Thursday, November 21, 2024

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स्वतंत्रता संग्राम

सेल्युलर जेल में हिंदुत्व को लेकर खुली वीर सावरकर की आँख, मुस्लिम कैदियों के अत्याचारों ने खोली ‘घर वापसी’ की राह: ‘नायक बनाम प्रतिनायक’...

सेल्युलर जेल में हिंदू क्रांतिकारी बहुसंख्यक थे। उनको नियंत्रित करने और यातनाएँ देने के मकसद से जेलर बारी ने मुसलमान अपराधी कैदियों को वार्डर, पहरेदार और हवलदार वगैरह नियुक्त कर दिया था।

कौन थी वो राष्ट्रभक्त तिकड़ी, जो अंग्रेज कलक्टर ‘पंडित जैक्सन’ का वध कर फाँसी पर झूल गई: नासिक का वो केस, जिसने सावरकर भाइयों...

अनंत लक्ष्मण कन्हेरे, कृष्णाजी गोपाल कर्वे और विनायक नारायण देशपांडे को आज ही की तारीख यानी 19 अप्रैल 1910 को फाँसी पर लटका दिया गया था। इन तीनों ही क्रांतिकारियों की उम्र उस समय 18 से 20 वर्ष के बीच थी।

4-5 मुस्लिम चिल्लाते हुए आए, खंजर खोपा, कुल्हाड़ी और लाठियों से किया वार… 25 मार्च को ही हुई थी उस पत्रकार की हत्या जो...

1927 में मुस्लिमों ने एक हिन्दू शादी में बैंड बजाने पर बवाल कर दिया था। विद्यार्थी ने कुछ नेताओं के साथ मिल कर एक मस्जिद के सामने संगीत बजाकर इस मानसिकता का विरोध किया।

‘बहरों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज़ की ज़रूरत’: ब्रिटिश सरकार को नाकों चने चबवा दिए थे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु, शहीद दिवस...

सैंडर्स की हत्या के लिए भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को आज ही के दिन यानी 23 मार्च 1931 को फाँसी दे दी गई थी।

जब भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद को भी करनी पड़ी थी ‘घर-वापसी’… ‘क्रांतिदूतों’ की दास्ताँ की छठी क़िस्त, शुरू से अंत तक बाँधे रखती...

कानपुर में भगत सिंह को गणेश शंकर विद्यार्थी जैसा गुरु मिल चुका था, तो चंद्रशेखर आज़ाद और बटुकेश्वर दत्त जैसा साथी भी मिला था। मनीष श्रीवास्तव ने 'क्रांतिदूत' श्रृंखला की 'घर वापसी' में बताई है सारी कहानी।

‘विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता’: भगत सिंह ने लिखा था, समझाया भी था… काश उनकी टीशर्ट पहने लोग, ‘लाल-सलाम’ वाली भीड़ इसे...

“विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता यद्यपि यह हो सकता है कि विद्रोह का अंतिम परिणाम क्रांति हो।” - भगत सिंह ने लिखा-समझाया था।

वो देखो थानेदार साहब, क्रांतिकारी लोग! जब साथियों को बचाने के लिए भगत सिंह ने लगाया दिमाग, मेले में लोगों को ‘जगाने’ पहुँचे थे...

भगत सिंह के पास अब कोई चारा नहीं था। उन्होंने जेब से पिस्तौल निकालकर जैसे ही हवा में दो-तीन फायर किए और पुलिसवाले जान बचाकर वहाँ से भाग लिए।

जो उतरे थे मुर्दा लाशों को लड़ने का पाठ पढ़ाने… प्रेमचंद-दिनकर से लेकर भारतेन्दु-मैथिलीशरण तक, कलम से कुछ यूँ आज़ादी का अलख जगा रहे...

प्रेमचंद की 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' उपन्यास हो या भारतेंदु हरिश्चंद्र का 'भारत-दर्शन' नाटक या जयशंकर प्रसाद का 'चंद्रगुप्त'- सभी देशप्रेम की भावना से भरी पड़ी है।

झाँसी को क्रांतिकारियों की शरणस्थली बनाने वाले ‘मास्टर’, जो चुका रहे थे ‘रानी सा’ का कर्ज: घर के बाहर पुलिस, फिर भी आज़ाद को...

मास्टर जी जी की दिलेरी का यह हाल था कि वो खाली समय में अपने दरवाज़े पर नियुक्त पुलिस वाले से पंजा लड़ा कर अपना वक्त गुज़ारा करते थे। झाँसी में उनके यहाँ ही रुके थे चंद्रशेखर आज़ाद।

दम्बूक-दम्बूक… जब एक छोटे से बच्चे ने अटका दी थी बड़े-बड़े क्रांतिकारियों की साँसें, चंद्रशेखर आज़ाद ने ऐसे होशियारी से सँभाला मामला

बच्चे ने इसके बाद सभी पर अपनी 'दम्बूक' से निशाना साधा और सभी ज़मीन पर गिरने लगे। आज़ाद गोदी में लिए बच्चे को बाहर आ गए और जीजाजी के हवाले कर दिया।

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