Wednesday, May 8, 2024
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बच्चों के अंग-भंग कर सूरदास के गाने! जी नहीं… इसाइयों ने खोजा था चर्च के लिए यह अमानवीय तरीका

1599-1878 के बीच 26 पोप हुए। गरीब घरों के बच्चों का इस दौरान बंध्याकरण चलता रहा। बंध्याकरण के बाद गाने की ट्रेनिंग ताकि ऊँचे स्वरमान (pitch) में वो गा सकें। लेकिन...

परिभाषा के हिसाब से संवाद दोतरफ़ा होता है। मतलब एक पक्ष बोल रहा हो और दूसरा सिर्फ सुने, ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर आप अखबार जैसे माध्यमों से परिचित हैं तो आप जानते होंगे, अखबार की बात तो आप खरीद कर पढ़ते हैं, मगर आपकी बात अखबार तक पहुँचे, ऐसा कम ही होता है। सिर्फ एक पक्ष की सुनी जाती है। ऐसा दो समुदायों के मिलने पे भी होता है।

अक्सर विजेता के गुण-दोष, हारने वाला समुदाय आसानी से अपना लेता है। हारने वालों की शायद ही कोई चीज़ विजेता सीखते हैं। जैसे विजेता रिलिजन की 13 संख्या को अशुभ मानने की परंपरा, या रविवार के अवकाश की परंपरा तो भारत ने आसानी से अपना ली मगर यहाँ की परम्पराएँ शायद ही उधर गई होंगी।

ऐसा ज्ञान-विज्ञान में ही नहीं, संगीत-कला के क्षेत्र में भी होता है। कई बार हारने वालों की चीज़ें हड़प ली जाती हैं। बाद में उन्हें श्रेय देने से भी इनकार कर दिया जाता है। विजेताओं की चीज़ें कैसे आती हैं, उसे देखना हो तो स्लमडॉग मिलियनैर फिल्म के शुरुआत का एक दृश्य याद कीजिए। वहाँ भिखारी बनाने वाला एक गिरोह कुछ बच्चों को गाना गाने पर जाँच के देखता है।

फिल्म का मुख्य किरदार जब अच्छा गाता पाया जाता है तो बहला-फुसला के उसे एक कमरे में ले जाते हैं। वहाँ धोखे से उसे बेहोश करके, चम्मच से उसकी आँखें निकालने वाले होते हैं! गिरोह का इरादा था कि अंधे को गाकर भीख ज्याद मिलेगी।

मुझे यकीन है कि उस दृश्य को देख कर ज्यादातर लोग काँप उठे होंगे। अंग्रेजी में जिसे नेल बाइटिंग सिचुएशन कहते हैं, वही कह कर ज्यादातर अख़बारों ने उसका जिक्र किया होगा। विकलांग करके गवाने की भयावह, घृणित परंपरा! ये जो विकलांग करवा कर गाना गवाने की परंपरा है, वो ईसाई रिलिजन से आई है।

आज जैसा आप बच्चों के जन्म, शादी पर, गाने वाले हिजड़ों को देखते हैं, वैसा कुछ होने का जिक्र भी भारतीय ग्रंथों में नहीं आता। भारत के, मतलब हिन्दुओं का पुराना इतिहास देखेंगे तो किसी को विकलांग बना देना ताकि वो गा कर कमा सके, ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा। ये चर्च से आई परंपरा है। होता क्या था कि इस रिलिजन में स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं।

जाहिर है ऐसे में स्त्रियों को चर्च में गाने की इजाजत तो हरगिज़ नहीं दी जा सकती। लेकिन जो क्रिसमस या ऐसे अवसरों पर क्वायर की परिपाटी थी, उसमें गाने के लिए स्त्रियों वाली आवाज भी चाहिए होती थी। इसी जरूरत को पूरा करने के लिए 9 साल की आस-पास की उम्र में बच्चों को अंग-भंग कर के हिजड़ा बनाने की परंपरा शुरू हुई।

फिर इन बंध्याकरण किए बच्चों की लंबी ट्रेनिंग की प्रक्रिया शुरू होती थी। कई बार ये गरीब घरों के बच्चे होते थे। कम से कम खाने का इंतजाम होगा, इसलिए इस घृणित कृत्य के लिए माँ-बाप अपने बच्चे दे देते थे। हालाँकि प्रजनन क्षमता को ख़त्म कर देना अच्छा गायक हो जाने की गारंटी नहीं होती थी।

फिर ये भी था कि इस अमानुषिक कृत्य के बाद बच्चे के जीवित बचने की संभावना भी क्षीण होती थी। जो करीब 10 फीसदी बच्चे जीवित बच पाते, उनकी गाने की क्षमता हो, आवाज अच्छी हो ये भी जरूरी नहीं होता था। इसलिए कुछ भूखमरी से भी मरे ही होंगे।

इस काम के लिए पोप क्लेमेंट (अष्टम) ने 1599 में लिखित इजाज़त दी थी ताकि “कैस्ट्रटी” चर्च में गा पाएँ। पूरे दो सौ अस्सी साल बाद यानी 1878 में, पोप लियो ने, “कैस्ट्रटी” को चर्च में गाने देने से मना कर दिया था। स्त्रियाँ चर्च में ना आ सकें, इसलिए कैस्ट्रटी बनाने का घृणित कार्य चर्च करता रहा। स्त्रियों को चर्च के अन्दर जगह दिए बिना, अपने लिए ऊँचे स्वरमान (pitch) का गायन जुटाने का ये उनका तरीका था।

नहीं ग़लतफ़हमी मत पालिए! 1599-1878 के दौर में पूरे 26 पोप हुए हैं, यानी इस दौर में 26 बार ये आदेश दोहराया गया होगा। इनमें से दो पोप को ब्लेस्ड (Pious IX और Innocent XI) घोषित किया गया है। दो को केनोनाइजेशन (यानी संत घोषित करने की प्रक्रिया का शुरूआती चरण), के लिए जाँचा-परखा जा रहा है।

इनमें से कई प्रसिद्ध भी हुए थे। शायद सबसे प्रसिद्ध कास्ट्रटो 17वीं सदी के अंत का कार्लो ब्रोस्की था, जिसे फरिनेल्ली नाम से प्रसिद्धि मिली। इस पर 1994 में एक फिल्म भी बनी थी। इनकी प्रसिद्धि का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि स्वीडन की रानी क्रिस्टीना इनकी आवाज़ की ऐसी दीवानी थी कि उन्होंने पोलैंड के साथ युद्धविराम करवा दिया था!

दो हफ्ते तक कास्ट्रटो फेर्री आकर गा सके, इसके लिए युद्ध रुका रहा। चर्च अपने क्वायर के लिए ऐसे जबरन बनाए गए हिजड़ों को रख सके, इसके लिए अक्सर न्यू टेस्टामेंट का एक हिस्सा सुनाया जाता है। इस हिस्से के मुताबिक औरतों को सभाओं और चर्च में बोलना नहीं चाहिए (Corinthians 14:34-35 और Timothy 2:11-12)।

सन 1789 के दौर में सिर्फ रोम के चर्च क्वायर में गाने वाले 200 से ज्यादा कैस्ट्रटी थे। इन्हें चर्च ने 19वीं सदी में कहीं जाकर रखना बंद करना शुरू किया। सन 1870 में, पोप के शासित इलाके में कसाई और नाइयों द्वारा इस बर्बर बंध्याकरण को आदेश से बंद कर दिया गया था। 1878 में पोप लियो (13वें) ने नए कैस्ट्रटो को चर्च में काम ना देने का आदेश दिया।

इस तरह 1900 में सिस्टाइन चैपल और यूरोप के दूसरे कैथोलिक क्वायर में गाने वाले सिर्फ 16 कैस्ट्रटी बचे। सन 1903 में पोप पियस दशम के अधिकारिक प्रतिबंध पर ये वैटिकन में बंद हुआ। चर्च के आखरी कैस्ट्रटी अलेस्संद्रो मोरेस्की, की मृत्यु सन 1922 में हुई।

चर्च के गाने की इस अमानुषिक प्रथा की वजह से, इटली में, अंदाजन हर साल तीन से 5000 बच्चों का बंध्याकरण किया जाता था। उनमें से एक प्रतिशत, केवल 1% ही गायक बन पाते थे। इसके कारण ऑपेरा की परम्पराओं में ऐसे रोल लिखे जाते थे, जो कैस्ट्रटो गायक ही कर पाएँ, जैसे हान्डेल का ऑपेरा (operas of Handel)। ऐसे ऑपेरा जब आज मंचित किए जाते हैं, तो कोई स्त्री-पुरुष के कपड़ों में मुख्य किरदार निभाती है। कुछ ऐसे भी हैं (Baroque operas) जो कि इतने मुश्किल हैं, जिन्हें आज किया ही नहीं जाता।

हो सकता है आपको ऑपेरा पसंद हो तो कभी आपने इनका नाम सुना हो, नहीं तो ढूँढने के लिए गूगल है ही।

बाकी क्रिसमस है, जब आप क्वायर सुनेंगे तो इस प्रथा के अमानुषिक, बर्बर और वीभत्स इतिहास को भी याद कर लीजिएगा। मनुष्यता मरी ना हो तो गाने और रोने की आवाज में फर्क जरूर कर पाएँगे! सुन रहा है ना तू… रो रहा हूंँ मैं…

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Anand Kumar
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