Monday, October 7, 2024
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झाँसी को क्रांतिकारियों की शरणस्थली बनाने वाले ‘मास्टर’, जो चुका रहे थे ‘रानी सा’ का कर्ज: घर के बाहर पुलिस, फिर भी आज़ाद को दी पनाह

सभी युवाओं को मास्टर जी व्यायाम के बहाने क्रांति के अर्थ एवं सिद्धांतों की शिक्षा दिया करते थे। कुछ समय बाद बाहर निकलते ही यह सभी नवयुवक क्रांति दल एवं राष्ट्रीय सेवा में जुट जाते थे।

‘झाँसी’ – यह नाम सुनते ही साथ देश-विदेश में बसे भारतीयों के समक्ष एक तस्वीर जो सबसे पहले आती है वो है झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की। झाँसी अपनी अग्नि एवं क्रांतिधर्मी प्रकृति के लिए शुरू से ही विख्यात रही है। 1857 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन की चिंगारी जो हमारी रानी सा ने लगाई थी वो 1947 में जाकर अपनी गति को प्राप्त हुई और भारत को अंग्रेज़ों की पराधीनता से मुक्ति मिली।

यह हम सभी जानते हैं कि प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में झाँसी ने अपनी एक अलग पहचान बनाई थी किंतु 1857 के समर के बाद भी झाँसी की क्रांतिकारी आन्दोलन में सहभागिता कम महत्वपूर्ण नहीं रही। झाँसी में क्रांति दल की स्थापना एवं विकास में उस काल में यदि किसी व्यक्ति ने सर्वाधिक रुचि ली थी तो वह थे मास्टर रूद्र नारायण जी। अट्ठारह सौ सत्तावन की प्रथम स्वतंत्रता सेनानी महारानी लक्ष्मी बाई ने समूचे बुंदेलखंड़ में क्रांति एवं बलिदान के जो बीज अंकुरित किए थे, उनके अंकुरों से ही कालांतर में मास्टर रुद्र नारायण जैसे राष्ट्धर्मी एवं क्रांतिकारी पुष्प पल्लवित हुए।

मास्टर जी जगजाहिर राष्ट्रप्रेमी थे और स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। उन्होंने अपने घर के आँगन में ही एक व्यायामशाला बनवा रखी थी जिसमें झाँसी के युवा व्यायाम तथा मल्ल विद्या का अभ्यास करते थे। युवक आते तो थे व्यायाम करने किन्तु जब वहाँ से लौटते थे तो उन युवकों के दिलों के अंदर क्रांति की एक नन्ही सी चिंगारी मास्टर जी द्वारा सुलगाई जा चुकी होती थी। 

सभी युवाओं को मास्टर जी व्यायाम के बहाने क्रांति के अर्थ एवं सिद्धांतों की शिक्षा दिया करते थे। कुछ समय बाद बाहर निकलते ही यह सभी नवयुवक क्रांति दल एवं राष्ट्रीय सेवा में जुट जाते थे। मास्टर जी कुछ समय तक उन सभी नवयुवकों पर अपनी निगाह रखते थे। मास्टर जी जब संतुष्ट हो जाते तो उनके द्वारा परखे झाँसी तथा आसपास के क्षेत्र के रणबाँकुरे राष्ट्र निष्ठा की शपथ लेकर क्रांति दल में शामिल हो जाते थे। मास्टर जी झाँसी में क्रांति दल के संस्थापकों में से एक थे और अगर यदि यह कहा जाए कि मास्टर रूद्र नारायण भारतीय क्रांतिकारी संगठन के प्रथम शिल्पियों में से एक थे तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

संगठन के सभी शीर्ष नेताओं का मानना था कि मास्टर जी के प्रयासों से ही झाँसी में क्रांतिकारी संगठन विस्तार पा सका था। झाँसी में जब सचीन्द्र नाथ बक्शी क्रांति दल की स्थापना के लिए आये तो उसके पहले ही मास्टर जी अपनी व्यायाम शाला के द्वारा झाँसी में क्रांति दल नींव डाल चुके थे। मास्टर जी साहब के प्रयासों से ही झाँसी एक बार फिर क्रांति के नए दौर में प्रविष्ट होने को तैयार थी। झाँसी ने अभी हार नहीं मानी थी। झाँसी को अभी अपनी रानी सा का ऋण चुकाना था। 1857 में रानी सा को जो धोखा मिला था अभी उसका ऋण बाकी था।

झाँसी तैयार थी। मास्टर जी कमर कस चुके थे। झाँसी फिर उठ खड़ी ही हुई थी। कुछ दिन मास्टर जी के साथ रहने के बाद आज़ाद ने मुकरयाने में हाफिज नूर इलाही के घर के नज़दीक एक घर किराए पर ले लिया। काकोरी काण्ड के बाद वाली झाँसी यात्रा आज़ाद की झाँसी के लिए दूसरी यात्रा थी। पहली यात्रा में जब 1924 में मात्र अठारह बरस के आज़ाद सचीन्द्र नाथ बक्शी से मिलने आए तो वो हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक सेना के सेनापति ‘बलराज’ नहीं थे।

उस समय आज़ाद एक आम सदस्य ही थे जहाँ वे उन नए कार्यकर्ताओं से मिलने आए थे जिनको सचीन्द्र नाथ बक्शी झाँसी में रहकर आने वाले समय के लिए तैयार कर रहे थे। झाँसी के ही इस लघु प्रवास में उनकी मुलाकात सदाशिव राव मलकापुरकर जी, भगवान दास माहौर जी और विश्वनाथ गंगाधर वैशम्पायन जी से हुई थी। देश के लिए मर मिटने की भावना और स्वतंत्र भारत में सांस लेने की अभिलाषा ने, झाँसी के क्रांतिकारियों की गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले मास्टर रूद्र नारायण और आज़ाद को एक ही माँ के जाये जैसे पुत्र बना दिया था।

आज़ाद ने अपने अज्ञात वास के कई बरस मास्टर जी के घर पर उनके परिवार के साथ ही गुज़ारे थे। आज़ाद को गिरफ्तार कराने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की शक्ति हज़ारों रुपयों का इनाम घोषित कर चुकी थी। सरकार नदियों, गुफ़ाओं, जंगलों और कुओं में आज़ाद को ढूँढ रही थी और वहाँ, ऐसे संकट के समय आज़ाद मास्टर जी के यहाँ पतीले की खिचड़ी चाट रहे थे। काकोरी काण्ड के बाद आज़ाद जब इलाहाबाद से झाँसी आकर मास्टर जी के घर आए तब मास्टर जी को पता था कि आज़ाद को शरण देना अपनी शामत बुलाना है।

उनको यह भी अच्छे से पता था कि उनके पीछे पुलिस के गुप्तचर लगे हुए हैं और आज़ाद का उनके घर पर रहना खतरे से खाली नहीं है। बावजूद इसके उन्होंने आज़ाद को पनाह देने में कोई हीला-हवाली नहीं की। आज़ाद के आने से पहले ही मास्टर जी पुलिस की संदिग्धों की लिस्ट में थे। पुलिस द्वारा उनके दरवाज़े पर चौबीस घंटे का कड़ा पहरा दिया जाता था। पुलिस बराबर गुप्तचरी करवा रही थी किंतु मास्टर जी को ना पहले परवाह थी अपनी और ना अब होने वाली थी।

मास्टर जी जी की दिलेरी का यह हाल था कि वो खाली समय में अपने दरवाज़े पर नियुक्त पुलिस वाले से पंजा लड़ा कर अपना वक्त गुज़ारा करते थे। पुलिस वालों को भी मास्टर जी के बारे में पता था, किन्तु मास्टर जी के व्यवहार के आगे सब निरुत्तर हो जाते थे। किन्तु आज़ाद के झाँसी आने पर अब उनकी चिंता बढ़ गई थी और वो आज़ाद को बराबर संभल कर रहने की हिदायत देते रहते थे। कई बार पुलिस ने मास्टर जी के मकान की तलाशी ली लेकिन आज़ाद वहाँ उनको नहीं मिलते थे।

आज़ाद मास्टर जी के यहाँ इतने खुल्लम-खुल्ला आते-जाते थे की पुलिस को रत्ती भर का शक नहीं होता था कि यह उनके सामने बैठा पहलवान सा शख्स जो उनके साथ हँसी ठिठोली कर रहा है, वही आज़ाद है। मास्टर जी के घर पर ना होने पर अगर आज़ाद कभी आते तो पुलिस वालों को देख कर खुद ही पंजा लड़ाने का न्योता दे देते थे। शायद ‘चिराग तले अँधेरा’ वाली कहावत आज़ाद की इसी कारगुजारी के लिए बनाई गई थी।

मज़ेदार एक बात और भी थी कि मास्टर जी के घर और कोतवाली का रास्ता मुश्किल से आधा किलोमीटर भी नहीं था। पुलिस वालों से से शातिर आज़ाद की कारगुजारी की बातें सुनकर आज़ाद खुद हँस-हँस कर लोटपोट हो जाते थे। ‘बगल में छोरा और नगर में ढिंढोरा’ पीटने का काम झाँसी की पुलिस बखूबी निभा रही थी। बाद में आज़ाद अपने दोस्तों को बताते हुए बड़े खिलखिला कर कहते “साले ब्रिटिश मुझे एक जादूगर समझते हैं और मेरा हौव्वा बना कर रखा हुआ है। लगता है दिमाग नाम की चीज़ ही नहीं होती है इन में।”

(भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएँ आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई हैं।)

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MANISH SHRIVASTAVA
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