मोपला नरसंहार (Moplah genocide) के बारे में इतिहास की किताबों में कम ही पढ़ने को मिलता है और वो खिलाफत आंदोलन जिसने उसका बीज बोया उस पर तो कोई बात ही नहीं होती। इतिहास की किताबें बताती हैं कि खिलाफत आंदोलन वो आंदोलन था जहाँ हिंदू मुस्लिम एक दूसरे के साथ खड़े होकर ब्रिटिशों से लड़े। जबकि सच ये है कि इस आंदोलन का उद्देश्य मुस्लिमों के मुखिया माने जाने वाले टर्की के ख़लीफ़ा के पद की पुन: स्थापना कराने के लिए ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालना था। भारतीय मुसलमान इस्लाम के खलीफा के लिए लड़ रहे थे और गाँधी ने इस आंदोलन में उनको समर्थन दिया था।
गाँधी के इस कदम ने इस्लामवाद को भारत में और अधिक पोसा। उनको लग रहा था कि ऐसे कदम से मुसलमानों के बीच ब्रिटिश विरोधी भावना मजबूत होगी। यह पहला आंदोलन माना जाता है जिसने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ ‘असहयोग आंदोलन’ को मजबूत किया।
हालाँकि, (पाकिस्तान या भारत का विभाजन, पृष्ठ 146, 147 पर) डॉ अम्बेडकर कहते हैं:
“(खिलाफत) आंदोलन मुसलमानों द्वारा शुरू किया गया था। जिसे गाँधी द्वारा दृढ़ता और विश्वास के साथ अपना लिया गया। इसने शायद कई मुसलमानों को आश्चर्यचकित कर दिया होगा। ऐसे कई लोग थे जिन्होंने खिलाफत आंदोलन के नैतिक आधार पर संदेह किया और गाँधी को आंदोलन में भाग लेने से रोकने की कोशिश की, जिसका नैतिक आधार इतना संदिग्ध था।”
नई दिल्ली में आईसीएचआर के पूर्व अध्यक्ष डॉ एम जी एस. नारायणन ने इस संबंध में लिखा,
“गाँधीजी उस समय राजनीतिक रूप से मासूम थे कि वो ब्रिटिश भारत के संदर्भ में यह मान रहे थे कि भारत में गरीब और अनपढ़ मुस्लिम समुदाय को आसानी से ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ एक सक्रिय राजनीतिक संघर्ष में खींचा जा सकता है। मुसलमानों को खुश करने के लिए, उन्होंने … खिलाफत के मामले का समर्थन किया, जिसे अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध के अंत में तुर्की में समाप्त कर दिया था। बाद में महात्मा गाँधी ने खिलाफत को प्रायोजित करने में इस मूर्खता पर खेद व्यक्त किया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी- नुकसान हो चुका था। मुसलमानों को सामाजिक सुधार और आधुनिक शिक्षा के लिए मनाने के बजाए, खिलाफत ने उनकी रूढ़िवादी धार्मिक प्रवृत्ति को वैध बनाया और बाहरी दुनिया के बारे में उनके डर और संदेह को जगाया। इसने उनकी सांप्रदायिकता को मजबूत किया, जो अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब के दिनों से निष्क्रिय पड़े हिंदू काफिरों के खिलाफ नफरत पर पनपी थी।”
गौरतलब हो कि खिलाफत आंदोलन ने जहाँ भारत के भीतर और बाहर, काफिरों के खिलाफ भारतीय मुसलमानों को एकजुट किया था। वहीं इस आंदोलन को गाँधी ने समर्थन देकर मोपला जैसे नरसंहार की जमीन तैयार कर दी थी।
वैसे तो मालाबार में मोपला मुस्लिम समुदाय ने 100 वर्षों तक काफिरों के खिलाफ हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम दिया था। लेकिन 1921 के अगस्त-सितंबर में हुआ नरसंहार अलग था क्योंकि उस समय उन्हें लग रहा था कि वो ब्रिटिशों को निकाल कर इस्लामी राज्य स्थापित कर लेंगे। मगर, इसके लिए उन्हें हिंदुओं का नरसंहार करके जमीन को शुद्ध करना होगा।
कई लोगों का मानना है कि इस नरसंहार के दौरान आधिकारिक तौर पर, मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा 10,000 से अधिक हिंदुओं का वध किया गया था। लेकिन अनौपचारिक संख्या, संभवतः कहीं अधिक हो सकती है।
इस नरसंहार में एक भयानक घटना घटित हुई। 25 सितंबर 1921 में उत्तरी केरल के थुवूर और करुवायकांडी के बीच बंजर पहाड़ी पर खिलाफत नेताओं में एक चंब्रासेरी इम्बिची कोइथंगल (chambrassery Imbichi Koithanga) ने अपने 4000 अनुयायियों के साथ रैली की और सभा के दौरान 40 हिंदू पकड़े। इसके बाद उनका हाथ पकड़ कर उनके हाथ बाँधे गए और खिलाफत नेता के पास पेश किया गया। इस दौरान 38 की हत्या हुई। जिनमें 3 को गोली से मारा गया और बाकी के सिर काट कर थुवूर कुएँ में फेंक दिए गए।
थुवूर के कुएँ पर कैसे काटे गए थे हिंदू…क्या हुआ था उस समय?
विभिन्न स्रोतो के अनुसार, 38 हिंदुओं पर मोपला कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ सेना की मदद करने का आरोप लगा था। उनके ख़िलाफ़ आरोपों को उन्हें पढ़कर सुनाया गया और देखते ही देखते कट्टरपंथियों ने उनका सिर कलम कर दिया। हत्या के बाद सबकी खोपड़ियाँ कुएँ में फेंक दी गई।
दीवान बहादुर सी. गोपालन, जो कालीकट, मालाबार के डिप्टी कलेक्टर थे, द्वारा लिखित द मोपला रिबेलियन, 1921 पुस्तक में, 25 सितंबर के उस भयानक दिन के बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है।
पुस्तक के 56वें पेज पर गोपालन लिखते हैं:
एक बंजर पहाड़ी की ढलान पर थुवूर और करुवायकांडी के बीच-बीच में एक कुआँ स्थित है। यहाँ चेम्ब्रसेरी (चंब्रासेरी) तंगल के 4000 अनुयायियों ने एक बड़ी बैठक की। तंगल एक छोटे से पेड़ की छाया में बैठ गया और 40 से अधिक हिंदुओं को विद्रोहियों (कट्टरपंथियों) ने पकड़ लिया और उनकी पीठ के पीछे हाथ बाँधकर तंगाल ले जाया गया। इन हिंदुओं पर आरोप लगाया गया कि इन्होंने विद्रोहियों के विरुद्ध सेना की मदद की थी। इनमें 38 को मौत की सजा सुनाई गई। कहा जाता है कि इनमें तीन को गोली मारी गई और बाकी को एक-एक करके कुएँ पर ले जाया गया। किनारे पर एक छोटा सा पेड़ है। जल्लाद यहीं खड़ा हो गया जो तलवार से गर्दन काटकर शव को कुएं में धकेलता रहा था।
उनमें से कई लोग जिन्हें नहीं फेंका गया था वह मरे भी नहीं थे। लेकिन चंगुल से छूटना नमुमकिन था। कुएँ के किनारे सख्त लाल चट्टान में कटे हुए हैं और कोई सीढ़ियाँ नहीं हैं। बताया जाता है कि हत्याकांड के तीसरे दिन भी कुछ लोग कुएँ से चिल्ला रहे थे। वे एक अजीबोगरीब भयानक मौत मरे होंगे। जिस समय यह हत्याकांड हुआ था उस समय बारिश का मौसम था और थोड़ा पानी था, लेकिन अब यह सूखा है और कोई भी आने जाने वाला इस भीषण नजारे को देख सकता है। कुआँ पूरी तरह से मानव हड्डियों से भरा है। मेरे बगल में खड़े आर्य समाज मिशनरी पंडित ऋषि राम ने 30 खोपड़ियों की गिनती की।
एक खोपड़ी जिसका अलग से जिक्र होना चाहिए।
यह अभी भी बड़े करीने से दो हिस्सों में बंटा हुआ दिखाई देता है। कहा जाता है कि यह कुमारा पणिक्कर नाम के एक वृद्ध व्यक्ति की खोपड़ी है, जिसके सिर को आरी से धीरे-धीरे दो भागों में काट दिया गया था।
गोपालन ने इस पुस्तक में मौजूद तुच्छ जानकारी के बारे में बताया। लेकिन, हिंदुओं के मोपला नरसंहार के दौरान जो कुछ हुआ, उसका शायद ही कोई आधिकारिक या सच्चा विवरण कहीं हो। कई वामपंथी इतिहासकारों ने इस नरसंहार को ये बता कर फैलाया कि ये एक कृषि विद्रोह था या ये कहा गया कि वो (मुस्लिम) मजदूर थे जिन्होंने (हिंदू) जमींदारों के विरुद्ध आवाज उठाई थी।
ऐसे इतिहासकारों ने हिंदुओं के मोपला नरसंहार में दबे वर्ग को मुस्लिम दिखाया जबकि हिंदुओं को जमींदार कहकर सशक्त दिखाने की कोशिश की। यही रोना शशि थरूर ने भी अपनी किताब में रोया था जबकि इस नरसंहार को लेकर जो विश्वसनीय स्रोत हैं वो पूरी अलग कहानी सुनाते हैं। जिसमें जबरन धर्मांतरण, हिंदू पुरुषों, महिलाओं, बच्चों के खिलाफ अत्याचार और साथ ही साथ कट्टरवाद शामिल है जिसे महात्मा गाँधी समेत कई कॉन्ग्रेसी नेताओं का समर्थन था।
नोट: यह लेख ऑपइंडिया की एडिटर इन चीफ नुपूर जे शर्मा के मूल लेख पर आधारित है। इसका अनुवाद जयंती मिश्रा ने किया है। आप इस लेख को इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।