26 अक्टूबर 1947- इतिहास के पन्नों की वह तारीख जिसने आजाद भारत के मानचित्र में धड़ जोड़कर उसे सम्पूर्ण बनाया। इसी दिन जम्मू कश्मीर के आखिरी शासक महाराजा हरि सिंह ने अपनी रियासत को भारत के साथ मिलाने का फैसला किया था। इसी दिन इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन (Instrument of accession) पर अपने हस्ताक्षर किए थे। इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसेशन एक ऐसा दस्तावेज था जिसे भारत सरकार ने 1947 में रियासतों के अधिमिलन पत्र के रूप में तैयार किया था।
वैसे तो उस दौरान भारत में करीब 565 रियासते थीं मगर, विभाजन के बाद जम्मू कश्मीर का भारत में अधिमिलन इसलिए भी यादगार है क्योंकि बहुसंख्यक आबादी और भौगोलिक परिस्थितियों के प्रतिकूल होने के बावजूद महाराजा ने हिंदुस्तान के साथ आने का फैसला किया था।
इससे पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के आजाद होने से पूर्व 3 जुलाई 1947 को ही कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामचंद्र कॉक और महाराजा को अलग-अलग पत्र लिख चुके थे। इन पत्रों में सरदार पटेल ने यह स्पष्ट किया था कि जम्मू कश्मीर का फायदा बिना कोई देरी किए भारत से जुड़ने में ही है। हालाँकि, महाराजा हरि सिंह तब भी सोच विचार में थे। उधर, मोहम्मद अली जिन्ना ये मानकर बैठ चुके थे कि पाकिस्तान के लिए जम्मू कश्मीर को हथियाना कोई मुश्किल काम नहीं है क्योंकि एक तो उस रियासत में आबादी मुस्लिम बहुसंख्यको की थी और दूसरा इसके कई क्षेत्र पाकिस्तान के प्रांतो से जुड़ रहे थे।
ऐसी स्थिति में एक ओर जहाँ विभाजन का ऐलान 1947 के जून महीने में हो चुका था और देश आजाद शब्द के मायने समझने को तैयार था, महाराजा हरि सिंह इस उधेड़बुन में थे कि आखिर क्या किया जाए। तभी, कुछ दिनों बाद लॉर्ड माउंटबेटन ने महाराजा से मुलाकात कर उनको सलाह दी कि उन्हें भारत या पाकिस्तान में से किसी के साथ जुड़ जाना चाहिए।
कहा जाता है कि लॉर्ड माउंटबेटन ने जब महाराजा के सामने अपना सुझाव रखा, तब उनका झुकाव पाकिस्तान की ओर ज्यादा था। उन्होंने यह भी कहा था कि अगर जम्मू कश्मीर पाकिस्तान में शामिल होता है तो भारत इसमें कोई भी परेशानी उत्पन्न नहीं करेगा। लेकिन, महाराजा हरि सिंह को यहाँ पाकिस्तान के साथ जुड़ने में दो समस्याएँ थीं।
पहली- यदि वह पाकिस्तान के साथ विलय करते तो यह स्पष्ट रूप से साम्प्रदायिक राष्ट्र के का हिस्सा होना था और दूसरा, मुस्लिम बहुल राष्ट्र के साथ जुड़ते हुए उन्हें अपने रियासत के अल्पसंख्यकों की चिंता थी। इनमें लद्दाख के बौद्ध, जम्मू के कश्मीरी पंडित और कश्मीर घाटी के हिंदू शामिल थे।
100 साल से ज्यादा पुराना था जम्मू कश्मीर में डोगरा वंश का इतिहास
महाराजा हरि सिंह मुस्लिम बहुल आबादी के बीच शासन गद्दी संभालने वाले हिंदू राजा थे। आमतौर पर ऐसी स्थिति बहुत कम देखने को मिलती थी कि मुस्लिम बहुल आबादी वाले इलाकों में किसी हिंदू राजा को राज करने का मौका मिला हो, मगर हरि सिंह जिस डोगरा वंश से आते थे उसका इतिहास जम्मू में 100 साल से भी अधिक पुराना था।
1822 में महाराजा गुलाब सिंह के गद्दी संभालने से लेकर यहाँ चार डोगरा वंश के राजाओं ने राज किया। इनमें पहले महाराजा गुलाब सिंह थे और आखिरी महाराजा हरि सिंह थे।
जम्मू में डोगरा समुदाय का संक्षेप विवरण यही है कि इसकी नींव के पीछे महाराजा रणजीत सिंह का हाथ था। महाराजा रणजीत ने 1819 में कश्मीर में सिख राज की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने पंजाब को भी जम्मू में मिलाया व इसकी जिम्मेदारी सौंपी अपने ही सेना के एक सैनिक गुलाब सिंह को।
1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद व सिख समुदाय को बिखरता देख, गुलाब सिंह ने कश्मीर को स्वतंत्र घोषित किया। फिर 1822 से 1856 उन्होंने वहाँ राज किया। इसके बाद रणबीर सिंह ने 1856 से 1885 तक। महाराजा प्रताप सिंह ने 1885 से 1925 तक और आखिर में महाराजा हरि सिंह ने 1925 से 1947 तक।
भारत विभाजन की बातें शुरू हुई तो रियासतों के विलय की बात का महाराजा हरि सिंह को भी मालूम पड़ा। मगर अपनी रियासत को लेकर आखिरी फैसला उन्होंने तब तक नहीं लिया जब तक उन्हें नेहरू व कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला की मंशा का पता नहीं चला और पाकिस्तान के आतंकी चेहरे से उनके साक्षात्कार नहीं हुए।
जैसे ही प्रदेश में कबाइलियों का हमला हुआ और महाराजा को एहसास हुआ कि उनकी सेना उन्हें रोकने में असमर्थ हैं, उन्होंने भारत के साथ होने का फैसला ले लिया। इस बीच पाकिस्तान लगातार उन्हें तरह तरह के प्रलोभन दे रहा था लेकिन अपने मनसूबों में असफल होता देख 22 अक्टूबर उसने आतंक का आगाज किया जिससे महाराजा सकपका गए। उन्होंने पाया कि हथियारों से लैस सैंकड़ों कबाइली उनकी सीमा की ओर बढ़े आ रहे थे और जमकर जमकर कत्लेआम कर रहे थे
नतीजतन, कुछ समय पहले तक कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला और नेहरू के बीच का स्नेह देखकर भारत के साथ अपनी रियासत के अधिमिलन के लिए हिचकिचाने वाले हरि सिंह फौरन इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो गए।
Witnessing the atrocities, Maharaja Hari Singh appealed to the #Indian Government for help and signed the Instrument of Accession. On that day #JammuKashmir formally became an integral part of #India. (10/n)#PakAtrocities#JammuKashmir1947#ThisDayThatYear pic.twitter.com/TZoIq9INNN
— ADG PI – INDIAN ARMY (@adgpi) October 26, 2020
क्या थी जवाहरलाल नेहरू से महाराजा हरि सिंह की नाराजगी?
शुरुआत में महाराजा हरि सिंह को जवाहरलाल नेहरू का नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता शेख अब्दुल्ला के साथ मैत्रीपूर्ण बर्ताव बिलकुल नहीं पसंद था। दरअसल शेख अब्दुल्ला वही शख्स था जिसने महाराजा के ख़िलाफ़ ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो’ नाम से आंदोलन छेड़ा था। जब इसी तरह के कारनामों के लिए शेख को गिरफ्तार किया गया व उन्हें 3 साल की सजा हुई, तब भी जवाहरलाल नेहरू उनके प्रति अपनी सहानुभूति दिखाते रहे और राज्य सरकार द्वारा उनका प्रवेश निषेध कर दिए जाने पर भी अब्दुल्ला को प्रोत्साहित करने वहाँ गए, जिस कारण उनकी गिरफ्तारी भी हुई। नेहरू के इस कदम से कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी समेत सरदार वल्लभ भाई सब नाराज थे।
गौरतलब है कि आजाद भारत में रियासतों के विलय का जिम्मा सरदार वल्लभभाई पटेल को सौंपा गया था। उन्होंने हैदराबाद, जूनागढ़ जैसी पेचीदा रियासतों को भी बड़ी सरलता से भारत में विलय करवाया था और सबका यही मानना था कि अगर जम्मू कश्मीर का मसला उनके हाथों होता तो वह उसका भी समाधान कर लेते। लेकिन, नहीं! पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पूरा मसला अपने हाथ ले लिया।
शेख अब्दुल्ला से उनका स्नेह साफ बता रहा था कि वह राज्य को उसे सौंपने की मंशा बनाए बैठे हैं। इसी साजिश का पता जब महाराजा हरि सिंह को चल गया तो इसके बाद वह न महात्मा गाँधी के कहने पर माने और न वल्लभ भाई पटले के।
हैरानी की बात थी जिन वल्लभ भाई पटेल ने हैदराबाद में निजाम का शासन होने के बाद भी उसको भारत में शामिल करवा लिया था वही वल्लभ भाई पटेल एक हिंदू शासक को नहीं समझा पा रहे थे।
अंतत: महाराजा हरिसिंह को आश्वस्त करने का काम किया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने, जिनको श्री गुरुजी भी कहा जाता था। तत्कालीन गृहमंत्री के सन्देश पर उन्होंने अविलंब महाराज को मनाने के लिए उनके साथ बैठक की। यह बैठक हुई प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन और पंडित प्रेमनाथ डोगरा की मध्यस्ता में।
26 अक्टूबर 1947 को अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर किए गए। यह अधिमिलन पत्र बिलकुल वैसा ही पत्र था जैसे पत्र पर बाकी रियासतों ने हस्ताक्षर किए थे और भारत के साथ आने की सहमति दी थी। इसके बाद 27 अक्टूबर को भारत के गवर्नर जनरल ने इसे स्वीकार किया और भारत के मानचित्र पर मुकुट की तरह हमेशा के लिए विराज गया जम्मू-कश्मीर।
महाराजा हरि सिंह के अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर के साथ माँग थी कि उन्हें सैन्य मदद दी जाए इसलिए राज्य में विमान और सैनिक बिना किसी देरी के भिजवाए गए। सरदार वल्लभभाई की प्रतिबद्धता ने लगातार भारतीय सेना में उत्साह भरे रखा।
कुछ समय बाद स्वयंसेवकों की सहायता से और अपने अदम्य साहस से भारतीय सेना की जीत हुई और उन्होंने पाकिस्तानियों को मार भगाया। मगर हाँ, इस बीच कुछ हिस्सों पर पाकिस्तान ने अपने पैर कश्मीर राजधानी मुजफ्फराबाद में जमा लिए थे जिसको आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहा जाता है। PoK को पाकिस्तान ने दो हिस्से में बाँटा है एक को वह आजाद कश्मीर कहता है और दूसरा गिलगित बाल्टिस्तान है।
इसके बाद कश्मीर में विवादित अनुच्छेध 370 लाया गया और उनके पास अपना अलग झंडा व संविधान रखने का अधिकार हो गया। हमने ऊपर आपको बताया कि महाराजा हरि सिंह ने जिस अधिमिलन पत्र पर अपने हस्ताक्षर किए थे वह बिलकुल वैसा ही था जैसे अन्य रियासतों का विलय पत्र था। मगर, जम्मू कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा देने का काम कॉन्ग्रेस ने 1950 में किया और भारत के अधिकार वहाँ बेहद सीमित कर दिए।
भारत के साथ जुड़ने के बाद भी कश्मीर में 90 का दशक
महाराजा हरि सिंह का भारत के साथ आने का फैसलो में सबसे बड़ी चिंता वहाँ की अल्पसंख्यक जनता की सुरक्षा थी। उन्हें डर था कि यदि वह एक ऐसे राज्य से जुड़े जिसकी नींव मजहब आधारित है तो अल्पसंख्यकों का क्या होगा। हालाँकि, तब उनके इस डर ने उन्हें भारत के साथ लाकर जोड़ दिया लेकिन यदि वह यहाँ नहीं शामिल होते तो अल्पसंख्यकों के साथ क्या हो सकता था इसका उत्तर मिला 90 के दशक में।
1989- वही साल जब कश्मीरी पंडितों के नरसंहार का काला पन्ना इतिहास के साथ जोड़ दिया गया और जिसकी टीस आज भी हर कश्मीरी पंडित के दिल में है। 90 के दशक में पाकिस्तानी ताकतों के बढ़ते प्रभाव ने कश्मीर में आतंक का बोल बाला कर दिया था।
अलगाववादी खुलेआम धमकियाँ दे रहे थीे। मस्जिदों से पंडितों के सफाए के नारे लगने लगे थे। आवाजें सुनाई पड़ने लगी थीं कि कश्मीर में हिंदू औरतें चाहिए लेकिन बिना किसी हिंदू मर्द के। घाटी में कट्टरपंथ ने इतनी तबाही मचाई कि कुछ को इस्लामी आतंकियों ने अपना शिकार बना लिया और कुछ लोग उनकी बर्बरता से बचने के लिए खुद ही अपनों के हाथों मारे गए।
साल 1996 में शेख अब्दुल्ला का बेटा व नेशनल कॉन्प्रेंस का नया चेहरा फारूख अब्दुल्ला सत्ता में आया। इसके बाद साल 2002 में पीडीपी के साथ वहाँ कॉन्ग्रेस पहुँची। फिर पीडीपी के साथ भाजपा का भी गठबंधन हुआ, लेकिन वह ज्यादा समय नहीं चला और राज्य में राज्यपाल शासन लागू करना पड़ा।
नरेंद्र मोदी सरकार ने क्या किए बदलाव
पिछले साल 5 अगस्त 2019 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने राज्य से अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए को निरस्त किया तो कई विरोधी तिलमिला गए। मगर कश्मीरी पंडितों के लिए मोदी सरकार के फैसले ने एक मरहम की तरह काम किया जिस पर लंबे समय से पूर्ववर्ती सरकार नमक छिड़कने का काम करती थी
ये सच जरूर है कि जिन्होंने उस कट्टरपंथ की आग में अपनों को जलते-कटते-मरते देखा उनके दर्द सिर्फ़ मोदी सरकार के प्रयासों से नहीं भर जाएँगे। इसलिए सोचिए! क्या अनुच्छेद 370 हटने के बाद भी कश्मीरी पंडित भूल जाएँगे कि देश की तात्कालीन सरकार ने अपने स्वार्थ के लिए किस आग में जलाया कि उन्हें अपने अधिकार वापस पाने के लिए 30 साल तक इंतजार करना पड़ा। इस बीच आखिर उनकी क्यों कोई सुनवाई नहीं हुई? क्यों किसी सरकार ने उनकी माँग को तवज्जो नहीं दी। विस्थापित कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की जिम्मेदारी क्या मोदी सरकार से पहले किसी सरकार को जरूरी मुद्दा नहीं लगी?
वास्तविकता तो यह है कि मोदी सरकार ने साल 2014 में सत्ता संभालने के साथ ही यह साबित कर दिया था कि कश्मीर में शांति बहाल करना उनके प्रमुख एजेंडो में से एक हैं। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने कश्मीर के 18 दौरे किए थे। इनमें से 9 दौरे तो साल 2014 में ही किए गए थे।
उनकी सख्तियों का परिणाम था कि जो पत्थरबाज पहले सड़कों पर बेखौफ सेना पर हमले करते थे उन पर सेना ने नकेल कसनी शुरू कर दी थी। पिछले साल तक के आँकड़े बताते हैं कि साल 2004 से 2014 तक के बीच में जहाँ कश्मीर में हर वर्ष 900 से ज्यादा आतंकी घटनाएँ सामने आती थी, वहीं मोदी कार्यकाल में इनकी गिनती कम होकर 300 के आस पास रह गई।
मोदी सरकार ने सेना को खुली छूट दी। पड़ोसी मुल्क की नापाक हरकतों को जवाब देने का मौका दिया। उन्होंने ऑपरेशन ऑलआउट चलवाया ताकि आतंकियों का सफाया हो सके।
बता दें कि बीते दिनों आईएएनएस द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि जम्मू कश्मीर में विशेष दर्ज खत्म किए जाने के बाद से स्थानीयों और सुरक्षाबलों के साथ हुई झड़पों में साल 2016 के मुकाबले 2019 में 94 प्रतिशत कम हुई। वहीं पत्थरबाजी भी 70 प्रतिशत कम हुई।
यदि मोदी कार्यकाल के 5 सालों की बात की जाए और यूपीए सरकार से उनकी तुलना की जाए तो पता चलता है कि सुधार किस हद्द तक हुआ है। साल 2004 से 2014 तक 9,739 आतंकी घटनाएँ हुईं। यानी हर साल औसतन 900 से ज्यादा आतंकी घटनाएँ हुईं। इनमें 4000 आतंकी मारे गए, लेकिन 2000 आम जन की मौत हुई और 1000 से ज्यादा जवान वीरगति को प्राप्त हो गए।
वहीं, 2014 से 2019 के बीच 1708 आतंकी घटनाएँ हुईं। इनमें 838 आतंकी मारे गए, लेकिन 138 आम नागरिकों की मौत हुई और 339 जवान शहीद हो गए। पिछले साल तक हर साल औसतन 300 से ज्यादा घटनाएँ हुईं जो पिछले 10 वर्ष के सालाना औसत आँकड़े की तुलना में 1/3 है।