जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं वैसे-वैसे कॉन्ग्रेस पार्टी अपने नए-नए चुनावी तरीक़े इस्तेमाल में ला रही है। अभी-अभी राजनीति में क़दम रखने वाली प्रियंका गाँधी वाड्रा को शायद फूँक-फूँक कर पाँव रखने के निर्देश दिए जा रहे हैं, जिन्हें वो बख़ूबी निभा भी रही हैं।
जानकारी के मुताबिक शुक्रवार (8 फ़रवरी 2019) को कॉन्ग्रेस की आधिकारिक बैठक में शामिल होने पहुँची प्रियंका गाँधी की सीट राहुल गाँधी के साइड में आवंटित न करके थोड़ा अगल की गई क्योंकि उस समय राहुल के साइड वाली सीट पर ज्योतिरादित्य सिंधिया बैठे थे। जब इस बात पर ग़ौर किया गया तो जो बात सामने आई वो हैरान कर देने जैसी थी।
ऐसा इसलिए किया गया ताकि पार्टी के अन्य सदस्यों के बीच यह संदेश जा सके कि कॉन्ग्रेस के लिए जितनी महत्वपूर्ण प्रियंका गाँधी हैं, उतने ही महत्वपूर्ण बाक़ी सब सदस्य भी हैं। बैठने की सीट पर किए गए इस मंथन को अगर राजनीतिक स्टंट ही कहा जाए तो बेहतर है।
चूँकि अभी प्रियंका गाँधी का राजनीतिक क़द बहुत छोटा है इसलिए उन्हें अधिक तवज्ज़ो देना तो वैसे भी किसी मायने में फिट नहीं बैठता। सबको एक बराबर दिखाने की भला ऐसी भी क्या नौबत आन पड़ी, ये सोचने वाली बात है। अनुमान तो यही लगाया जा सकता है कि शायद आज बरसों बाद कॉन्ग्रेस पार्टी अपनी वंशवाद की राजनीतिक छवि से ऊपर उठने का प्रयास कर रही है।
सवाल यह है कि क्या केवल इतने भर से कॉन्ग्रेस पार्टी अपनी बरसों पुरानी परिवारवाद की छवि को मिटाने में सफल हो सकती है? वैसे यह इतिहास रहा है कि राजनेताओं के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर बनने की बजाए राजनीति को ही अपना करियर बनाते हैं। इसमें कोई नई बात तो नहीं है, लेकिन प्रियंका का राजनीति में क़दम रखना आए दिन तरह-तरह के अजीबो-गरीब इतिहास रचने की फ़िराक में रहता है।
सही मायने में तो अगर कहा जाए कि आज भी कॉन्ग्रेस अपने परिवारवाद के परंपरागत तरीक़े से निकल नहीं पाई है तो कहना ग़लत नहीं होगा। क्योंकि ऐसे तमाम अवसर हैं, जहाँ कॉन्ग्रेस ने अपनी पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं के बच्चों के राजनीतिक करियर को सँवारने की ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर ली। परिवारवाद के साये में फलती-फूलती कॉन्ग्रेस भला और कर भी क्या सकती थी। प्रियंका गाँधी की सीट का आवंटन इस ओर भी इशारा करता है कि कहीं न कहीं कॉन्ग्रेस को ख़ुद भी यह एहसास होता है कि वो वंशवादी परंपरा को आज भी जीवित रखे हुए है, जिसे दुनिया की नज़र से धूमिल करना होगा अन्यथा इसका ख़ामियाज़ा आने वाले समय में भुगतना पड़ेगा। फ़िलहाल कॉन्ग्रेस अपनी साम, दाम, दंड की हर नीति अपनाने में व्यस्त है जिससे पार्टी सत्ता में वापसी का रास्ता बना सके।
कॉन्ग्रेस खेमे में पूर्व नेताओं की संतानें हैं, जिनके राजनीतिक करियर को पंख इसी पार्टी ने दिए। ऐसे में क्या यह सवाल नहीं उठ खड़ा होता कि जो पार्टी ख़ुद परिवारवाद की राजनीति करती आई हो, वो पूर्व नेताओं की संतानों के राजनीतिक भविष्य को सँवारने का काम तो नहीं करने लगी?
कॉन्ग्रेस द्वारा जिनका भविष्य चमकाया गया उनमें कुँवर नटवर सिंह के बेटे जगत सिंह, दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह, कमलनाथ के बेटे नकुल नाथ, राजेश पायलेट के बेटे सचिन पायलेट, नवीन जिंदल जैसे कई नाम शामिल हैं जिन्होंने अपनी वंशवादी परंपरा को ज़िंदा रखा।
वैसे तो प्रियंका गाँधी के लिए राजनीति कोई नई बात नहीं है फिर पार्टी बैठक में सीट का आवंटन कॉन्ग्रेस की विचारधारा को स्पष्ट करता है। यह तो तय है कि प्रियंका गाँधी के बैठने के स्थान का निर्धारण पहले से ही तय रहा होगा, अब चाहे इस निर्धारण के पीछे राहुल गाँधी का हाथ रहा हो या सोनिया गाँधी का इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है।
राजनीति में प्रियंका गाँधी की एंट्री के साथ ही कई मुद्दों को भी हवा मिल गई। उनके सौन्दर्य से लेकर वाड्रा को ईडी कार्यालय तक छोड़ना और उन्हें वापस लाना। इन दिनों प्रियंका गाँधी को इस तरह से पेश किया गया जैसे भारतीय महिलाओं में इकलौती वो ही आदर्श महिला हैं, उदाहरण के लिए उनका पत्नी-रूप इन दिनों काफ़ी फेमस है। इसके बाद बारी आती है उनकी शक्ल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी (उनकी दादी) से मिलने-जुलने की। उनकी दादी से हूबहू मिलती-जुलती शक्ल कई दिनों तक सोशल मीडिया पर छाया रहा। मतलब ये कि किसी न किसी बहाने से ही सही लेकिन मुख्यधारा की मीडिया को मौक़ा तो मिल ही जाता है, जिसपर वो ख़बर बना डालते हैं। इस बात का सबूत तो रोज़ाना मिल ही जाता है।
वहीं अगर बात करें बीजेपी की तो शुरूआत करते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से। उनके बारे में जगज़ाहिर है कि वो किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आते। उनका और उनके परिवार का राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। यह बात अलग है कि देशहित उन्हें राजनीति में ले आया। इस देशहित में पत्नी मोह भी उनके आड़े नहीं आया। बीजेपी के अन्य नेताओं पर भी अगर नज़र डाली जाए तो राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखने वालों की सँख्या न के बराबर या बहुत कम होगी।
कॉन्ग्रेस के लिए अब भी यह सोचने का वक़्त है कि केवल सीट का स्थान बदल लेने भर से परिवारवाद का ठप्पा नहीं हटता बल्कि उसके लिए कड़े फ़ैसले भी लेने पड़ते हैं। इसके लिए पारिवारिक स्वार्थों की आहुतियाँ देनी पड़ती हैं, और इनके लिए कॉन्ग्रेस न पहले कभी सहज थी और न अब। यदि ऐसा होता तो कॉन्ग्रेस का दामन इतने सारे क़द्दावर नेता कभी न छोड़ते।
इन नेताओं में जीके वासन, विजय बहुगुणा,रीता बहुगुणा जोशी, कृष्णा तीरथ, हरक सिंह रावत, यशपाल आर्या, चौधरी बीरेंद्र सिंह, दत्ता मेघा, जगमीत सिंह बरार, अवतार सिंह भड़ाना, रंजीत देशमुख, मंगत राम शर्मा जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इन नेताओं ने अपने हिस्से की ज़मीन न मिलते देख पार्टी से अपना नाता तोड़ना उचित समझा।
अंत में यही कहना सटीक लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कॉन्ग्रेस की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं, जिस पर समय रहते सोचा नहीं गया तो भावी परिणाम निश्चित रूप से उसके ख़िलाफ़ हो सकते हैं। इस पर कॉन्ग्रेस को अभी और गहन मंथन की आवश्यकता है।