“अगर किसी व्यक्ति की तनख्वाह बात को ना समझने पर निर्भर हो तो उसे वही बात समझा पाना कठिन होगा!” ऐसा मैं नहीं कहता, ये किसी सिनक्लैर साहब ने कहा था। अब सोचिए कि जिस न्यूज़ एंकर (पत्रकार या संवाददाता नहीं) की पूरी टीआरपी अगर किसी समुदाय पर धौंस जमाने, किसी “ब्राह्मणवाद” को कोसने, और किसी ख़ास आयातित विचारधारा को प्रचारित करने पर टिकी हो, तो समझना छोड़िए, वो भला सुने भी क्यों? बता दें कि यहाँ पर सवाल संस्कृत की शिक्षा का है ही नहीं, बल्कि सवाल धर्म विज्ञान पढ़ाने का है, मगर इससे उसे क्या लेना देना? उसे तो बस अपना खुद का एक कथानक गढ़ना है, जिसमें वैसे भी प्रथम दृष्टया ही कई छेद नजर आ जाते हैं।
बात अगर सिर्फ छात्रों के विरोध पर किसी शिक्षण संस्थान से जुड़े व्यक्ति को हटाने या ना हटाने की हो, तो हाल में ही जेएनयू की दीवारों और दफ्तरों के दरवाजे इत्यादि पर लिखा “वीसी गो बैक” (कई असंसदीय शब्दों के साथ) याद आ जाता है। कुछ वर्षों से टीवी पर विवादों को देखा-सुना हो तो संभवतः हाल का ही एफटीआईआई विवाद भी याद आ जाएगा। जून 2015 में जब गजेन्द्र चौहान की वहाँ चेयरमैन के तौर पर नियुक्ति हुई, तो वाम मजहब के युवा मोर्चे एआईएसए के (तथाकथित) छात्रों ने लंबा विरोध किया। कई फ़िल्मी अभिनेता और नेता भी उस वक्त समर्थन और विरोध में उतरे थे। आखिर गजेन्द्र चौहान को बदला गया था। क्या ये पूछा जाए कि अगर गजेन्द्र चौहान के मामले में ये तय किया जा सकता है, तो आखिर बीएचयू में छात्रों को ये अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए?
अगर मामला सिर्फ विचारधारा के आधार पर किसी के समर्थन और किसी के विरोध का है, और जेएनयू एवं एफटीआईआई जैसे संस्थानों के वाम मजहब के छात्र “शिक्षा का भगवाकरण” कहकर किसी नियुक्ति का विरोध कर सकते हैं, तो वही अधिकार आखिर बीएचयू के छात्रों को क्यों नहीं मिलना चाहिए? समस्या की जड़ में यही दोमुँहापन है। ये मान लिया जाता है कि एक ख़ास आयातित विचारधारा का विरोध तो अधिकार है, मगर कोई और विरोध करे तो उसे “गुंडागर्दी” कहकर सिरे से ख़ारिज किया जा सकता है। ये वो जहरीली विचारधारा है जिसने दशकों की मेहनत से विश्वविद्यालयों और पत्रकारिता के संस्थानों पर कब्जा जमाया है।
ये रणनीति कभी दशकों पहले पूर्णचंद जोशी (पीसी जोशी) ने बनाई थी। किसी दौर में वो कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया थे। बाद के दौर में स्थितियाँ बदली। जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो युद्ध का विरोध करने के कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। बाद में जब स्टालिन और हिटलर दोस्त नहीं रहे, यानी जर्मनी ने सोवियत रूस पर हमला कर दिया तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को आदेश आया कि ये युद्ध तो फासीवाद के खिलाफ है! फिर क्या था भारतीय कम्युनिस्ट भी “हम लड़ेंगे साथी” कहते हुए कूद पड़े! इस दौर में भी पीसी जोशी ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया थे और उस समय भी ये कॉन्ग्रेस के समर्थक और नेहरु के करीबी थे।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1942 के भारतीय स्वतंत्रता के प्रयासों से तो दूरी बनाई, मगर अब तक पीसी जोशी को समझ में आने लगा था कि आगे के लिए अपने पास समर्थक बनाए रखने और नए समर्थक जुटाने के लिए प्रचार तंत्र यानी अख़बारों, और नई फसल यानी विश्वविद्यालयों पर कब्जा ज़माना जरूरी है। कम्युनिस्ट पार्टी के 1938 में “नेशनल फ्रंट” शुरू करने पर वो इसके एडिटर भी थे और आजादी के बाद उन्हें पार्टी के साप्ताहिक “न्यू ऐज” का संपादक भी बनाया गया था। खुद पत्रिकाओं और अख़बारों से जुड़े होने के अलावा कम्युनिस्टों के नाजियों से शुरुआती रिश्तों की वजह से भी उन्हें प्रचार के तरीकों पर कब्जा जमाने के फायदों की अच्छी समझ थी।
बाद में जब मोस्को के आदेशों की वजह से भारतीय कम्युनिस्टों ने हथियार उठाकर भारत के खिलाफ बगावत का फैसला किया तो पीसी जोशी से मुखिया का पद छिन गया। पार्टी प्रमुख के पद से 1948 में हटाए जाने के बाद उन्हें जनवरी 1949 में पार्टी से भी निष्कासित कर दिया गया। कम्युनिस्टों के लिए ये उनके बड़े नारों में से एक “ये आजादी झूठी है” का दौर रहा। बाद में पीसी जोशी को वापस पार्टी में लिया तो गया मगर वो फिर नेतृत्व के पदों पर कभी नहीं आए। उन्हें “न्यू ऐज” के संपादक का काम दिया गया था। अपने दौर में ही पीसी जोशी प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एआईएसए) जैसे संगठन बना चुके थे।
उनका दौर बीतने पर भी कभी इनका काम रुका नहीं। ये एक स्थापित तथ्य है कि ग्राम्सकी की हेगेमोनी के सिद्धांतों का पीसी जोशी ने बखूबी इस्तेमाल किया था। उनके शुरू किए काम को आयातित विचारधारा को मानने वालों ने सात दशकों से जारी रखा है। इसका नतीजा ये है जो हम आज अपने सामने देखते हैं। सीधे तौर पर बौद्धिक कहे जा सकने वाले (लेखन आदि) या उससे जुड़े व्यवसायों में ये पैठ ऊँचे स्तर पर काफी ज्यादा है। ऊँचे पद ऐसे लोगों के हाथ में होने के कारण निचले पदों पर काम करने वाला अगर जानता भी हो कि उसे जो करने कहा जा रहा वो नैतिक रूप से गलत है, तब भी कई बार उसे चुप्पी साधनी पड़ती है।
इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि संपादक के आदेश पर पत्रकार को लेख बदलना पड़ता है। ये हमें वापस अपने शुरुआती वाक्य “अगर किसी व्यक्ति की तनख्वाह बात को ना समझने पर निर्भर हो तो उसे वही बात समझा पाना कठिन होगा!” पर ले आता है। युद्ध में किसी सेना का एक जगह से किसी दूसरी जगह जाना देखें तो भी संवाद और संचार का महत्व समझ में आ जाएगा। सबसे पहले कम्युनिकेशन यानी संचार का विभाग जाकर काम करना शुरू करता है, बाकी की सेना, तोपों से लेकर रसद और दूसरे विभाग, धीरे-धीरे आते रहते हैं।
बाकी हमारे संचार के माध्यमों पर नाजियों के पोलैंड पर हमले वाले, पुराने (1930 के दशक वाले) दौर के दोस्तों यानी कॉमरेडों के अवैध कब्जे का नुकसान कैसे हुआ है, इस पर भी सोचिएगा। फ़िलहाल सोचने पर जीएसटी नहीं लगता!