बढ़ते समय में ‘स्पेस’ एक बहुत बड़ी माँग है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता से लेकर सार्वजनिक रूप से सहमति-असहमति दर्ज कराने के लिए हमें इसकी जरूरत पड़ती है। हमें अपनी बात कहनी होती है तो हम इसकी अपेक्षा करते हैं, हमें किसी की बात सुननी होती है तो हम इसे तलब करते हैं। बाहरी परिवेश से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक हमें ‘स्पेस’ मिलना और ‘स्पेस’ देना ही हमारे भीतर सकारात्मक बदलाव लेकर आता है।
कल्पना करिए! आपसे अंजाने में हुई किसी गलती पर कोई आपसे झल्ला कर कहे “तुम इतनी बेवकूफों वाली हरकत कैसे कर सकते हो” या “तुमने ये किया भी कैसे” तो आपको कैसा लगेगा? और इसी परिस्थिति में कोई आपको समझते हुए कह दे, “ऐसा हो जाता है…कोई बात नहीं” तो कैसा लगेगा। एक ही स्थिति पर दो अलग ‘भाव’ और फर्क सिर्फ़ इतना कि आपकी गलती, आपकी भूल, आपके मत, आपके स्वभाव, आपके समाज और आपके परिवेश को सामने वाला स्पेस दे रहा है या नहीं। विपरीत परिस्थियों में भी मिला सही स्पेस आपको आगे बढ़ने के विकल्प देता है और इसकी गैर मौजूदगी सिर्फ़ अवसाद!!!
मुझे लगता है इस ‘स्पेस’ का अर्थ समझने की छोटे बच्चे से लेकर हर बड़े बुजुर्ग को जरूरत है। लेकिन जो सबसे ज्यादा इसके तलबगार हैं वो प्रेम संबंध में जकड़े प्रेमी-प्रेमिका हैं। जकड़े शब्द का इस्तेमाल मैं सोच-समझ कर रही रही हूँ। जिन्होंने अपने जीवन में प्रेम अनुभव किया है या जो अपने जीवन में किसी के प्रेम संबंधों के गवाह हैं, वो इस बात से सहमत रहेंगे। किसी व्यक्ति विशेष से हुआ प्यार हमें भावनाओं के प्रलोभ से ऊपर, उसमें जकड़ते जाने की ट्रेनिंग देता है। नतीजतन हम सामने वाले को अपनी निजी प्रॉपर्टी समझने लगते हैं। हम बिना उसकी व्यथा, मजबूरी, मानसिकता जाने उससे अपेक्षा करते हैं कि वो जो करे उसके मनमुताबिक हो। और जब ऐसा नहीं होता तो हम परेशान हो जाते हैं, घबराहट से भर उठते हैं, गुस्सा हमें खाने लगता है, हम चिड़चिड़े हो जाते हैं। और आखिर में कोई ऐसा कदम उठा लेते हैं जो न हमारे लिए सही होता है न किसी अन्य के लिए। अपने साथी और उसके फैसले को मात्र ‘स्पेस’ न देने के कारण हम खिन्नता के पात्र बन जाते हैं।
प्रेम संबंध के दौरान लड़के-लड़कियों के बीच ये बहुत बड़ा पेशोपेश होता है कि वो एक दूसरे से जुड़ते वक्त समाज से छिपकर स्वतंत्र रूप से फैसला लेते हैं लेकिन जब रिश्ता समाज के बीच पहुँचता है तो उन्हें कई तरह की बंदिशें और उलाहनाएँ झेलनी पड़ती हैं। इसके बावजूद हम क्या फैसला करते हैं और उस पर हमारा साथी क्या रिएक्ट करता है, उसे ही प्रेम में एक तरह से स्पेस देना और स्पेस मिलना कहा जाता है।
कल जब सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक फैसला आया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अगर कोई महिला भविष्य में शादी की सुनिश्चतता जाने बिना किसी शख्स के साथ लंबे समय तक शारीरिक संबंध बनाती है तो वह उस पर यह कहकर बलात्कार का आरोप नहीं लगा सकती कि उस आदमी ने उससे शादी का वादा किया था।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक उदाहरण है कि अब न्यायपालिका भी प्रेम संबंधों में जोड़ों से स्पेस की मौजूदगी की अपेक्षा कर रहा है। मसलन इस केस में एक सेल्स टैक्स की असिसटेंट कमिश्नर ने आरोप लगाया कि सीआरपीएफ कमांडेंट ने उसे झूठे वादे देकर बलात्कार किया। सही पढ़ा आपने, महिला अधिकारी ने अपनी शिकायत में पुरुष अधिकारी और एक लंबे समय तक रहे अपने प्रेमी पर बलात्कार का आरोप लगाया। उन्होंने अपनी शिकायत में इस बात का जिक्र किया कि पुरुष अधिकारी ने झूठा वादा करके उसके साथ ये सब किया। लेकिन जब कोर्ट ने मामले में सारी दलीलें सुनीं तो उन्होंने फैसला किया कि 6 साल रिश्ते में रहने के बाद, अलग-अलग मौक़ों पर एक दूसरे के घर आने-जाने के बाद दोनों के बीच सहमति के रिश्ते थे। इसलिए बलात्कार का उनका आरोप खारिज किया जाता है।
साथ ही कोर्ट ने एक बहुत महत्तवपूर्ण बात कही, “झूठे वादे कर महिला के साथ शारीरिक संबंध बनाने में और आपसी सहमति से शारीरिक संबंध बनाने में फर्क है। झूठा वादा कर धोखा देना वह स्थिति है, जिसमें वादा करने वाले शख्स के मन में जुबान देते वक्त उसे निभाने की सिरे से कोई योजना ही न हो।”
कोर्ट ने महिला की शिकायत पर बारीकी से अध्य्यन करते हुए कहा कि 2008 में किया गया शादी का वादा 2016 में पूरा नहीं किया जा सका। सिर्फ इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता है कि शादी का वादा महज शारीरिक संबंध बनाने के लिए था। कोर्ट ने यह भी कहा कि महिला शिकायतकर्ता को भी इस बात का पता था कि शादी में कई किस्म की अड़चनें हैं। वह पूरी तरह से परिस्थितियों से अवगत थीं।
ये पूरा मामला प्रेम संबंध में सहमति-असहमति को स्पेस न दिए जाने के कारण कोर्ट में पहुँचा। लेकिन आखिरकार कोर्ट के फैसले ने प्रेम संबंध में जकड़े लोगों की उस भावना को चोट किया, जो अपने साथी की निजता खत्म करके उसको अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली वस्तु समझ लेते हैं। इस हालिया मामले में बलात्कार का आरोप मढ़ती हुई लड़की ने एक बार भी सोचने का प्रयास नहीं किया कि जो संबंध दोनों के बीच बने वो तब भी रहे जब लड़के ने शादी में असमर्थता दिखाते हुए अपनी मजबूरी उसके आगे रख दी। वो मजबूरी लड़की की जाति थी। जिसे लड़के का परिवार-समाज स्वीकारने को तैयार नहीं था, और लड़का अपने समाज की सोच के ख़िलाफ़ कदम उठाने के लिए तैयार नहीं था। लड़की चाहती तो उसे और उसके समाज को पिछड़ी सोच के लिए दुत्कार सकती थी, अपने तरीके से बहिष्कार कर सकती थी, घर में सबको सच्चाई बता सकती थी, उसके फैसले का और उसका विरोध कर सकती थी। लेकिन वो सीधे कोर्ट पहुँची और लड़के पर आरोप भी लगाया तो ये कि उसके प्रेमी ने उसका बलात्कार किया! क्या वाकई 6 साल के प्रेम संबंध में आपसी सहमति से आई करीबियाँ बलात्कार होती हैं? आप अपने स्तर पर सोचिए।
प्रेम के बाद अलग होना और प्रेम में दोषी होना, दो अलग बातें हैं। जिसे कोर्ट ने भी अपने फैसले के साथ स्पष्ट कर दिया। भारतीय संस्कृति के पटल पर नाक-साख, जाति-धर्म, माँ-बाप की इज्जत के नाम पर कितने जोड़े एक दूसरे से अलग हो जाते हैं, ये मुझे विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है। हम नजर घुमाकर भी देखें तो इन कुप्रथाओं और भ्रांतियों से ग्रसित समाज में ऐसे पीड़ित प्रेम संबंध मिल जाएँगे जो अपने अटूट प्रेम के बावजूद भी टूट गए और अलग-अलग साथी के साथ न सिर्फ अपना जीवन गुजार रहे हैं बल्कि मस्त भी हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि उनमें से कोई एक अपनी कुंठा-गुस्सा-द्वेश निकालने के लिए संबंधों को बलात्कार बता दे।
फर्जी नारीवाद को दो पल के लिए कोने में रखकर एक बार इस बात पर गौर करिए कि हम कथित तौर पर महिला सुरक्षा और महिला अधिकारों के नाम पर क्या गंदगी फैला रहे हैं। हम अभिव्यक्ति की आजादी का प्रयोग कौन सी दिशा में कर रहे हैं? पूछिए एक बार खुद से क्या वाकई प्रेम में अलग होने के बाद आपसी संबंध बलात्कार हो जाते हैं? और अगर आपको इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ दिखता है तो उस ‘भाई’ या उस ‘दोस्त’ या उस ‘रिश्तेदार’ के बारे में जरूर सोचिए, जिसे सामाजिक के दबाव में आकर अपने प्रेम को छोड़ना पड़ा, लेकिन फिर भी वो उसे भुलाने में असमर्थ रहा। अब ऐसे में क्या हो अगर उसकी प्रेमिका आकर उसे बलात्कारी बता जाए… शायद उस समय हमें उस लड़की से या पूरी लड़की जाति से नफरत हो जाएगी। एक आरोप एक लड़के की जिंदगी, एक पुरूष का भविष्य सब बर्बाद कर देती है। वो शादी का वादा करके मुकर जाने पर अपनी ओछी मानसिकता के लिए दोषी हो सकता है, वो समाजिक कुरीति बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हो सकता है, लेकिन बलात्कार का आरोपी या दोषी बिल्कुल नहीं हो सकता।
ये बात सच है कि समाज में ऐसी घटनाएँ आए दिन घट रही हैं कि जहाँ पुरूष शादी का वादा करके एक महिला को भीतर तक छील जाते हैं, लेकिन इस बात से भी गुरेज नहीं किया जा सकता कि अब महिलाएँ अपनी कुंठा निकालने के लिए आपसी संबंधों को भी बलात्कार बता रही हैं। जिसमें दोषी न होते हुए एक पुरूष को जलालत झेलनी पड़ती है। इन्हीं सब कारणों से प्रेम संबंधों में स्पेस की जरूरत अत्यधिक है, ताकि हम अपने साथी को उसके स्वभाव, मनोभाव और उसकी हरकतों पर आँक सकें, न कि उस व्यक्तित्व के आधार पर जो ‘प्रेम की जकड़’ या ‘साथी की मंशा’ के दबाव के कारण बना। क्योंकि अगर ऐसा होगा तो सहमति से बनाया शारीरिक संबंध भी फर्जी बलात्कार ही लगेगा।