पिछले दिनों दिल्ली के प्रेस क्लब में एक कार्यक्रम हुआ। जामिया मिलिया इस्लामिया में 2019 की हिंसा के नाम पर STATE REPRESSION, WITCH-HUNT & RESISTANCE (सत्ता का दमन, चुन-चुन कर शिकार और प्रतिरोध) नामक चर्चा आयोजित की गई थी। इस दौरान जो कुछ हुआ उतना हास्यास्पद शायद ही हाल-फिलहाल में कहीं और हुआ हो। वहाँ शरजील इमाम को हीरो बताने वाले, उसे किसानों का मार्गदर्शक समझने वाले कई लोग मौजूद थे। बौद्धिक स्तर उनका इतना था कि बात कर रहे थे कि कोई भी व्यक्ति पीएम सिर्फ 5 साल के लिए बने, उसके बाद किसी और का नंबर आए, फिर किसी और का। दिलचस्प ये है कि इन बुद्धिजीवियों ने ये चर्चा भाजपा के केंद्र में आने से पहले कभी नहीं उठाई थी और अब ये इस बिंदु को लोकतांत्रिक माँग बताते हैं।
खैर! ये जमात 15 दिसंबर को प्रेस क्लब में इकट्ठा क्यों हुई, क्यों इन्होंने शरजील इमाम को याद किया और क्यों मोदी सरकार को इस्लोमोफोबिक जैसे शब्दों से नवाजा… इसके लिए 2 साल पहले यानी 2019 के दिसंबर महीने में जाना जरूरी है। वैसे तो मोदी सरकार से कट्टरपंथियों-वामपंथियों की दिक्कत कई साल पुरानी है, मगर 9 दिसंबर को जब नागरिकता संशोधन बिल लोकसभा ने पास किया और 11 दिसंबर 2019 को ये बिल एक कानून बना तो हर जगह इस्लामी बुद्धिजीवी बिलबिला उठा।
‘बुद्धिजीवी’ शब्द यहाँ बार-बार इसलिए इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि समुदाय के सामान्य वर्ग में सीएए-एनआरसी की गलत परिभाषा डालने का काम इसी वर्ग द्वारा किया गया था। इसके बाद दिल्ली हिंदू विरोधी दंगों के रूप में फरवरी 2020 में क्या परिणाम सामने आए ये पूरे देश ने देखा। वो दिसंबर 2019 का ही माह था जब सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ जामिया में सैंकड़ों की तादाद में कथित छात्र बिदके और प्रदर्शन के नाम पर उपद्रव शुरू हुआ। पुलिस ने कार्रवाई की तो उनकी वीडियो बनाकर जगह-जगह दर्शाया गया कि दिल्ली पुलिस कितनी बर्बर है जो कॉलेज परिसर में घुसकर छात्रों को पीट रही है।
इन सबके बीच जो कुछ घटनाएँ छिपाने की कोशिश हुईं उनकी एक झलक याद करिए:
13 दिसंबर 2019 से जामिया में प्रदर्शन शुरू हुआ और 15 दिसंबर 2019 को जामिया नगर में बसों को आग के हवाले करने की घटना सामने आई। आग किसने लगाई? आज इस पर कोई बात नहीं करता, मगर आप सिर्फ कल्पना करिए कि यदि इस हरकत के बाद उस दिन बस में लगे सीएनजी सिलिंडर फट जाते तो उस इलाके का हाल क्या होता…।
आग लगाने वालों ने बस में बैठे न ड्राइवर का ख्याल किया और न ही यात्रियों का। आसपास मौजूद लोग बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर वहाँ से भागे। स्थिति हाथ से निकल रही थी, उपद्रवी हर सीमा लांघ रहे थे, तभी दिल्ली पुलिस एक्शन में आई और लाठीचार्ज कर अपनी कार्रवाई शुरू की। आँसू गैस तक छोड़े गए मगर हिंसा ने थमने का नाम नहीं लिया। बड़ी मशक्कत के बाद जब चीजें थमीं तो सोशल मीडिया पर उन वीडियोज ने हक्का-बक्का कर दिया जिसमें खुलेआम छात्रों की भीड़ इस्लामी नारे लगा रही थी।
जून 2020 में इस संबंध में दिल्ली पुलिस ने हाईकोर्ट में एक हलफनामा दायर किया और स्पष्ट किया कि जामिया की हिंसा कोई मामूली घटना नहीं थी। वह सुनियोजित घटना थी, जिसमें दंगाइयों के पास पत्थर थे, लाठियाँ थी, पेट्रोल बम थे, ट्यूबलाइट थी। इतना ही नहीं पुलिस ने हिंसा की बाबत ये भी बताया कि जामिया में आँसू गोले से बचने के लिए पहले से गीले कंबलों को साथ रखा गया था। अब सोचिए कि आखिर छात्रों के ‘सामान्य’ और शांतिपूर्ण प्रदर्शन में ये सारी तैयारी क्या कहती हैं और किस ओर इशारा करती हैं।
सबसे अजीब बात जो इस हिंसा के बाद देखने को मिली वो प्रशासन का रवैया था। प्रशासन ने उपद्रवियों की लिस्ट से छात्रों को निकालने के लिए कहा कि जो लोग उस दिन हिंसा कर रहे थे वो बाहर के थे। हालाँकि, बाद में कॉलेज के भीतर की तस्वीरें सामने आईं जो बता रही थीं कि माहौल बिगाड़ने का काम अंदर से शुरू हुआ। दीवारों पर पीएम मोदी की तुलना हिटलर से की जाने वाले पोस्टर बने थे। फिर ‘जिंदा कौम 5 साल का इंतजार नहीं करती’ जैसी बाते थीं और ‘अमित शाह दुनिया छोड़ो’ जैसे स्लोगन थे।
17 दिसंबर को शरजील की एक वीडियो ने जगह-जगह हड़कंप मचा दिया। वीडियो में वो मुसलमानों को भड़काते हुए दिल्ली के चक्का जाम करने की बात कर रहा था और साथ ही कह रहा था मुसलमान हिंदुस्तान के 500 शहरों में चक्का जाम कर सकता है। शरजील की बातें साफ बता रही थीं कि उसने इन बातों पर कितना गहन शोध किया है कि आखिर मुसलमान क्या कर सकते हैं क्या नहीं।
इधर, शरजील इमाम जैसे लोग सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ जगह-जगह जनता को भड़काने का काम कर रहे थे और दूसरी ओर शाहीन बाग का प्रोटेस्ट जोर पकड़ रहा था। शुरुआती कुछ दिनों में इस प्रदर्शन को मुस्लिम खातूनों के चेहरे पर चलाया गया। उनके प्रदर्शन से जुड़ने को उनका सशक्तिकरण कहा गया। लेकिन कुछ समय बाद इस प्रदर्शन की असली तस्वीर सामने आना शुरू हुई। वहाँ कभी खुले में हिंदुओं के विरोध में नारे लगे, तो कभी काली माँ का अपमान हुआ। कट्टरपंथियों ने स्थानीयों को तो इकट्ठा किया ही, साथ में बाहरी शहरों से भी लोग लाए जाने लगे।
दिल्ली ने उन महीनों में कितनी दिक्कतों का सामना किया ये सिर्फ दिल्ली वासी ही जानते हैं। जामिया की हिंसा में सैंकड़ों की संपत्तियों के नुकसान से दिल्ली उभरती कि इससे पहले कट्टरपंथी उत्तर-पूर्वी दिल्ली को अपना निशाना बना चुके थे। 23-24 फरवरी 2020 को दिल्ली में हिंदू विरोधी दंगों की शुरुआत हुआ। इसके बाद कहीं नारा-ए-तकबीर के नारों के बीच विनोद को मारा गया तो कहीं पुलिस कॉन्सटेबल रतनलाल की हत्या की गई। ये भीड़ सामान्य नहीं थी। बड़े बड़े गुलेल लगाकर हिंदुओं के घरों पर पेट्रोल बम फेंकने की हरकत बताती है कि उस समय मंशा क्या थी। बर्बरता का यदि अंदाजा लगाना हो तो एक बार अंकित शर्मा को याद करिए। जिन्हें इस कट्टरपंथी भीड़ ने घंटों चाकुओं से गोदा और दिलबर नेगी का शव याद करिए जिसके हाथ-पाँव काटकर उसे जलती आग में फेंकने का काम हुआ।
दिसंबर 2019 से 2021
वो दिसंबर 2019 का महीना था जिसमें शुरू हुआ मुस्लिम और वामपंथियों का विरोध प्रदर्शन दिल्ली के हिंदू विरोधी दंगे बनकर थमा और आज दिसंबर 2021 का महीना है जब दिल्ली की एक अदालत ने 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए हिंदू विरोधी दंगों के मामले में 10 के खिलाफ आरोप तय किए हैं। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने माना कि इनका मुख्य मकसद हिंदू समुदाय के मन में डर और दहशत पैदा करना था। हिंदुओं को देश छोड़ने की धमकी देना और उनकी संपत्तियों को लूटना तथा जलाना था।
आरोपितों की पहचान मोहम्मद शाहनवाज, मोहम्मद शोएब, शाहरुख, राशिद, आजाद, अशरफ अली, परवेज, मोहम्मद फैजल, राशिद उर्फ मोनू और मोहम्मद ताहिर के तौर पर हुई है। इनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 147, 148, 436, 452, 454, 392, 427 और 149 के तहत आरोप तय किए गए हैं। यह गैरकानूनी जमावड़ा 25 फरवरी 2020 को हुआ था। आरोप है कि इनलोगों ने हिंसा की और हिंदुओं के घरों में लूटपाट कर उनकी संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया।
जाहिर है वह दिसंबर एक साजिश थी हिंदुओं के खिलाफ। उस दिसंबर को हम न भूले हैं, न भूलेंगे, न भूलने देंगे।