ये उस विजय गाथा की दास्तान है जिसकी शुरुआत 3 दिसम्बर 1971 को हुई थी और जिसका अंत 16 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान की करारी हार के साथ हुआ। उस दिन के बाद से हर साल हम इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं। ये सिर्फ भारत की ही विजय नहीं थी बल्कि पकिस्तानी हुकूमत और सेना द्वारा पूर्वी पकिस्तान के लोगों पर किये जा रहे क्रूर अत्याचार का अंत भी था। इस युद्ध के बाद पूर्वी पकिस्तान आजाद हुआ जिसे आज हम बंगलादेश के नाम से जानते हैं। कुल 93000 पाकिस्तानी सैनिकों के भारतीय सेना के समक्ष बिना शर्त समर्थन के साथ ख़तम हुए इस युद्ध ने दुनिया का नक्शा बदल दिया था। ये भारतीय सेना के पराक्रम, भारत सरकार की इक्षाशक्ति और पूर्वी पकिस्तान के लोगों के साहस की कहानी है। आइये जानते हैं कि 1971 में भारत और पकिस्तान के बीच हुए इस युद्ध के बारे में।
सबसे पहले बात करते हैं मृत्युंजय देवव्रत की 2014 में आई फिल्म “चिल्ड्रेन ऑफ़ वार” के एक दृश्य से जिसमे एक वीरान और अन्धकार भरी जगह पर एक ट्रक आकर रूकती है। उस ट्रक से सैकड़ों अधमरी सी महिलाओं को उतारा जाता है जिन्हें एक दूसरे से बाँध कर रखा गया है। ये एक दिल दहला देने वाला चित्रण था। लेकिन इसके आगे जो होता है वो पाकिस्तानी सेना का एक ऐसा चेहरा बेनकाब करता है जिस से ज्यादा वीभत्स और नृशंस शायद ही कुछ हो। उन महिलाओं को अलग-अलग उम्र के समूह में बाँट कर ये सुनिश्चित कर लिया जाता है कि उनमे से कौन सी महिलाएं बच्चों को जन्म देने के लायक है। जो इस काम में अयोग्य लगे उनकी तत्काल गोली मार कर हत्या कर दी जाती है और बाँकियों पाकिस्तानी सेना के कमांडर के हुक्म से बलात्कार किया जाता है। उनकी सोंच ये होती है कि इस घिनौने कृत्य द्वारा पूर्वी पकिस्तान में ऐसे बच्चे पैदा किये जाये जो आगे जाकर पाकिस्तानी हुकूमत और सेना के वफादार बने।
ये कोई कोरी कल्पना पर आधारित दृश्य नहीं था। ये कोई फिक्शन नहीं था। इस दृश्य द्वारा 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा पूर्वी पकिस्तान के लोगों पर किये जा रहे नृशंस अत्याचार की बस एक झलक भर पेश की गई थी। ये एक ऐसी सच्चाई का चित्रण था जिसे कोई सपने में सोंच कर भी डर जाये। काहा जाता है कि इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना द्वारा लगभग चार लाख से भी ज्यादा औरतों का बलात्कार किया गया था। इस अत्याचार ने पूर्वी पकिस्तान में मुक्ति वाहिनी को जन्म दिया जिससे आजादी के लिए संघर्ष का एक नया दौर शुरू हुआ। भारत की इन घटनाओं पर कड़ी नजर थी और पूर्वी पाकितान के स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं द्वारा भारत से मदद की अपील करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने सेना प्रमुख सैम मानेकशॉ से इस मामले में भारतीय हस्तक्षेप को लेकर राय मांगा। स्वराज्य में सैयद अता हुसैन के एक लेख के अनुसार तब सेना प्रमुख मानेकशॉ ने श्रीमती गाँधी को सितम्बर तक इन्तजार करने का सुझाव दिया क्योंकि तब तक हिमालय से निकलनेवाली नदियों में पानी के भरी बहाव की वजह से पकिस्तानी सेना भारतीय क्षेत्रों में आक्रमण करने में अक्षम होगी और तब तक बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी द्वारा छेड़े गये संघर्ष की वजह से वहां की सरकार और सेना- दोनों ही कमजोर हो चुकी होगी। आखिरकार 1971 के दिसंबर महीने में ऑपरेशन चंगेज खान के जरिए भारत के 11 एयरबेसों पर हमला कर दिया जिसके बाद 3 दिसंबर 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की शुरुआत हुई।
आज के दिन पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने 93000 पाकिस्तानी सैनिकों के भारतीय सेना के समक्ष एकतरफा और बिना शर्त आत्मसमर्पण वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया। उस समय बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का नेतृत्व भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा कर रहे थे। नियाजी ने अपने बिल्ले को उतार कर और प्रतीक स्वरूप अपनी रिवॉल्वर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा को सौंप कर आत्मसमर्पण की घोषणा की। इस युद्ध में बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के 3843 जवान शहीद हुए जिसमे भारतीय और बंगलादेशी शामिल थे। ढाका का रमना रेस कोर्स जो अब सुहरावर्दी उद्यान के नाम से जाना जाता है, इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बना।
तब से आज का दिन हर साल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है और इस युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को श्रधांजलि अर्पित की जाती है। तीनों सेनाओं के अध्यक्ष हर साल इंडिया गेट पर स्थित अमर जवान ज्योति पर एकत्रित होते हैं और आधिकारिक रूप से शहीदों को श्रधांजलि दी जाती है।