‘Toxic Masculinity’ का लिबरपंथी कैंसर आखिरकार भारत में फैलना शुरू हो गया है। अमेरिका और पश्चिमी जगत में नारीवाद की तीसरी लहर, यानी ‘third wave feminism’ से निकला यह कालकूट विष कितना जहरीला है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइए कि मानसिक बीमारियों को दूर करने के विशेषज्ञ माने जाने वाले मनोवैज्ञानिक भी इसकी चपेट में आकर ‘मर्द होने/पौरुषत्व’ (masculinity) को ही ‘ज़हरीला’ (toxic) मानने लगे हैं।
लगभग एक साल पहले अमेरिकी मनोवैज्ञानिक एसोसिएशन (American Psychological Association, APA) ने इसी आशय के बाकायदा दिशा-निर्देश जारी किए, जिनका मजमून यह था कि लड़कों का लड़कों जैसा बर्ताव हानिकारक होता है, और अपने मरीजों में से इसे निकालना मनोवैज्ञानिकों की ज़िम्मेदारी है। इसे आम जनता ने तो लताड़ा ही, दुनिया के चोटी के मनोवैज्ञानिक जॉर्डन पीटरसन को कहना पड़ा कि वे अपने पेशे की संस्था के इस वाहियात कदम के लिए जनता के सामने ‘शर्मिंदा’ हैं। अन्य कई शीर्ष मनोवैज्ञानिकों ने भी APA को लताड़ा।
और अब यही फोड़ा भारत में रक्त-कैंसर बनने के लिए कमर कस चुका है। सबूत है राजीव भार्गव का द हिन्दू में प्रकाशित लेख, जिसमें हॉनर-किलिंग से लेकर मॉब-लिंचिंग और जातिवाद से लेकर बच्चों के एक-दूसरे को चिढ़ाने के लिए कही जाने वाली बातों को ‘toxic masculinity’ यानी ज़हरीले पौरुषत्व के नाम कर दिया गया है।
हॉनर-किलिंग का oversimplification
अगर हॉनर-किलिंग महज़ मर्दों का, मर्दों के अहम का या ‘toxic masculinity’ का मसला होता, तो आधे से अधिक मामलों में पीड़िता के परिवार की महिलाएँ भी हत्या में शामिल न होतीं, जैसा कि अदालतों, FIR से लेकर मीडिया रिपोर्टों में देखा जा सकता है। हॉनर-किलिंग जातिवादी ऊँच-नीच, सम्पत्ति (महिला नहीं, असली खेत-खलिहान की सम्पत्ति), केवल कुछ हद तक पितृसत्ता, समय के साथ जड़ रूढ़ियाँ हो गईं धार्मिक-सामाजिक परम्पराओं वाला जटिल मसला है। इसे केवल अपने ‘toxic masculinity’ एजेंडे से जोड़कर लेखक एजेंडेबाजी के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं।
पहलू खान, दलितों का मामला
आश्चर्य की बात है कि पहले पहलू खान मामला गौ-तस्करों और गौ-रक्षकों का न होकर साम्प्रदायिक था, और अब दो मजहबों का न होकर राजीव भार्गव के लिए ‘toxic masculinity’ का उदाहरण हो गया है! कल को पत्रकारिता के समुदाय विशेष की यादवों पर नज़र टेढ़ी हो गई तो यह यादव-समुदाय विशेष का मामला भी बन जाएगा? निश्चित तौर पर पहलू खान के हत्यारों को उनके किए की न्यायोचित सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन इस मामले में ‘toxic masculinity’ का एंगल कहीं से भी उचित नहीं है।
इसी तरह दलितों को पीटने का मामला, जो कल तक हिन्दू धर्म की गलती था, आज मर्द होने की गलती हो गया? यानी अगर दलितों के साथ हिंसा ‘toxic masculinity’ के कारण हो रही है, तो मृतक पहलू खान भी दलितों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार हुआ? ये कहाँ का लॉजिक है?
Manhood का model खुद तय करके खुद उसे गरियाना या तो बौद्धिक कायरता है, या toxic elitism
भारत में, खासकर हिन्दुओं में इतने जाति-सम्प्रदाय-परम्पराएँ हैं कि शादी जैसे सीधे-सीधे मामले में आज तक कोई ऐसा कानून बना नहीं, जो सारे-के-सारे भारतीयों पर लागू हो जाए- और रोज़मर्रा के लोगों के आपसी व्यवहार जैसे जटिल मसले पर भार्गव जी न केवल एक मर्दवादी व्यवहार का मॉडल निकाल भी लाए, बल्कि खुद उसमें मीन-मेख भी निकाल डाला! यानी खुद दुश्मन बनाया, और खुद उसे मार डाला। या तो यह घमंड है लिबरल बौद्धिक होने का, कि जो मैं कहूँ वही सब पर लागू होता है, या यह बौद्धिक कायरता है कि अपने बनाए हवा के गुब्बारे को फोड़ कर किला-तोड़ घोषित हो जाया जाए!
इसमें कोई शक नहीं कि पुरुष महिलाओं से सामान्यतः थोड़े अधिक आक्रामक होते हैं, लेकिन यह किसी सांस्कृतिक ज़बरदस्ती या ‘toxic masculinity’ के चलते नहीं, बायोलॉजिकल कारणों से होता है। इन जटिल मामलों का अध्ययन जॉर्डन पीटरसन जैसे मनोवैज्ञानिकों, ब्रेट वाइन्सटाइन जैसे evolutionary theorist या गैड साद जैसे evolutionary psychologist को पढ़ कर समझा जाता है भार्गव जी, ‘toxic masculinity’ का रोना रोकर नहीं। और अगर मर्द ‘आक्रामक’ न हों तो जब कोई नाव डूबने लगेगी, घरों में आग लगेगी या कोई बनैला पशु हमला करेगा, तो महिलाओं-बच्चों को पीछे कर हट्टे-कट्टे पुरुष आगे कूदने की बजाय बच्चों-औरतों को फेंक कर उनकी लाशों पर चढ़ कर जान बचा कर भागेंगे!
महिलाओं द्वारा पुरुषों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार, समुदाय विशेष पर चुप्पी
चूँकि लिबरल अख़बार और लिबरल (और माना जा सकता है कि फेमिनिस्ट भी) लेखक हैं, इसलिए ज़ाहिर है कि न तो महिलाओं द्वारा पुरुषों पर होने वाली ज़्यादतियों का नाम लेने की उम्मीद की जा सकती है, न समुदाय विशेष का नाम लेने की। और यही हुआ है भी। महिलाओं द्वारा पुरुषों के साथ किए जाने वाले गलत व्यवहार को कौन सी ‘-ity’ कहा जाएगा, भार्गव जी न यह बताते हैं, न ही यह कि समुदाय विशेष में होने वाले तीन तलाक, हलाला, बुरका आदि ‘toxic masculinity’ होंगे या कुछ और।
लेकिन भार्गव जी से सवाल ज़रूर है कि अगर कोई महिला पति से तलाक का मुकदमा जीतने के लिए अपनी ही बच्ची के बलात्कार का झूठा आरोप पति पर लगा दे, तो यह feminity (क्योंकि बलात्कार के आरोप का इस्तेमाल masculinity तो नहीं सकता) toxic होगी या नहीं? अगर कोई महिलाओं को प्रमोशन मिलते ही प्रमोशन के लिए जी-जान से पीछे खड़ा पति बोझ हो जाए, उससे तलाक की इच्छा कुलबुलाने लगे तो यह blatant hypergamy ही होगा, या इसके समर्थन के लिए कोई कुतर्क बचा कर रखा है?