Sunday, November 17, 2024
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TOI ने पब्लिश की पेड न्यूज, फैलाया मोदी विरोधी प्रोपगेंडा: पकड़े जाने पर चुपके से डिलीट की ‘खबर’

यही आर्टिकल इसी लेखक के नाम से द वायर पर भी पब्लिश हुआ था। वहाँ भी आर्टिकल का एक-एक शब्द ऐसा था। इसलिए अगर कोई ये सोचे कि ये पहली बार टाइम्स पर ही पब्लिश हुआ है तो नहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया से पहले 25 अप्रैल को ये द वायर पर भी पब्लिश हो चुका था।

टाइम्स ऑफ इंडिया (Times of India) में 28 अप्रैल 2021 (बुधवार) को 10वें पेज पर न्यूज की तरह एक मोदी विरोधी प्रोपगेंडा विज्ञापन प्रकाशित हुआ। ये आर्टिकल रूपी विज्ञापन देवोलीना चक्रवर्ती ने लिखा। इसमें वह कोरोना के नाम पर मोदी विरोधी बातें करती दिखीं।

इसमें केंद्र सरकार की आलोचना व उनका क्रियान्वयन पर सवाल एक वाजिब बात थी, लेकिन जो गलत था वो इसे पाठकों को पेश करने का तरीका। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे न्यूज आइटम की तरह पेश किया।

टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित विज्ञापन

आमतौर पर अखबारों में AD के बारे में दूर से पता चल जाता है। उसमें अलग बॉर्डर होते हैं या कहीं कुछ ऐसा जरूर होता है जिससे पता चले कि विज्ञापन है न कि कोई ए़डिटोरियल पीस।

लेकिन, इस केस में पाठक के पास कोई अन्य रास्ता नहीं है कि वो पता लगा सके कि ये न्यूज स्टोरी है या विज्ञापन। कुछ लोगों को ये सामान्य लेख भी लग सकता है। लेकिन न्यूजब्रेड के आशीष शुक्ला जैसों को इसमें अंतर साफ दिखा।

उन्होंने आर्टिकल और विज्ञापन में फर्क दिखाते हुए समझाया कि सामान्य लेखों में इस्तेमाल किया गया फॉन्ट और इस लेख का फॉन्ट भिन्न है। आशीष ने इस बात पर ध्यान दिलाया कि ये आर्टिकल एक विज्ञापन है ताकि पीएम मोदी की छवि खराब की जा सके न कि ये कोई असली स्टोरी है।

आशीष ने इस संबंध में अपने पोर्टल पर भी लिखा। तस्वीर में देख सकते हैं कि ये दो कॉलम का है और आधे से ज्यादा पेज पर इसे खींचा गया है। आमतौर पर इतने बड़े ऐड की कीमत टाइम्स ऑफ इंडिया में 20-30 लाख रुपए होती है।

फॉन्ट के अलावा कई चीजें हैं जो बताती हैं कि ये न्यूज स्टोरी या ओपिनियन पीस सच में एक पेड विज्ञापन था। आर्टिकल में ‘यू और योर’ जैसे शब्द डबल इन्वर्टेड कॉमा में लिखे हैं। इसके अलावा इसमें लेखक की एक फोटो भी है जो ये दिखाने के लिए छापी जाती है कि लेख ओपिनियन पीस है।

अगर इतने प्रमाण भी काफी नहीं हैं तो बता दें कि यही आर्टिकल इसी लेखक के नाम से द वायर पर भी पब्लिश हुआ था। वहाँ भी आर्टिकल का एक-एक शब्द ऐसा था। इसलिए अगर कोई ये सोचे कि ये पहली बार टाइम्स पर ही पब्लिश हुआ है तो नहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया से पहले 25 अप्रैल को ये द वायर पर भी पब्लिश हो चुका था। इससे जाहिर है ये न न्यूज स्टोरी है और न ओपिनियन पीस, क्योंकि अगर ऐसा होता तो नीचे बताया जाता कि ये आर्टिकल द वायर में पहले प्रकाशित हुआ या इसके लिए द वायर को साभार दिया जाता।

मालूम हो कि प्रिंट और डिजिटल मीडिया की कुछ मूल बातें होती हैं जो टाइम्स ऑफ इंडिया के लेख में नहीं थीं। अखबार में केवल एक न्यूज के तौर पर प्रोपगेंडा विज्ञापन चलाया जा रहा था। लेकिन जैसे ही इसका मालूम लोगों को चला अखबार के डिजिटल साइट से इसे हटा लिया गया।

भारत में पेड न्यूज

मीडिया जगत में पेड न्यूज का कॉन्सेप्ट 2009 के बाद आया। इसका मतलब होता है कि ऐसे विज्ञापन जो न्यूज की तरह हों। 2010 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने पाया कि इनसे न केवल पत्रकार बल्कि मीडिया संस्थानों को भी फायदा पहुँचता है। इसे राजनेताओं, संस्थानों, ब्रांड, मूवी और सेलिब्रिटियों द्वारा दिया जाता है। विकीपीडिया के अनुसार इस तरीके का दुरुपयोग बेनेट, कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड समूह द्वारा किया गया। दिलचस्प यह है कि यही संस्थान टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रकाशन का मालिक है।

बता दें कि कई ऐसे मामले हैं जब मीडिया संस्थानों ने पेड न्यूज चलाई। ये काम प्रमुखता से यूपीए शासन में हुआ। 2009 से 2013 के बीच 17 राज्यों में चुनाव हुए और निर्वाचन आयोग ने 1400 से ज्यादा पेड न्यूज के मामले इस बीच रिपोर्ट किए।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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