Saturday, July 27, 2024
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अब वो चिल्लाती भी नहीं…

आज हमने समाज में ऐसा क्या कर दिया है कि कई बार लड़कियाँ यह सोचती हैं कि कितना अच्छा होता कि उसकी भ्रूणहत्या कर दी जाती। वो मेट्रो में अपनी कमर पर अजनबी हाथों की थपकी, अपनी छाती पर कोहनी की चुभन, कोने में अपने लिंग पर हाथ फेरते मर्द की आँखों में उपलब्धि के अहसासों से तो बच जाती!

कल रात ट्विटर पर किसी व्यक्ति ने दो ट्वीट में एक घटना से संबंधित दो वीडियो शेयर किए। एक लड़की है जो कुछ लड़कों के साथ है। वो उसे छेड़ रहे हैं, कपड़े उतारने कह रहे हैं, और फिर कपड़े उतार देते हैं, चेहरे पर बार-बार हाथ लगाते हैं। उसके बाद दूसरे वीडियो में एक लड़का उसके साथ दुष्कर्म कर रहा होता है, चार देख रहे होते हैं, पाँचवा वीडियो बना रहा होता है। वो बार-बार, बहुत ही धीमी आवाज में उनके बहन होने की दुहाई दे रही होती है, लड़के हँसते रहते हैं, वीडियो बनाते रहते हैं।

पूरे वीडियो को देख नहीं पाया क्योंकि इस स्थिति के बाद, कोई भी सही व्यक्ति उसे देख नहीं पाएगा। इस वीडियो में कोई हिंसा नहीं, मार-पीट नहीं, प्रतिकार की कोशिश नहीं है, बस है तो एक खत्म होती आवाज जिसे पता है कि वो बच नहीं सकती, उसने स्वयं को जिंदा मार लिया क्योंकि हमने उसे ऐसा समाज दिया है।

ट्वीट में किसी ने उम्मीद से मुझे टैग किया था कि मैं कुछ करूँ। लोग सोचते हैं कि मैं सच में कुछ कर सकता हूँ, जबकि मैं अपनी लाचारी और अपने लड़के होने की शर्मिंदगी के सिवा उस बच्ची को कुछ नहीं दे सकता। मैं लेख लिख सकता हूँ, वो लिख रहा हूँ। इससे क्या हो जाएगा, नहीं मालूम, लेकिन हाँ ऐसी खबरों के सामने आने के बाद यही इच्छा होती है कि दोबारा ऐसी खबर न आए।

बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, बच्ची का बलात्कार, दलित किशोरी का बलात्कार, साल और दो साल की बेजुबान लड़कियों की बलात्कार… हर एक दिन ऐसी खबरें सामने आती हैं। वही मोबाइल किसी के पास है तो ये खबर हम तक पहुँची और चार आरोपित गिरफ्तार हुए और वही मोबाइल है कि उस बच्ची का वीडियो हर जगह घूम रहा होगा। वही मोबाइल है कि उस वीडियो को अब हटाया नहीं जा सकता और कितने मानसिक विक्षिप्तों के पास उनकी यौन हिंसा की इच्छा की तृप्ति के लिए कहीं स्टोर हो गया होगा।

उस लड़की का चेहरा जेहन से चला गया लेकिन उसकी धीमी होती आवाज और उसके प्रतिकार की हद टूटते हुए ‘वीडियो मत बनाओ’ तक पहुँच गई, ये मुझे याद रहा। हमने लड़कियों को कैसा समाज दिया है कि उसके साथ ये सब हो रहा है और वो इतनी डर गई है, या वो इस बात को जान-समझ चुकी है कि इस समाज में उसके लिए बस यही बचा है कि उसे कुछ लड़के बहला कर, दोस्ती का फायदा उठाते हुए, कहीं ले जाएँ और घेर कर उसके साथ…

22 सितंबर को कौशाम्बी की एक दलित बच्ची का सामूहिक बलात्कार हुआ था, उसके बाद रतलाम में वही हुआ और अब राजगीर से यह खबर।

मैं जब इस समाज का हिस्सा होने के कारण सोचने लगता हूँ तो पाता हूँ कि ये चलता रहेगा क्योंकि मर्दों के दम्भ की सीढ़ी की अंतिम लकड़ी स्त्री पर अपने लिंग के प्रहार के रूप में ही परिणत होती है। पितृसत्ता का विकृत रूप यही है कि लड़की इस क्रूरतम हिंसा के विरोध में इस तरह से अपनी आत्मा को मार चुकी है कि जो करना है कर लो, पर वीडियो मत बनाओ।

रुक कर सोचिए कि एक बच्ची ऐसा क्यों कहती है? थम कर देखिए कि हमने ऐसा क्या बना दिया है समाज को कि उस बच्ची के लिए सबसे जरूरी बात उसके शरीर को नोचने वालों की दरिंदगी नहीं, उसका विडियो बनाना हो जाता है। क्या हम सभ्यता के उस बेकार से स्तर पर पहुँच गए हैं जहाँ लड़कियों ने मान लिया है कि बलात्कार तो होना ही है, उसकी वीडियो मत बनाओ!

इस दुष्कर्म का हिस्सा हम और आप नहीं हैं, लेकिन इस पाप का भार तो हम पर ज़रूर है क्योंकि हमने बार-बार, जाने या अनजाने में, स्वयं के पुरुष होने का अहसास अपनी प्रेमिकाओं को, पत्नियों को, दोस्तों को कराया है। उसने सहा है क्योंकि उस कार्य के बाहर आप एक संवेदनशील इनसान होते हैं, जो उसे हर तरह की खुशी देने का वादा भी करते हैं, देते भी हैं।

लेकिन यौन कुंठा बिस्तरों पर हमारे भीतर के हिंसक भावों को साक्षात बना देता है। वो जो हमारे साथ होती है, वो जानती है कि ये कुछ मिनटों की दरिंदगी है, जो अभी खत्म हो जाएगी। मर्दानगी के साथ पावर की जो अनुभूति होती है, वो एक कंकाल-सदृश मर्द के भीतर भी होती है। वो सेक्स भी करता है तो वो सामने वाले के ऊपर आनंद से ज़्यादा अपने पावर का इस्तेमाल करता दिखता है।

वो उन क्षणों की निर्मलता को ग्रहण करने की जगह इस फ़िराक़ में होता है कि उसके भीतर का जानवर उस लड़की या स्त्री पर कैसे अपना प्रभाव छोड़े। हम सेक्स नहीं करते, हम बता रहे होते हैं कि हम कितनी शक्ति समेटे हुए हैं और हमारी सारी शक्ति की पूर्णता एक स्त्री की योनि पर प्रहार करने से प्रदर्शित होती है। बिस्तर पर हम कितने वहशी है, वो हमारी प्रेमिकाएँ जानती हैं।

हम क्या करें, कहाँ जाएँ और किसे कोसें? ये सामाजिक बीमारी है, जो हर समाज में है। इस पर राजनीति जितनी करनी है, कर ली जाए, खत्म हो जाए सारी राजनीति, फिर इस पर भी चर्चा हो कि आज हमने समाज में ऐसा क्या कर दिया है कि कई बार लड़कियाँ यह सोचती हैं कि कितना अच्छा होता कि उसकी भ्रूणहत्या कर दी जाती। वो मेट्रो में अपनी कमर पर अजनबी हाथों की थपकी, अपनी छाती पर कोहनी की चुभन, कोने में अपने लिंग पर हाथ फेरते मर्द की आँखों में उपलब्धि के अहसासों से तो बच जाती!

ऐसी घटनाओं के बाद आपके भीतर का इनसान मर जाता है क्योंकि ये इतनी बार होता है, इतने विकृत तरीकों से होता है कि आपकी संवेदना का होना या न होना, मायने नहीं रखता। आप सोचिए कि वो बच्ची चिल्ला भी नहीं रही थी, बस बोल रही थी कि वो दरिंदे ऐसा न करें। लड़के हँस रहे थे क्योंकि वो जानते थे कि वो ऐसा कर सकते हैं और उन्हें वही समाज ऐसे देखेगा जैसे कोई बड़ा काम किया है।

पीड़िता कितनी मौतें मरती है, ये एक मर्द समझ ही नहीं सकता। तुमने उसके विश्वास की हत्या की, अपने संबंधों की हत्या की, उसके भीतर की लड़की को मार डाला कि वो हाथ-पैर तक नहीं चला पा रही, तुमने उसकी आत्मा को घोंट दिया कि वो कहती है वीडियो मत बनाओ… फिर उसे पुलिस स्टेशन जाना होगा, हो सकता है वहाँ कोई विकृत मानसिकता का दारोगा होगा जो उससे पूछेगा कि पूरी बात बताओ, वो उसमें भी मजे लेगा, दोबारा पूछेगा। वो उसे समझाएगा, वो उसे बेटी भी कहेगा और फिर बताएगा कि उसका हर बात को, जैसे-जैसे, जो-जो हुआ, वो विस्तार से बताए ताकि वो उसे न्याय दिला सके।

वो वहाँ एक बार फिर मर जाएगी। फिर शायद इन आरोपितों को बेल मिल जाएगा। वो उसी गाँव में रहेंगे, उसी लड़की को आते-जाते देख फब्तियाँ कसेंगे, उसे याद दिलाएँगे कि उन्होंने जो किया, वो दोबारा करेंगे। फिर खबरों में एक और खबर जुड़ेगी कि उस बच्ची ने तंग आ कर आत्महत्या कर ली।

सोचिए कि हमने समाज को क्या बना दिया है कि अब वो चिल्लाती भी नहीं…

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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