'किसान आंदोलन' से रेप-हत्या की खबरें आती थीं, 'किसान गर्जना रैली' में अलग-अलग संस्कृतियों का प्रदर्शन दिखा। आक्रोश तो था, लेकिन दुर्भावना नहीं। टिकैत जैसों को ये फर्क देखना चाहिए। यहाँ टुकड़े-टुकड़े की बातें करने वाले खालिस्तान नहीं थे, 'भारत माता' थीं।
शाहीन बाग़ प्रदर्शन हो या किसान आंदोलन, इसका असर रोजमर्रा के काम पर जाने वाले लाखों लोगों पर पड़ा। स्कूली बच्चों पर पड़ा। भीड़तंत्र के सामने इनकी कौन सुने?