28 अप्रैल 2006 की एक घटना है। एक फिल्म रिलीज होती है उस दिन। हर हफ्ते होते रहती है फिल्म रिलीज… लेकिन 28 अप्रैल 2006 का जिक्र इसलिए क्योंकि वो स्पेशल है। यूनाइटेड 93 (United 93) नाम की हॉलीवुड फिल्म आई थी उस दिन। जिस घटना पर यह फिल्म बनी थी, उसके 1721 दिन बाद। मतलब 5 साल से कम समय में घटना को सिनमाई पर्दे पर उतार दिया गया था।
United 93 के पहले भी कुछ फिल्में इस मुद्दे पर बनाई जा चुकी थीं। इस फिल्म का जिक्र इसलिए क्योंकि इसमें कहानी जो बुनी गई, वो सिनेमाई लकीर पर घटना को जोड़ती है। यही कारण है कि रॉटेन टोमैटोज, IMDb आदि पर इसकी रेटिंग शानदार है।
घटना इतनी बड़ी थी कि हॉलीवुड तो छोड़िए, बॉलीवुड वाले भी इसको लेकर ‘सलिमा’ बनाने लगे थे। ये घटना थी 11 सितंबर 2001 की। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर इस्लामी आतंकी हमले की। घटना ऐसी कि ‘सलिमा’ बनाने वाले लोगों को इसमें भी My Name Is Khan टाइप कहानी और मसाला दिखने लगा था।
क्या अपने देश की इससे भी बड़ी घटना पर ‘सलिमा’ बनाने वालों की नींद टूटी? क्या उनके अंदर का कहानीकार उस घटना को बड़े पर्दे पर उतार कर जनता के सामने सच दिखा पाया? 9/11 से बड़ी घटना अपने देश में क्या सच में हुई है? उत्तर है – हाँ। और इस उत्तर के पीछे जो तर्क छिपा है, उसी के डर से डरता है ‘सलिमा’ बनाने वाला कौम।
27 फरवरी 2002 को 59 जिंदा इंसान आग में जला कर मार डाले गए थे। और यह घटना 9/11 से कहीं ज्यादा बड़ी और भयावह थी। मरने वालों की संख्या का तर्क इसके पीछे नहीं है। तर्क है घटना को अंजाम देने वालों की पहचान का। 9/11 को जिन लोगों ने अंजाम दिया, वो सब के सब ऐसे ही मजहबी मानसिकता और ट्रेनिंग लिए थे। लेकिन जिन लोगों ने साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन को जलाया, वो सब्जी बेचने वाले से लेकर दर्जी या पेंटर से लेकर मौलवी-मौलाना और भीड़ में चलता कोई पड़ोसी हो सकता है, ऐसे लोग जिन पर हम भरोसा करते हैं।
कोई किसी को जिंदा जला कर कैसे मार सकता है? एक साथ 59 जिंदा लोगों को कैसे जलाया जा सकता है? ऐसे सवालों का जवाब है – नफरत मन में या दिल में नहीं बल्कि रूह तक उतर आए, तभी यह करने की कोई सोच भी सकता है। ‘काफिर’ की हत्या, दोजख में जलने आदि वाली नफरत पर मुहर तो कट्टर इस्लामी सोच का हिस्सा है ही, लिखित है। लेकिन गंगा-जमुनी तहजीब ‘सलिमा’ वाली कौम इस नफरत को कैसे दिखाए, इसी का नतीजा है The साबरमती Report का 8297 दिन बाद रिलीज होना। मतलब 22 साल से ज्यादा का इंतजार।
6 पैराग्राफ और 400 से ज्यादा शब्द के बाद भी The साबरमती Report की पटकथा, संगीत, अभिनय, सिनेमैटोग्राफी आदि पर नहीं लिख पाया हूँ, इसके लिए माफ कीजिए। लेकिन मैं भटका नहीं हूँ। दरअसल मुझे इस फिल्म का रिव्यू लिखना था भी नहीं। जरूरत ही नहीं। मेनस्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। मैं समाज में इस फिल्म के होने की जरूरत पर लिख रहा हूँ। इतनी बड़ी हृदय विदारक और लोमहर्षक घटना, जिसे भारतीय इतिहास से कभी भुलाया नहीं जा सकता, उस पर 22 साल क्यों लग गए किसी को फिल्म बनाने में, मुझे इसमें दिलचस्पी है।
क्यों देखनी चाहिए The साबरमती Report
- गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन नहीं जलाई गई थी बल्कि अयोध्या से जिस ट्रेन में कारसेवक आ रहे थे, उस साबरमती एक्सप्रेस को जलाई गई थी, इस अंतर को समझना है – तो देखिए यह फिल्म।
- गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को जलाए जाने के कारण मारे गए 59 लोगों में से कुछ का नाम जानना चाहते हैं – तो देखिए यह फिल्म।
- ऐसी घटना जिसने भारतीय इतिहास को दो हिस्सों (भारत गोधरा से पहले, भारत गोधरा के बाद) में बाँट दिया, यह जानने को इच्छुक हैं – तो देखिए यह फिल्म।
- ट्रेन में आग अपने आप नहीं लगी थी, टेक्निकल फॉल्ट के कारण नहीं लगी थी… बल्कि कट्टरपंथी मुस्लिमों ने प्लानिंग करके लगाई थी, यह सच बड़े पर्दे पर देखना है – तो देखिए यह फिल्म।
- मीडिया हर एक सच जस का तस दिखा देता है, इस भ्रम में जीते हैं – तो देखिए यह फिल्म।
- गंगा-जमुनी ‘सलिमा’ वाला कौम 22 साल बाद ही सही, जाग कर गोधरा के सच को लिख कर फिल्मा भी रहा, इस चेंज को देखना है – तो देखिए यह फिल्म।
- कट्टर इस्लामी मानसिकता के कारण जिंदा जला कर मार डाले गए 59 लोगों में से 41 का नाम ही अभी तक सार्वजनिक हुआ है। बाकी 18 अज्ञात लोग कौन थे? इस पर मीडिया की खोजी पत्रकारिता और बॉलीवुड ‘सलिमा’ वाले कब रिसर्च करके लाएँगे फिल्म या डॉक्यूमेंट्री? यह सवाल सिर्फ सवाल न होकर देश का नैरेटिव बने, यह है आपकी मंशा, चाहते हैं यह कि वो 18 लोग सिर्फ अज्ञात बन कर न भूला दिए जाएँ? – तो देखिए यह फिल्म।
क्यों नहीं देखें The साबरमती Report
- ट्रेन कैसे जल रहा, यह विजुअल देखना चाहते हैं – तो मत देखिए यह फिल्म। क्योंकि फिल्म की मूल कहानी साबरमती एक्सप्रेस को जलाए जाने की घटना को लेकर नहीं है। फिल्म गढ़ी गई है गोधरा में ट्रेन को जलाने के बाद कैसे इस अमानवीय घटना को इतिहास से मिटाने की कोशिश की गई, इस पर। पूरी फिल्म मीडिया के इसी झूठ परोसने वाले बिजनेस पर केंद्रित है।
- अगर देखना चाहते हैं कि जिंदा जलने वाले लोग कैसे चिल्ला रहे हैं – तो मत देखिए यह फिल्म। वो इसलिए क्योंकि पीड़ित परिवारों को और ज्यादा प्रताड़ित करने की मंशा नहीं रही होगी कहानीकार और निर्देशक की। इसलिए आग या आग में जलते लोग इस फिल्म का हिस्सा भर हैं। हाँ यह जरूर दिखाया गया है कि ट्रेन की दो बोगियों को प्लानिंग करके जला दिया कट्टर मुस्लिम भीड़ ने। इसके बाद कैसे मीडिया ने इस खबर को लगभग मार दिया, पूरी कहानी ही इसी के इर्द-गिर्द घूमती है।
- सिनेमा में दिखाई गई ‘2 कहानी’ और कहानी के पीछे का झूठ और उसके बाद निकल कर आई हकीकत के अंतर को समझ नहीं पाते हैं – तो मत देखिए यह फिल्म। यह बहुत जरूरी हिस्सा है, जिसे सिनेमा हॉल में बैठे कई दर्शक समझने में गलती करते दिखे, टिका-टिप्पणी भी की। निर्देशक ने इसी कारण से कहानी-1 और कहानी-2 लिख करके फिल्म में स्पष्ट दिखाया है और उसके बाद क्लियर भी किया है कि इन दोनों कहानियों को जानबूझ कर प्लांट किया गया था ताकि गोधरा का सच कभी सामने आ ही न पाए। कहानी-1 में मुस्लिम लड़की का कारसेवकों द्वारा अपहरण और कहानी-2 में हिंदू लड़के द्वारा कारसेवकों के ही खिलाफ गवाही देने का प्लॉट इतना मजबूत पक्ष है कि इन्हीं दो कहानियों के दम पर ‘ट्रेन में अपने आप लग गई थी आग’ वाला नैरेटिव तब का न सिर्फ मीडिया गढ़ा, बल्कि शुरुआती जाँच रिपोर्टों में भी इसे ही सच मान लिया गया था। फिल्म में इन दोनों कहानियों के झूठ का पर्दाफाश करके निर्देशक ने यह साबित कर दिया कि कहानी ही सच हो, यह जरूरी नहीं।
- मीडिया रिपोर्ट में क्या कहा गया और फिल्म के अंत में सच कैसे बाहर आया, इसे नहीं समझ पा रहे हैं – तो मत देखिए यह फिल्म। कहानीकार और निर्देशक ने देश के चौथे स्तंभ मतलब मीडिया पर आँख मूँद कर भरोसा करने के मिथक को तोड़ा है। यही कारण है कि शुरुआती फिल्म में जहाँ-जहाँ ‘एक्सीडेंट के कारण ट्रेन में आग लग गई’ जैसा सीन है, उसकी स्क्रिप्ट में ध्यान से सुनेंगे तो पाएँगे कि यह मीडिया रिपोर्ट है। ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि यही सच है। मीडिया = सच, इस भ्रम को तोड़ने में निर्देशक के साथ-साथ कहानीकार को 10 में से 10 अंक मिलने चाहिए।
- पाकिस्तानी टीम के छक्का मारने पर मुस्लिम कॉलनी में बजती तालियाँ और फूटते पटाखों के बीच मुसलमानी टोपी पहने छोटे-छोटे बच्चों का इंडिया की जीत पर जश्न मनाते सीन के बीच का अंतर नहीं समझ पाते – तो मत देखिए यह फिल्म। दृश्य माध्यम में कुछ चीजें प्रत्यक्ष कही जाती हैं, कुछ अप्रत्यक्ष। दर्शक होने के नाते इस अंतर को समझना होगा। कहानीकार प्रत्यक्ष तौर पर हीरो से बुलवा रहा है कि मुस्लिम कॉलनियों में पाकिस्तान क्रिकेट टीम के अच्छे खेलने पर पटाखे फुटना आम बात है। जबकि निर्देशक वहीं एक समानांतर दुनिया दिखा रहा है कि इसी कॉलनी के अबोध बच्चे जिन्हें पाकिस्तान या कट्टर मजहबी घुट्टी नहीं पिलाई गई है, वो इंडिया की जीत को अपनी जीत समझ कर एंजॉय कर रहा है। कट्टर मुस्लिम व्यस्क या किशोर का रवैया बनाम मुस्लिम बच्चे के रवैये को पर्दे पर कैसे दिखाया जाए, इस अंतर को समझना होगा।
- ईमानदार लोग दोनों तरफ होते हैं, इस लाइन के तर्क को नहीं समझ पाते – तो मत देखिए यह फिल्म। इस सीन में कोई समस्या नहीं है फिर भी कई दर्शकों का यह कहना कि फिल्म बनाने वालों ने बैलेंस के लिए ऐसा किया, यह सच नहीं है। इसको ऐसे समझ सकते हैं – अगर दूसरी तरफ के कुछ लोग ईमानदार नहीं होते तो घरवापसी कौन कर रहा है? दूसरी तरफ के ईमानदार लोगों के लिए रास्ते बंद कर देंगे तो उनके हिस्से का भोगा हुआ सच कैसे बाहर आएगा?
- हिंदी पत्रकार के इर्द-गिर्द बुनी गई है यह फिल्म लेकिन लिखी गई शुद्ध हिंदी से प्यार है – तो मत देखिए यह फिल्म। जी हाँ, हिंदी फिल्म है तो बोली गई हिंदी तो सही ही है लेकिन जहाँ हिंदी में लिखा गया है, वो हिस्सा सच में निराश करने लायक है।
जिन-जिन सीन पर विवाद, वहाँ क्या कहना चाहता है निर्देशक
‘ईमानदार लोग दोनों तरफ होते हैं’ – इस सीन पर आहत हैं तो एपीजे अब्दुल कलाम को लेकर आपके क्या विचार हैं? क्या उनको भी खारिज कर देंगे। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान अभी तो खैर बीजेपी में हैं लेकिन उन्होंने तो शाह बानो मामले पर अपनी ही कॉन्ग्रेस पार्टी के राजीव गाँधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, तो क्या उनको भी खारिज कर देंगे? कहानीकार और निर्देशक बस यह कहना चाह रहे कि समाज के किसी भी तबके में अगर कोई अच्छा है तो उसे उसी नजरिए से देखा जाए। क्या इतना कहने-दिखाने की भी आजादी नहीं हो उसे?
‘मुसलमानी टोपी पहने छोटे-छोटे बच्चों का इंडिया की जीत पर जश्न’ – ध्यान रखिए कि इस सीन में जो बच्चे दिखाए गए हैं, वो किशोरावस्था में नहीं पहुँचे हैं। निर्देशक यह दिखाना चाहता है कि मजहबी कट्टरपन का जहर अभी उनके दिमाग में नहीं भरा है, अबोध हैं, भारत की जीत पर खुशियाँ मना रहे हैं। क्योंकि इसी निर्देशक ने उसी मुस्लिम कॉलनी के उन्हीं बच्चों के व्यस्क परिवार वालों को पाकिस्तानी छक्के पर तालियाँ बजाते और पटाखे छोड़ते भी दिखाया है। दृश्य माध्यम में एकदम विपरीत संदर्भों को समानांतर प्रस्तुत करके दर्शकों को सोचने पर मजबूर करने की विधा खत्म कर देना चाहते हैं क्या?
‘मीडिया रिपोर्ट और 2 झूठी कहानियाँ’ – मीडिया ने साबरमती एक्सप्रेस के जलाए जाने के बाद झूठ ही गढ़ा है, यही तो कहना चाह रहा है निर्देशक। जिस मीडिया पर आप भरोसा करते हैं, उसके दिखाए विजुअल को ही सच मान लेते हैं, उसी का तो पर्दाफाश किया गया है। साबरमती एक्सप्रेस को किसने जलाया से ज्यादा इस फिल्म का फोकस है – किसने छिपाया, किसने षड्यंत्र रचा। मीडिया इसमें विलेन है – कहानी के इस लाइन से भला क्या और कैसी दिक्कत?
कहाँ किया जा सकता था सुधार
शुरुआती डिस्क्लेमर से लेकर अंतिम के साभार वाले सीन में उल्टी-पुल्टी-टूटी-फूटी लिखी हिंदी पर ध्यान नहीं दिया गया। यह अक्षम्य तब है, जबकि पूरी फिल्म में हीरो बार-बार अपने आप को हिंदी मीडियम वाला कह रहा होता है, उसे हिंदी पत्रकार होने पर गर्व भी होता है। निर्माता-निर्देशक को बिना पैसे खर्च किए उसी से प्रूफरीड भी करवा लेना चाहिए था, अगर सच में उसे रील वाली हिंदी रियल लाइफ में भी आती है तो!