारनामे सामने आ रहे हैं, उनकी जगह उन मामलों पर हुई कार्रवाई सुर्खियों में होती और लोग ये सोच रहे होते कि विश्वासघात के नाम पर कॉन्ग्रेस कहाँ-कहाँ अव्वल रही।
चापलूसी कौन करता रहा?
दोनों बुद्धीजीवि द वायर के बैनर तले बैठकर देश के प्रधानमंत्री के लिए बोलते हैं उनका कोई सलाहकार समूह नहीं है। सिर्फ़ चापलूसी समूह है। अपनी बात को बैलेंस करते हुए एक जगह वीडियो में गुहा ये कहते नजर आते हैं कि कई जगहों पर नरेंद्र मोदी, इंदिरा गाँधी से आगे निकल गए हैं।
हालाँकि थोड़ी ही देर बाद ये कह देते हैं कि इंदिरा गाँधी ने कभी भी सेना से छेड़छाड़ नहीं की। वे अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए तरह तरह के आरोप लगाते हैं। मगर, भूल जाते हैं आपातकाल के समय क्या हुआ था? वो आपातकाल जहाँ किसी को अपने पक्ष और विपक्ष में रखने की बात ही नहीं थी। सिर्फ़ सेंसरशिप थी।
शायद गुहा ने अशोक श्रीवास्तव की नरेंद्र मोदी सेंसर नाम की वो किताब नहीं पढ़ी। जिसमें इस बात का उल्लेख है कि कॉन्ग्रेस ने कैसे एक सार्वजनिक स्थान (डीडी चैनल) को राजनीतिक प्रतिद्वंदी को निशाना बनाने के लिए उपयोग किया था। जब अमेरिका ने नरेंद्र मोदी का वीजा देने से मना कर दिया था तो उसकी खुशी मिठाई बाँटकर हुई थी। सोचिए ये कारनामा तब का है जब नरेंद्र मोदी सीएम थे।
गुहा के साक्षात्कार की गंभीरता इस बात से लगाइए कि उनका मत है कि आज के दौर में एनडीटीवी, द वायर जैसे संसथान स्वतंत्र रूप से खड़े और बाकी सारे डर गए हैं। उनका कहना है कि इन लोगों में विज्ञापन आदि का डर रहता है। रही बात एंकर्स की तो केवल रवीश कुमार को छोड़ दिया जाए तो सभी इनकी चापलूसी और चमचागिरी करते हैं। गुहा को ये सब देखकर लगता है कि हम अकबर या राणा प्रताप के समय में आ गए हैं।
अंग्रेजी अखबारों से भी गुहा हैं गुस्सा
इस साक्षात्कार के बीच में तो आपको ये भी लगेगा कि रामचंद्र गुहा मोदी सरकार की तारीफें सुनकर इतना ज्यादा थक चुके हैं कि उन्हें कोई अखबार पसंद नहीं। वो हिंदुस्तान टाइम्स से लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया पर अपना गुस्सा उतारते हैं। उनका कहना है कि ये अखबार हफ्ते के तीन दिन नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हैं। आक्रमक भाव के साथ गुहा पूछते हैं कि बताइए क्या ये सब पहले होता था?
आरफा खान्नम की ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता
यहाँ बता दे कि इस इंटरव्यू के साथ आपको रामचंद्र गुहा की कुंठा और आरफा खानम के चेहरे पर शांति का भाव बताएगा कि ये पूरा मुद्दा दोनों के लिए कितना अहम है। याद करिए यही आरफा खानम को जब इन्होंने मोहम्मद आरिफ के साथ इंटरव्यू किया था। नरेंद्र मोदी और उनकी कार्यनीति पर उनकी सहमति देखते हुए जैसे आरफा सवाल पर सवाल पूछना चाहती थीं। मगर रामचंद्र गुहा को शांत चित के साथ सुनी जा रही हैं।
आगे जब सवाल भी करती हैं तो किसी बात का कोई काउंटर नहीं बल्कि उन्हीं बातों को उन बिंदुओं से विस्तार देती हैं जिन्हें गुहा करना भूल गए। वो ताली-थाली को मिले जनसमर्थन पर सवाल उठाती है और लोगों की मंशा पर प्रश्न करती हैं। साथ ही इसी आधार पर मोदी सरकार को घेरती हैं और पूछती हैं कि इन लोगों को सड़कों पर नाचने का और सड़कों पर बम पटाखे जलाने का किसने अधिकार दे दिया?
अब जाहिर है कि ये अधिकार नरेंद्र मोदी ने या भाजपा सरकार ने उन्हें नहीं दिया। ये उसी लोकतंत्र देश के नागरिक हैं। जिनकी मनमर्जियाँ उनके घरों की गलियों में तब भी चल रही थी जब कॉन्ग्रेस थी और वही मनमर्जियाँ अब भी चल रही हैं। इसके अलावा द वायर की गंभीर पत्रकार को जरूरत है ऐसे सवाल पूछने से पहले ये समझने की कि जब नरेंद्र मोदी ने दोनों कार्य करने की अपील लोगों से की तो देश में लॉकडाउन लगाकर। उनका मकसद वही था जो उन्होंने कहा। मगर लोगों ने उसे गलत समझकर क्या किया। इसका ठीकरा वो नरेंद्र मोदी के सिर माथे नहीं फोड़ सकतीं। आरफा आगे अपने शो में नरेंद्र मोदी को कम्युनल इंदिरा गाँधी कहलवाना चाहती हैं और गुहा कहते हैं कि कम्युनल तो हैं ही साथ में घमंडी भी हैं।
इस इंटरव्यू को सुनिए और महसूस कीजिए कि एक वामपंथ सर्टिफाइड इतिहासकार की बातों में बैलेंस करने के नाम पर नरेंद्र मोदी से समकक्ष इंदिरा गाँधी का उदहारण जरूर है। मगर, ये स्पष्ट रूप से कहने की क्षमता नहीं है कि इंदिरा गाँधी के राज में कुछ भी गलत हुआ।
उनके बातों से साफ पता चलता है कि इंदिरा गाँधी यदि कभी गलत के चरम पर भी पहुँची तो भी वो नरेंद्र मोदी से हर मायने में कम थीं। उनके मुताबिक नरेंद्र मोदी को भारत की और भारत की संस्कृति की समझ नहीं है। लेकिन इंदिरा गाँधी को थी। इंटरव्यू में गुहा स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि वे नरेंद्र मोदी की विचारधारा के साथ हिंदुत्व के ख़िलाफ़ हैं। लेकिन क्या करें भारत के पास अभी कोई विकल्प भी नहीं है।