इतनी दुर्भावना ले कर ज़िंदा ही क्यों हैं ऐसे लोग? इतनी घृणा ले कर हर दिन कैसे बिता रहे हैं लोग? क्या ये आश्चर्य की बात नहीं है कि आपको समुद्र तट साफ भी चाहिए, और कोई इसे एक जन-अभियान बनाना चाहता है तो आपको दर्द होने लगता है?
मुझे यह कोई समझा दे कि भारत में 'पाकिस्तान मुर्दाबाद' का नारा क्यों नहीं लगेगा? किसी कट्टरपंथी को इस नारे से आपत्ति क्यों है? तुम्हारे सामने अगर कोई 'पाकिस्तान मुर्दाबाद' कहता है, तो तुम इकट्ठा हो कर, पत्थर मारने की जगह 'हिन्दुस्तान जिंदाबाद' क्यों नहीं कहते?
जेएनयू में हजार वोट पाकर विद्यार्थी संघ का वाइस प्रेसिडेंट बनना किसी को यह अधिकार दे देता है कि वो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर सके? इनके हिसाब से वो मुट्ठी भर आतंकी कश्मीर घाटी के लाखों लोगों का भविष्य तय करेंगे क्योंकि उनको 'आजादी' चाहिए।
जब दर्शक बढ़ रहे हैं, उनका जन्म बिलकुल ही अलग समय में हुआ है, तब न्यूज वाले उनके दादा की जवानी के शो क्यों चला रहे हैं? याद कीजिए कि चौबीस घंटे का न्यूज टेलीविजन जब से आया है, आपने न्यूज डिबेट में क्या बदलाव देखे हैं? आपको याद नहीं आएगा।
मैं जब इस समाज का हिस्सा होने के कारण सोचने लगता हूँ तो पाता हूँ कि ये चलता रहेगा क्योंकि मर्दों के दम्भ की सीढ़ी की अंतिम लकड़ी स्त्री पर अपने लिंग के प्रहार के रूप में ही परिणत होती है। पितृसत्ता का विकृत रूप यही है कि लड़की इस क्रूरतम हिंसा के विरोध में इस तरह से अपनी आत्मा को मार चुकी है कि जो करना है कर लो, पर वीडियो मत बनाओ।
एक ही तरह के पोस्ट पर दो नीति अपनाने का अर्थ यह हुआ कि किसी खास संस्था पर इनका काँटा ज्यादा संवेदनशील हो जाता है, और वो भी शायद तब जब किसी खास पहचान वाले लोग एक साथ ऐसी खबरों को रिपोर्ट करते हैं।
क्योंकि चुनाव आने में अभी थोड़ा समय है और बलात्कारी जब अपने ही जात-बिरादरी के हों, तो उनके बारे में लिखने पर क्या पता नरक-वरक जाना पड़ जाए, या कोई पूछ ले कि क्या इसी दिन के लिए अवार्ड दिया था? क्या इसी दिन के लिए तुम्हें भीड़ दे कर खड़ा किया था, तुम्हें नेता बनाया था?