Tuesday, December 10, 2024
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जिनकी रथ की धूल ने बदल दी राजनीति, जिनकी सांगठनिक अग्नि में तप कर निखरे नरेंद्र मोदी: 97 के हुए ‘भारत रत्न’ स्वयंसेवक

लालकृष्ण आडवाणी भारत में राम मंदिर आंदोलन और भाजपा के प्रखर दक्षिणपंथी अवतार के लिए हमेशा ही जाने जाते रहेंगे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर देश को कॉन्ग्रेस के अलावा एक राष्ट्रव्यापी मजबूत विकल्प दिया, जो कि वामपंथ जैसी विचारधारा 5 दशक में भी नहीं कर पाई थी

देश के पूर्व प्रधानमंत्री, भाजपा के पूर्व मुखिया और रामरथ यात्रा के नायक भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी शुक्रवार (8 नवम्बर, 2024) को 97 साल हो गए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें जन्मदिन की बधाई दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उनका यह जन्मदिन इस बार इसलिए विशेष हैं क्योंकि इसी साल उन्हें भारत रत्न दिया गया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रमुख स्टेट्समेन में एक करार दिया है और कहा है कि उन्होंने देश के विकास के बड़ा योगदान दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और बाकी नेताओं ने भी आडवाणी के जन्म दिन पर बधाई दी है।

लालकृष्ण आडवाणी भारत में राम मंदिर आंदोलन और भाजपा के प्रखर दक्षिणपंथी अवतार के लिए हमेशा ही जाने जाते रहेंगे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर देश को कॉन्ग्रेस के अलावा एक राष्ट्रव्यापी मजबूत विकल्प दिया, जो कि वामपंथ जैसी विचारधारा 5 दशक में भी नहीं कर पाई थी।

लालकृष्ण आडवाणी का जीवन भी उत्तर चढ़ाव से भरा रहा है। वह अब उन कुछ गिने चुने नेताओं में से हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया है और सावरकर तथा गाँधी जैसे महान लोगों के समय के साक्षी रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी के जीवन परिचय में फ़िल्में-किताबें, अध्यात्म और हिंदुत्व की राजनीति, सब कुछ रही है।

कराची में जन्म, अंग्रेजी शिक्षा, पड़ोसी पारसी

लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर, 1927 को सिंध (जो अब पाकिस्तान में है) के कराची शहर में हुआ था। उनके परिवार में उनके अलावा सिर्फ उनके माता-पिता और बहन ही थे। उनके जन्म के तुरंत बाद उनके परिवार ने जमशेद क्वार्टर्स (पारसी कॉलोनी) मोहल्ले में ‘लाल कॉटेज’ नाम का एकमंजिला बँगला बनवाया था। उसी मोहल्ले में कई समृद्ध पारसी समाज के लोग रहते थे।

सिंधी हिन्दुओं की आमिल शाखा से उनका परिवार ताल्लुक रखता था। आमिल समाज के बारे में बता दें कि ये लोग लोहानो वंश के 2 मुख्य भागों में से जुड़े थे जो वैश्य समुदाय से आते थे। मुस्लिम बादशाह भी अपने प्रशासकीय तंत्र में इनकी सहायता लेते थे।

ये लोग नानकपंथी होते थे और सिख धर्म से इनकी नजदीकी थी। आगे चल कर सिंध में सरकारी नौकरियों में भी इनका दबदबा रहा। लालकृष्ण के दादा धरमदास खूबचंद आडवाणी संस्कृत के विद्वान थे और एक सरकारी हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक भी। उनके पिता किशिनचंद एक व्यापारी थे।

उनकी शिक्षा-दीक्षा ‘सेंट पैट्रिक्स हाईस्कूल फॉर बॉयज’ में हुई थी। एक ऐसे स्कूल में, जिसकी स्थापना सन् 1845 में आयरलैंड से आए कैथोलिक मिशनरियों ने की थी। वहाँ एक चर्च भी था। पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे परवेज मुशर्रफ भी उसी स्कूल से पढ़े थे। 1936-42 तक की अवधि लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में इसी स्कूल में गुजरी। 

फिल्मों से प्रेम, किताबों का शौक

आपको ये जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि लालकृष्ण आडवाणी बचपन में और युवावस्था में अंग्रेजी फ़िल्में देखा करते थे और खूब अंग्रेजी किताबें पढ़ते थे। सिनेमा और अंग्रेजी पुस्तकों से लालकृष्ण आडवाणी का लगाव उनके शुरुआती जीवन का एक विशेष हिस्सा है।

इसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरा देश, मेरा जीवन‘ में भी किया है। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वो अपने 4 मामाओं में सबसे छोटे सुंदर मामा के साथ अक्सर फ़िल्में देखने निकल जाते थे। उन्होंने ‘फेंकेंस्टाइन’ नामक एक डरावनी फिल्म का जिक्र किया है, जो उन्होंने उस जमाने में देखी थी।

ये 1931 की एक हॉरर फिल्म थी, जिसे पेबी वेबलिंग के एक नाटक के आधार पर बनाई गई थी। ये नाटक मैरी शेली की 1818 में आए उपन्यास पर आधारित थी। इसी के नाम पर फिल्म का नाम भी रखा गया। ‘यूनिवर्सल स्टूइडियोज’ ने इस फिल्म का निर्माण किया, जिसके के रीमेक बन चुके हैं।

लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में एक ऐसा समय भी आया जब उन्होंने 15 वर्षों तक 1942-56 के दौरान कोई फिल्म नहीं देखी। फिर वो जब मुंबई अपने सुंदर मामा के यहाँ गए तो उन्होंने ‘हाउस ऑफ वेक्स’ नामक फिल्म देखी। ये एक थ्रीडी फिल्म थी। ये भी एक मिस्ट्री हॉरर फिल्म थी।

लालकृष्ण आडवाणी का किताबों से प्रेम उनके कॉलेज पहुँचने के बाद चालू हुआ। आडवाणी ने 1942 हैदराबाद (पाकिस्तान) स्थित दयाराम गिदूमल कॉलेज में एडमिशन लिया। कॉलेज की लाइब्रेरी में वो पुस्तकें पढ़ने में समय व्यतीत करने लगे। उनकी रूचि विदेशी व्यवस्था में अधिक थी।

उन्होंने फ्रेंच लेखक जूल्स वर्न के सारे उपन्यास पढ़ डाले – ‘जर्नी टू द सेंटर ऑफ द अर्थ’, ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग्स अंडर द सी’, ‘अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज’ इत्यादि किताबें पढ़ी हैं। इसके अलावा लालकृष्ण आडवाणी ने चार्ल्स डिकेंस का ‘अ टेल ऑफ टू सिटीज’ और एलेक्जेंडर ड्यूमा का ‘द थ्री मस्केटियर्स’ नामक उपन्यास भी पढ़ी थी। उनकी क्रिकेट में भी रूचि थी।

संघ ने बदली जीवन की दिशा

लालकृष्ण आडवाणी के राजनीति में आने की नीँव उसी दिन पड़ गई थी जब 14 वर्ष की आयु में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) में शामिल हो गए थे। उनका RSS से जुड़ाव एक दोस्त के माध्यम से हुआ था। RSS के माध्यम से उनकी जान-पहचान पूर्णकालिक प्रांत प्रचारक राजपाल पुरी से हुई जो उनके मार्गदर्शन भी बने।

RSS में रहते हुए उन्हें द्विराष्ट्र वाले सिद्धांत के बारे में भी पता चला, जिसके तहत मुस्लिम नेता अपने लिए अलग इस्लामी मुल्क माँग रहे थे। विभाजन के बारे में सोच कर ही वो हैरान हो उठते थे। इसी दौरान उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह के बारे में पुस्तकें पढ़ीं।

न लालकृष्ण आडवाणी ने राजपाल पुरी की सलाह के बाद वीर विनायक दामोदर सावरकर की 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी पुस्तक पढ़ी। नवंबर 1947 में ऐसा समय भी आया जब आडवणी सावरकर से उनके बम्बई स्थित आवास पर मिले और विभाजन को लेकर दोनों के बीच चर्चा हुई। RSS में रहते हुए ही उनका झुकाव लगातार राष्ट्रवाद की तरफ होता चला गया।

देश का बँटवारा और मुंबई में जीवन की फिर से शुरुआत

लालकृष्ण आडवाणी और उनका परिवार 1947 के बँटवारे में भारत चला आया। यहाँ वह मुंबई में आकर बसे। उनके पिता ने यहाँ फिर से व्यापार करना चालू किया जबकि आडवाणी इस दौरान संघ के कराची क्षेत्र के प्रचारक के तौर पर संगठन के काम में तल्लीन हो गए।

1947 से लेकर 1951 के के बीच लालकृष्ण आडवाणी राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों में RSS का काम करते रहे। इसके बाद जब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई, तो वह उसके पहले कुछ सदस्यों में से एक थे। आडवाणी 1957 आते-आते पार्टी के महासचिव बन चुके थे और बाद में वह दिल्ली जनसंघ के अध्यक्ष भी बने।

इस दौरान उनकी नजदीकी अटल बिहारी वाजपेयी से बढ़ी। वह वाजपेयी और बाकी नेताओं को उनके संसदीय कामों में मदद करते थे। आडवाणी 1970 तक दिल्ली की राजनीति में सक्रिय रहे। वह यहाँ के स्थानीय निकाय के मुखिया भी रहे। 1970 में वह पहली बार दिल्ली से राज्यसभा पहुँचे। उन्हें इंदिरा गाँधी सरकार में आपातकाल के विरोध के चलते जेल में भी डाला गया।

1977 में जब देश में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार आई तो वह उसमें सूचना प्रसारण मामलों के कैबिनेट मंत्री बने। 1980 आते-आते जब स्पष्ट हो गया कि समाजवादी देश को कॉन्ग्रेस के सामने एक विकल्प नहीं दे सकते तो उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिल कर भाजपा की नीँव रखी।

RSS का प्रचारक बना हिंदुत्व का नायक

लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के 1988 तक दो बार अध्यक्ष बन चुके थे। इसी दौरान देश में राम मंदिर आंदोलन तेज हो रहा था। अब तक सौम्य स्वभाव के माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने इस मंदिर आंदोलन को समर्थन देने का फैसला लिया। उन्होंने इसके लिए रामरथ यात्रा का ऐलान किया।

यह यात्रा 25 सितम्बर को सोमनाथ से निकली थी और इसको अलग-अलग प्रदेशों से होते हुए 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या पहुँचना था। उनका रामरथ जहाँ से गुजरता, उसकी धूल लोग माथे में लगाते। रथ के पीछे हिन्दुओं का रेला चलता। लोग एक ही बात रटते, “लाठी-गोली खाएँगे-मंदिर वहीं बनाएँगे।”

आडवाणी की इस रथ यात्रा का प्रभाव था कि पूरे देश से कारसेवक अयोध्या में जुटने लगे। कारसेवक इस बात पर अडिग थे कि मंदिर निर्माण तो होकर रहेगा चाहे तत्कालीन प्रदेश सरकार कितना भी जोर लगा ले। इसी कड़ी में 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली भी चली जिसमें कोठारी बन्धु समेत तमाम कारसेवक मारे गए।

एक कारसेवक ने मरते हुए अपने खून से सड़क पर ‘जय श्री राम’ लिखा। यात्रा शुरू होने के बाद एक ओर देश के करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के सेवक आडवाणी खड़े थे तो दूसरी तरफ वीपी सिंह, मुलायम सिंह और लालू यादव जैसे नेता कैसे अधिकाधिक मुस्लिम वोट बटोरे जाएं इसके लिए आपस में ही होड़ कर रहे थे।

इस यात्रा को रोक कर बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव ने रोक लिया। लालू यादव इस कदम के जरिए अपने आप को मुस्लिमों का मसीहा स्थापित करना चाहते थे। इसके साथ ही वह दिखाना चाहते थे कि वही एक ताकत हैं जो देश में हिंदुत्व के उभार को रोक सकते हैं।

रामरथ यात्रा ने मंदिर आंदोलन को घर-घर में बहस का मुद्दा बना दिया। आडवाणी को इस मामले में निर्विवाद तौर पर आंदोलन का राजनीतिक नेता मान लिया गया। आडवाणी ने भी बिना पीछे हटे हुए कहा कि मंदिर वहीं बनाएँगे, उसको कौन रोकेगा। उन्होंने साफ़ कर दिया कि देश की अदालतें तय नहीं करेंगी कि करोड़ों के आराध्य का जन्म कहाँ हुआ।

इस आंदोलन और रामरथ यात्रा के बाद देश की राजनीति में मार्क्सवाद, वामपंथ, समाजवाद, और कॉन्ग्रेस के अवसरवाद के बराबर में हिंदुत्व और दक्षिणपंथ का एक विकल्प खड़ा हो गया। आडवाणी ने इस हिंदुत्व को देश के पटल पर ऐसी शक्ति बना दिया जिसकी काट आज तक कॉन्ग्रेस जैसी पार्टियां नहीं खोज पाई।

उपप्रधानमंत्री, भारत रत्न और पार्टी का उदय

लालकृष्ण आडवाणी मात्र हिंदुत्व के नायक ही नहीं बल्कि देश की बड़ी राजनीतिक शख्सियतों में से भी एक हैं। आडवाणी देश के उप्रधानमंत्री रहे, गृह मंत्री रहे। भाजपा के अध्यक्ष रहे और साथ ही नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं को उनके ही सानिध्य में राजनीति की बारीकियाँ सीखने का मौक़ा मिला।

उनके सामने ही पार्टी अब तक 6 बार केंद्र में सत्तारूढ़ हो चुकी है। उनके ही सामने पार्टी का विस्तार 2 सीटों से लेकर 300 पार तक पहुँचा है। पार्टी गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी हार्टलैंड कहे जाने वाले राज्यों से निकल कर कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में विकल्प बनी है और उत्तर पूर्वी राज्यों में उसने कॉन्ग्रेस और वामदलों का सफाया कर दिया है।

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