Monday, November 25, 2024
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पिछड़ा वर्ग में मुस्लिमों को घुसाया, अब ‘छीनने’ और ‘कब्जा हटाने’ की धमकियाँ: बिहार की जातिगत जनगणना के पीछे हिन्दुओं को बाँटने की राजनीति, फूँके सैकड़ों करोड़

अब चूँकि राजद और जदयू जैसी पार्टियाँ जाति के आधार पर ही आगे बढ़ी हैं, इनकी कार्यप्रणाली से जाति को निकालना एक असंभव कार्य है। राजद ने लंबे समय तक मुस्लिम+यादव (MY) गठबंधन बना कर सत्ता की मलाई खाई। जदयू 'लव-कुश' (कुर्मी-कोइरी) के जरिए राजनीति करती रही।

बिहार में जाति आधारित जनगणना के आँकड़े जारी किए जा चुके हैं। बिहार की 2 प्रमुख सत्ताधारी दलों राजद और जदयू के समर्थकों में जश्न का माहौल है। ऐसा प्रदर्शित किया जा रहा है जैसे राज्य सरकार ने किसी बहुत बड़ी जन-कल्याणकारी योजना को पूरा कर के दिखा दिया हो। बिहार सरकार ने जो आँकड़े जारी किए है, उसकी मानें तो राज्य में 36.01% जनसंख्या अत्यंत पिछड़ा वर्ग की है। वहीं 27.12% जनसंख्या पिछड़ा वर्ग की है। अनारक्षित या सामान्य वर्ग के लोगों की जनसंख्या 15.52% बताई गई है।

यहाँ ये ध्यान रखिए कि ‘अत्यंत पिछड़ा वर्ग’ का मतलब बिहार में 130 जातियों और उप-जातियों वाले EBC समुदाय से है, जो लंबे समय से नीतीश कुमार के एजेंडे में रहा है। उन्होंने गैर-यादव पिछड़ी जातियों की गोलबंदी तैयार करने के उद्देश्य से इसे अलग से वर्गीकृत किया था। इसमें यादव और कुर्मी जैसी OBC जातियाँ शामिल नहीं हैं। तो क्या अब EBC और OBC नामक 2 गुट बन जाएँगे और गोलबंदी अलग-अलग होगी इनकी? इन सवालों का जवाब भविष्य देगा, लेकिन अब OBC में भी ज़्यादा प्रभाव वाली जातियों के खिलाफ अलग-अलग जातियों के संयुक्त मोर्चे बनने लगेंगे। पहले भी ऐसे प्रयोग हुए हैं, ये अब और तेज़ हो सकता है।

इस तरह बिहार में OBC और EBC को मिला दें तो ये 63% बैठता है। इस ‘Caste Census’ रिपोर्ट में कुल 203 जातियों का जिक्र किया गया है। इनमें से 196 जातियाँ ऐसी हैं जिन्हें आरक्षण मिल रहा है। बिहार की नौकरियों में अब तक EBC को 18%, SC को 16%, BC को 12% और EWS को 10% आरक्षण मिलता रहा है। EWS छोड़ कर बाकी आरक्षित वर्ग में महिलाओं को 3% आरक्षण है। वहीं 1% सीटें ST समाज के लिए आरक्षित होती हैं।

बिहार की इस जाति आधारित जनगणना के बारे में एक और बड़ी बात जान लीजिए कि मुस्लिम समाज को भी सामान्य वर्ग, EBC और BC में बाँटा गया है। जैसे – सैयद, शेख और पठान (खान) सामान्य वर्ग में रखे गए हैं। मदारिया, नालबंद, सुरजापुरी और मलिक मुस्लिमों को BC में रखा गया है। वहीं लगभग 31 मुस्लिम जातियाँ EBC में हैं। मुस्लिमों की कुल जनसंख्या का 10% EBC है। अब देखना ये होगा कि आरक्षण से लेकर आने वाली योजनाओं में इन मुस्लिमों को किस तरह से फायदा पहुँचाया जाता है।

बिहार: जाति आधारित जनगणना के क्या हैं आँकड़े

जातिगत जनगणना के आँकड़ों पर नज़र डालें तो बिहार में अनुसूचित जाति (SC) की जनसंख्या 19.65% और अनुसूचित जनजाति (ST) की जनसंख्या 01.68% है। इस जनगणना में बिहार की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ पाई गई है, जिनमें से 6.41 करोड़ पुरुष हैं। महिलाएँ पुरुषों के मुकाबले 30 लाख कम हैं। राज्य में प्रति 1000 पुरुष पर 953 महिलाएँ हैं। कुल 2.83 करोड़ परिवार हैं, जो 215 जातियों एवं उप-जातियों में विभाजित हैं। 1971 में इससे पहले जातिगत जनगणना कराई गई थी, उस हिसाब से देखें तो सवर्णों की जनसंख्या में कमी आई है।

बिहार सरकार की तरफ से आँकड़े जारी करते हुए विकास आयुक्त विवेक कुमार सिंह ने बताया है कि आगे की योजनाओं में ‘सभी वर्गों के संतुलित विकास’ के लिए इन आँकड़ों का ध्यान रखा जाएगा। इन आँकड़ों में ये भी बताया गया है कि अन्य राज्यों के 53.72 लोग बिहार में अस्थायी रूप से रह रहे हैं। कुछ आँकड़े ऐसे भी हैं, जिन्हें गोपनीय बताते हुए सरकार ने प्रकाशित करने से इनकार कर दिया है। बड़ी बात ये है कि सरकार ने पिछड़ों और अत्यंत पिछड़ों के अलावा सवर्णों में भी मुस्लिमों के विभिन्न समूहों को रखा है।

बिहार सरकार ने जो जाति आधारित जनगणना के आँकड़े सार्वजनिक किए हैं, उनके हिसाब से राज्य में हिन्दुओं की जनसंख्या जहाँ 81.99% है, वहीं मुस्लिम 17.70% हो चुके हैं। बाकी सभी मजहबों की जनसंख्या 0.1% प्रतिशत भी नहीं है। इन आँकड़ों के सामने आने से नीति निर्धारण में क्या मदद मिलेगी, योजनाओं की रूपरेखा किस तरह से बदल जाएगी और गरीबों का क्या फायदा होगा – इस संबंध में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया है।

आइए, एक बार बिहार में जातियों की जनसंख्या भी देख लेते हैं। राज्य में यादव 14.26%, रविदास 5.2%, कोइरी 4.2%, ब्राह्मण 3.65%, राजपूत 3.45%, मुसहर 3.08%, भूमिहार 2.86%, कुर्मी 2.80%, मल्लाह 2.60%, बनिया 2.31% और कायस्थ 0.60% बताए गए हैं। संविधान निर्माताओं और देश की पहली कैबिनेट ने जाति आधारित जनगणना न कराने का निर्णय लिया था, क्योंकि इससे समाज में विभाजन पैदा होगा। आज बात-बात में संविधान का रट्टा मारने वालों ने ही ये जनगणना कराई है।

जैसा कि आप देख सकते हैं, बिहार की सत्ताधारी पार्टी RJD ने भी इस बात की पुष्टि की है कि इस आँकड़े में सभी धर्मों के सामान्य, पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग हैं। यानी, सिर्फ मुस्लिम ही नहीं बल्कि ईसाइयों और बौद्धों को भी सामान्य, BC और EBC में एडजस्ट किया गया है। पार्टी ने बताया कि अति पिछड़ा वर्ग की आबादी में 10.60% मुस्लिम हैं। इन मजहबों को कैटेगरी असाइन करने का पैमाना क्या था, ये साफ़ नहीं किया जा रहा है।

एक पिछड़े और गरीब राज्य में जाति जनगणना प्राथमिकता

लेकिन, इतना ज़रूर साफ़ हो गया है कि इन आँकड़ों का इस्तेमाल आगे की राजनीति में भरपूर तरीके से किया जाना है। सबसे बड़ी बात कि एक पिछड़े राज्य में सिर्फ जिद के लिए जाति आधारित जनगणना कराने के लिए पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी को काम पर लगा दिया गया। कई अधिकारियों को अलग-अलग जिम्मेदारी दी गई थी। इसके लिए 2.34 लाख जनगणना करने वाले कर्मचारियों और 40,726 पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की गई थी। अगर आप समझ रहे हैं कि इसके लिए अलग अस्थायी भर्तियाँ निकाली गई थीं, तो आप गलत हैं।

इसकी जिम्मेदारी उन शिक्षकों को दी गई थी, जिनका काम है बच्चों को पढ़ाना और देश-समाज के लिए एक बेहतर भविष्य तैयार करना। लेकिन, इन शिक्षकों को लोगों की जाति पूछने के लिए लगा दिया गया। जिला और अनुमंडल स्तर के अधिकारियों को जिम्मेदारियाँ दी गईं। इसके लिए 500 करोड़ रुपए से ज़्यादा फूँक दिए गए। वो भी ऐसे राज्य में, जो GST कलेक्शन के मामले में निचले पायदान पर है। यही नहीं, बिहार एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ GST कलेक्शन ग्रोथ के मामले में नेगेटिव में है

सितंबर 2023 के जीएसटी कलेक्शन के आँकड़ों की बात करें तो ये देश के 1.62 लाख करोड़ रुपए रहा। अधिकतर राज्यों में पिछले साल के मुकाबले दो अंकों में उछाल प्रतिशत देखा गया, जबकि बिहार में ये -5% घट ही गया। ये बताता है कि राज्य विकास के मामले में पीछे छूट रहा है। इस पर काम करने की बजाए वहाँ की राजद-जदयू गठबंधन सरकार ने जातिगत जनगणना को प्राथमिकता दी। जिस राज्य के नेता खुले रूप में नहीं चाहते हैं कि विकास हों, उनमें विकास को लेकर कोई गंभीरता दिखती ही नहीं, अब उनकी प्राथमिकताएँ भी स्पष्ट नज़र आने लगी हैं।

जाति आधारित पार्टियों का उभार और जातिवादी मानसिकता

अब बात करते हैं कि ये जाति आधारित जनगणना वाली मानसिकता कहाँ से आई। असल में इसकी शुरुआत तभी हो गई थी जब भारत में जाति के आधार पर क्षेत्रीय दल बनने लगे। राजद और सपा – इन दोनों दलों को ही ले लीजिए। नब्बे के दशक में स्थापित इन दोनों ही दलों ने यादव जाति को अपना वोट बैंक बनाया। इसी तरह नब्बे के दशक में ही बनी RLD ने जाट समाज को अपना वोट बैंक बनाया। आज तो ऐसी कई पार्टियाँ खड़ी हो गई हैं।

बिहार की ही बात करें तो कोइरी वोटरों को साधने के लिए उपेंद्र कुशवाहा कई बार नई पार्टी बना चुके हैं। मुकेश साहनी खुद को ‘सन ऑफ मल्लाह’ बोल कर निषाद समाज पर डोरे डालते हैं। खुद नीतीश कुमार की राजनीति में बड़ा मोड़ तब आया था जब वो ‘कुर्मी चेतना रैली’ में पहुँचे थे। रामविलास पासवान ने एक बड़े पासवान वर्ग के वोटरों को अपनी पार्टी लोजपा के साथ जोड़े रखा। यूपी की ही बात करें तो जहाँ SVSP राजभर समाज पर दावा ठोकती है, वहीं ‘अपना दल’ कुर्मी वोटरों को अपने पाले में रखने पर ध्यान केंद्रित रखता है। इसके अब 2 टुकड़े हो चुके हैं।

यूपी की बसपा को हम कैसे भूल सकते हैं, जिसने जाटव समाज को अपना प्रमुख वोट बैंक बनाया और बाद में अन्य दलितों को जोड़ा। इसी तरह संजय निषाद अपनी ‘निषाद पार्टी’ के जरिए मल्लाह समाज को साधने की कोशिश में लगे रहते हैं। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की JJP भी वहाँ के जाट वोटरों को आकर्षित करती है। इससे पहले देवी लाल द्वारा स्थापित INLD हरियाणा में जाट वोटरों की पार्टी मानी जाती थी।इस तरह भारत में जाति आधारित दलों की भरमार हो गई और सबने तुष्टिकरण कर-कर अपने अपनी-अपनी जातियों को साधना शुरू कर दिया।

अब चूँकि राजद और जदयू जैसी पार्टियाँ जाति के आधार पर ही आगे बढ़ी हैं, इनकी कार्यप्रणाली से जाति को निकालना एक असंभव कार्य है। राजद ने लंबे समय तक मुस्लिम+यादव (MY) गठबंधन बना कर सत्ता की मलाई खाई। जदयू ‘लव-कुश’ (कुर्मी-कोइरी) के जरिए राजनीति करती रही। ऐसे में इन्होंने अपने वोट बैंकों को समझने और उस पर मंथन करने के लिए जातिगत जनगणना करवाई। अब ये उसी हिसाब से तुष्टिकरण का खेल खेलेंगे, अपना वोट बैंक मजबूत करेंगे।

हिन्दुओं को बाँटने के लिए जाति आधारित जनगणना की साजिश

जाति आधारित जनगणना करने का एक दूसरा कारण है हिन्दुओं को बाँटना। मोदी लहर में जातिवाद की हवा निकल जाती है और 2014 व 2019 में देखा जा चुका है कि सभी जाति के लोगों ने जाति से ऊपर उठ कर नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट दिया। बिहार में भी ऐसा ही हुआ, तभी 2014 में राजद-जदयू और 2019 में राजद की हवा निकल गई। ये पार्टियाँ इससे निपटने का कोई रास्ता खोज रही थीं और इन्होंने जाति आधारित जनगणना को हिन्दुओं को विभाजित करने के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है।

ये अब विभाजनकारी राजनीति पर उतर आए हैं। ऐसा नहीं है कि मुस्लिमों में जातियाँ नहीं हैं, लेकिन मुस्लिम समाज में जाति को लेकर कभी उस तरह की लड़ाई नहीं देखी गई जो हिन्दुओं का इतिहास रहा है। इसीलिए, जातिगत जनगणना से हिन्दुओं को ही बाँटने का खेल खेला गया है, ये स्पष्ट है। मुस्लिमों की प्रमुख जातियों में शेख 3.82%, अंसारी 3.54%, सुरजापुरी 1.87% और दुनिया 1.43% हैं। लेकिन, इसकी कोई संभावना नहीं है कि मुस्लिम जाति के आधार पर बँटेंगे, खासकर बिहार में।

सवाल तो ये भी पूछा जा सकता है कि राज्य में पिछले 33 वर्षों से उन्हीं नेताओं का शासन है जो आज जातिगत जनगणना की बातें कर रहे हैं, फिर आखिर राज्य इतना पीछे कैसे रह गया? जातियाँ इतने पीछे क्यों रह गईं? पिछले 33 वर्षों के ‘सामाजिक न्याय’ का क्या असर हुआ? 33 वर्ष एक लंबा समय होता है। अगर इसमें सब कुछ ठीक नहीं हुआ तो क्या गारंटी है कि इन सत्ताधारी दलों के नए पैंतरों से सब कुछ ठीक हो जाएगा? सत्ता तो साढ़े 3 दशक से इनके हाथ में है, अब तक इन्होंने जो किया उसके कोई सकारात्मक परिणाम हैं इनके पास गिनाने को?

आप राहुल गाँधी का ट्वीट देखिए तो सब कुछ साफ़ हो जाता है। उन्होंने लिखा कि बिहार में ‘OBC + SC + ST’ की जनसंख्या 84% है। उन्होंने इसका खास ख्याल रखा कि हिन्दुओं की जनसंख्या न बताई जाए, न ही ये शब्द इस्तेमाल किया जाए। राहुल गाँधी ने ‘जितनी आबादी, उतना हक़’ को कॉन्ग्रेस का प्रण करार दिया। अब कई मुस्लिम ये पूछ रहे हैं कि आबादी में उनकी हिस्सेदारी 18% होने के बाद संसाधनों और पदों पर उनकी हिस्सेदारी की बात कोई क्यों नहीं कर रहा?

जातिगत जनगणना के सहारे सोशल मीडिया में ज़हर बोने की राजनीति

भाजपा के लिए आईटी सेल-आईटी सेल चिल्लाने वाले नेताओं को सोशल मीडिया पर उतर कर देखना चाहिए कि आखिर IT सेल होता क्या है। जैसे ही जाति आधारित जनगणना के आँकड़े सार्वजनिक किए गए, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को मसीहा बताने वाले ट्वीट्स की बौछार हो गई। यहाँ आइए हम कुछ ऐसे हैंडलों को देखते हैं जिन्होंने इसे ऐसे पेश किया जैसे बिहार में एक नई ‘सिलिकॉन वैली’ बन गई हो, जहाँ बड़े-बड़े कंपनियों में लाखों लोगों को नौकरियाँ मिल गई हों।

राजद आईटी सेल से जुड़े आलोक चिक्कू ने ‘जियो तेजस्वी’ हैशटैग के साथ ट्रेंड चलाया। उसने सवाल खड़ा किया कि इतनी कम आबादी के बावजूद हर जगह सवर्ण क्यों हैं? उसने ऐलान किया कि अब ‘सामाजिक न्याय होगा’, सदियों से हकमारी कर रहे वर्गों के होश उड़ गए हैं। वैसे लालू यादव और उनके समर्थक भी कहते रहे हैं कि उनके 15 वर्षों के कार्यकाल में ‘सामाजिक न्याय’ हुआ। फिर क्या वो झूठ था? आलोक चिक्कू ने ऐलान किया कि सवर्णों से छीन कर पिछड़ों में सब कुछ बाँटा जाएगा।

इसी तरह खुद को सोशलिस्ट बताने वाले जैकी यादव के ट्वीट्स देखिए, जो भारतीय क्रिकेट टीम के हर मैच के बाद खिलाड़ियों की जाति गिनता है। उसने इन आँकड़ों को ऐतिहासिक बताते हुए इसका पूरा इतिहास गिनाया। उसने ’15 बनाम 85′ का नारा देते हुए धमकाया कि हक़ नहीं दोगे तो OBC अब छीन कर लेगा। उसने अपने दोस्तों को पार्टी भी दी। साथ ही एक ट्वीट डाल कर लिखा कि बर्नोल की बिक्री बढ़ गई है। केंद्र सरकार के सचिवों से लेकर न्यायपालिका तक में सामान्य वर्ग के ज़्यादा लोग होने का रोना भी उसने रोया।

इसी तरह प्रोपेगंडा पत्रकार से RLD नेता बने प्रशांत कनौजिया ने संसाधनों और भूमि पर कब्जा हटाने की बात करते हुए लिखा कि ‘जंग का ऐलान’ हो गया है। राजद के एक अन्य एक्टिविस्ट प्रियांशु कुशवाहा ने बिहार सरकार से विशेष सत्र बुला कर आरक्षण की सीमा बढ़ाने की माँग कर डाली। उसने ’15 में बँटवारा है, 85 भाग हमारा है’ का नारा दिया। जातिवादियों के सरगना दिलीप मंडल ने एससी आरक्षण बढ़ाने पर तत्काल सर्वदलीय सहमति बनाने की माँग करते हुए धमकी भरे अंदाज़ में कहा कि न कोई पार्टी इसका विरोध करेगी, न किसी कोर्ट की हिम्मत होगी इसमें पड़ने की।

आप देखिए कि इन सबका माहौल कैसे बनाया गया। संसद में राजद के मनोज झा ने ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता पढ़ते हुए ‘अंदर के ठाकुर’ को मारने की बात कही। उनकी ही पार्टी के चेतन आनंद ने उनका विरोध किया। इसके बाद बयानों और प्रतिक्रियाओं का सिलसिला चल पड़ा। राजद ने भिखारी ठाकुर और कर्पूरी ठाकुर को ‘असली ठाकुर’ बता कर बीच-बीच में आग में घी डाला। ब्राह्मण बनाम राजपूत की लड़ाई का माहौल बना कर जातिगत जनगणना के आँकड़े सार्वजनिक कर दिए गए।

क्या इन दलों के इन समर्थकों की धमकियों को गंभीरता से लिया जा सकता है? सवाल है – ‘हर छीनने’ या ‘संसाधनों पर से कब्ज़ा हटाने’ से उनका क्या अर्थ है? क्योंकि, शिक्षित और अमीर लोग जिस भी समाज में हैं उनके पास संसाधन हैं। मान लीजिए, अगर कोई स्वर्ण व्यक्ति ही है और उसने अपना पूरा जीवन खपा कर अपनी मेहनत की कमाई से जमीन खरीदी, तो क्या ‘हिस्सेदारी’ और ‘कब्ज़ा हटाने’ के नाम पर उसकी जमीन छीन ली जाएगी? ये तो फिर नब्बे के दशक वाला बिहार हो जाएगा, जहाँ नक्सली खुलेआम नरसंहार करते थे।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
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