मोदी की भीमकाय जीत से शायद विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने सबक ले लिया है (शायद इसीलिए अब तक किसी ‘सेक्युलर’ पार्टी ने इफ्तार पार्टी नहीं दी है), लेकिन द वायर जैसे प्रपोगंडाबाजों ने न सुधरने की कसम खा रखी है। पहले पाँच साल न केवल यह समाचार प्रपोगंडा पोर्टल मोदी को गाली देता रहा बल्कि लोगों को यह भी फुसफुसाता-उकसाता रहा कि भाजपा और मोदी को वोट देने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। हिन्दुओं पर जब इसका असर नहीं हुआ, और भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापिस है, तो अब यही सोशल मॉब-लिंचिंग मोदी-समर्थकों की करने की कोशिश हो रही है ताकि उन्हें चुप कराया जा सके, और समुदाय विशेष को डराना बदस्तूर जारी रहे।
वह महिलाएँ केवल अपनी नहीं, कम-से-कम समुदाय के 70,000 लोगों की प्रतिनिधि हैं
द वायर के इस गंदले प्रपोगंडे में केवल एक बात तथ्य के आधार पर काटे जाने लायक है, और वह उनका यह दावा कि जिन दो महिलाओं पर उन्होंने यह लेख लिखा, वह अपने अलावा समुदाय के वाराणसी के किसी आदमी की नुमाइंदगी नहीं करतीं। इसका जवाब यूँ दिया जा सकता है:
बनारस में इस बार कुल 10 लाख के करीब वोट पड़े, जिसमें से 6.74 लाख मोदी के खाते में गए। बनारस में समुदाय विशेष का जनसांख्यिक अनुपात करीब 30 प्रतिशत है। यानि वोट देने वालों में लगभग तीन लाख मजहब विशेष से थे। अब, लोकसभा निर्वाचन की घोषणा के पहले, लोकनीति-सीएसडीएस ने एक सर्वेक्षण किया था जिसमें समुदाय के 26 प्रतिशत लोगों ने मोदी सरकार को एक और कार्यकाल दिए जाने से सहमति जताई थी। इसे अगर बनारस की समुदाय विशेष की संख्या पर लागू करें तो कम-से-कम 70,000 की संख्या बनती है मजहब के मोदी-समर्थकों की। यानि वह महिलाएँ 70,000 लोगों की नुमाइंदगी कर रहीं थीं।
और सत्तर हजार लोगों की नुमाइंदगी को, उनकी आवाज़ और उनके मत को सिरे से ख़ारिज करने के लिए वायर केवल समुदाय के दो लोगों की बात सामने रखता है, और उसके आधार हेडलाइन बना देता है कि यह दो मोदी-समर्थक मजहबी महिलाएँ मीडिया का बनाया शिगूफा हैं। लेकिन बात केवल 70,000 बनाम 2 जितनी सीधी नहीं है। अगर लेख को पढ़ेंगे- और सरसरी निगाह की बजाय ध्यान से पढ़ेंगे, तो पंक्तियों के बीच में स्टॉकिंग, धमकी, सब दिखेंगे, ‘फैक्ट्स’ के आवरण में, धमकियों की तलवार subtext में लिए।
खोजी पत्रकारिता के नाम पर स्टॉकिंग
यह सच है कि कई बार खोजी पत्रकारिता और किसी के निजी जीवन में बेजा ताक-झाँक में अंतर बताना मुश्किल हो जाता है, लेकिन द वायर इस लाइन के इर्द-गिर्द नहीं टहलता, बल्कि मर्यादा की सीमा तोड़कर मीलों आगे निकल जाता है। शुरुआत होती है ANI के वीडियो में दिखाई जा रही दो महिलाओं के वर्णन से, जो भाजपा की मजहब विशेष में सुधारवादी नीतियों का बखान करतीं दिखीं थीं मार्च 2017 में। और फिर वायर उनके एक-एक ‘पाप’, जैसे ट्रिपल तलाक से बचने के लिए हनुमान चालीसा पढ़ना, मोदी के लिए राखी बनाना, राम आरती करना, आदि का ‘कच्चा चिट्ठा’ खोल के रख देता है।
यही नहीं, बनारस में उनके घर पहुँचने के लिए किस मोहल्ले जाकर किससे पूछना होगा, इसकी भी विस्तृत जानकारी इस आलेख में है। यह पत्रकारिता नहीं है- स्टॉकिंग है। उनके जरिए मोदी का खुल कर समर्थन करने वाले लोग समुदाय में बढ़ रहे तबके को यह चेतावनी है कि संभल जाओ, मुँह बंद कर लो, वरना तुम्हारा भी पता कट्टरपंथियों को दे देंगे। यह ‘डॉक्सिंग’ का ऑफलाइन संस्करण है। इसी आवरण में लिपटी गुंडागर्दी को नंगा करते हुए ANI की सम्पादिका स्मिता प्रकाश ने ट्वीट कर सवाल उठाए, और उन मजहबी महिलाओं के निजी और सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप को ललकारा:
Hilarious..1 website actually deputed journalists to track down Muslims who gave pro-Modi bites to channels&news agencies.If this is not profiling then what is?Journo found Muslims exist &said they did say what they did. Website claims to be liberal& fighting the ‘good fight’!
— Smita Prakash (@smitaprakash) May 25, 2019
नैरेटिव जर्नलिज़्म का दुरुपयोग
कहने को कोई कह सकता है कि यह सब तो मामूली बातें हैं- वह महिलाएँ आख़िरकार समुदाय विशेष के लगभग तीस प्रतिशत लोगों वाले बनारस में रहतीं ही हैं, उनकी गतिविधियाँ आखिर ANI समेत कई समाचार माध्यमों में चल ही रहीं थीं, तो वायर के लिख देने से क्या बदल गया? तो साहब, जवाब होगा कथानक, यानि नैरेटिव। नैरेटिव बदला। अब तक मीडिया में इन महिलाओं की चर्चा हो रही थी सम्मानजनक रूप से, इन्हें प्रशासनिक से लेकर सामाजिक समर्थन प्राप्त था। और इसी ताकत के दम पर न केवल वे मजहब में, समुदाय विशेष में सकारात्मक बदलाव की वाहक बन रहीं थीं बल्कि उनकी बढ़ती सामाजिक शक्ति और प्रभाव को देखते हुए उनसे नहीं जुड़े समुदाय के लोगों में भी यह संदेश जा रहा था कि वक्त बदल गया है, अगर ताकत चाहिए, देश-समाज से लेकर गली-मोहल्ले तक अगर प्रभावशाली बनना है तो आगे की राह कट्टरपंथ और मदरसों से नहीं, आधुनिक शिक्षा और देशभक्ति के चौराहों से होकर गुजरती है। द वायर ने इसके ठीक उल्टा संदेश दिया।
बिना कुछ बोले, तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर ऐसा कपटी ताना-बाना बुना कि पढ़ने पर पहली बारगी में यह महिलाएँ कोई समुदाय विशेष की बच्चियों (और बच्चों) को शिक्षा देने, बाल-मजदूरी और बाल-विवाह से बचाने, ट्रिपल तलाक से लड़ने वाली सुधारक नहीं, भाजपा और संघ के तलवे चाटने वाली कठपुतलियाँ प्रतीत होतीं हैं। यही नैरेटिव जर्नलिज़्म की ताकत है- बिना अपने मुँह से झूठ बोले सामने वाले के मन में अपना एजेंडा बैठा देना, किसी को हिंसा के लिए उकसा देना तो किसी को धमका देना कि जब चाहें ऐसा ही कुछ लिख देंगे कि शहर भर के नाराज मजहबी भीड़ तुम पर टूट पड़ेगी।
लेकिन द वायर यह भूल रहा है कि ‘ये नया भारत है’ केवल एक सियासी नारा भर नहीं है, बल्कि जमीनी हकीकत है- और मोदी को टूट कर मिला वोट इस बदलाव की केवल एक बानगी है। हिन्दू तो अब बदल ही रहा है, बदल गया है बल्कि, और उनमें भी सुधारवादी आवाज़ें, प्रगतिशील आवाज़ें अब वायर द्वारा सामाजिक-बौद्धिक रूप से, और उसके माई-बापों द्वारा आर्थिक रूप से, पाले जाने वाले मुल्ला-मौलवियों, कट्टरपंथियों की गुलामी और नहीं सहेंगी। इस नए भारत में नफरती चिंटुओं और अनर्गल प्रलाप वाली पत्रकारिता नहीं चलेगी, फर्जी भय का नैरेटिव भी नहीं चलेगा, सो बेहतर होगा वायर प्रपोगंडाबाजी छोड़ या तो सच्चाई प्रतिबिम्बित करने वाली पत्रकारिता सीखने की जहमत उठाए, या दुकान समेटने की तैयारी करे- और यह subtext में छुपी धमकी नहीं, नेक नीयत वाली सलाह है।