वाशिंगटन पोस्ट ने जिस तरह से खूँखार वैश्विक आतंकी संगठन आईएसआईएस के प्रमुख सरगना अबू-बकर अल-बगदादी के मारे जाने के बाद उसे इस्लामिक विद्वान बताते हुए उसका गुणगान किया, बीबीसी उससे भी कई क़दम आगे निकल गया। बीबीसी ने बगदादी को ऐसे प्रस्तुत किया, जैसे वो मानव-सेवा के लिए बलिदान हुआ कोई सामाजिक कार्यकर्ता हो। लेकिन नहीं, वो तो कई नृशंस कत्लों का गुनहगार आतंकी था। यह भी कह सकते हैं कि बीबीसी ने बगदादी के मौत के बाद एक तरह से शोक मनाया और उसे ऐसे सम्मान दिया, जैसे वो कोई ऋषि-मुनि रहा हो। बीबीसी ने बार-बार उसके लिए सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया।
अमेरिका के राष्ट्रपति कहते हैं कि बगदादी कुत्ते की मौत मारा गया। ट्रम्प ने बताया कि रोते-चीखते बगदादी की मौत सुरंग में गिरने के बाद हुई। उससे पहले अमेरिकी सेना ने उसका पीछा किया। ट्रम्प ने उसे कायर, अनैतिक, बीमार, क्रूर और हिंसक आतंकी करार दिया। लेकिन, उससे पहले जरा बगदादी के बारे में बीबीसी की भाषा देखिए:
- बगदादी ‘छिपे हुए थे।’
- ‘उन‘ पर निगरानी रखी जा रही थी।
- ‘उनके‘ बार-बार जगह बदलने के कारण इससे पहले रेड नहीं हो सका।
- बगदादी ‘कथित‘ इस्लामिक स्टेट के ‘मुखिया थे‘।
- अप्रैल के एक वीडियो में आईएस ने बताया था कि बगदादी ज़िंदा ‘हैं।’
- 2014 में बगदादी पहली बार ‘दिखे थे।’
- बगदादी अंतर्मुखी ‘थे।’
- मई 2017 में वह ज़ख़्मी ‘हो गए थे।’
- बगदादी 2010 में आईएसआईएस के ‘नेता बने थे।’
- दुनिया ‘उन्हें‘ अल-बगदादी के नाम से जानती थी।
- बगदादी का परिवार ‘धर्मनिष्ठ‘ था।
- बगदादी कंठस्थ करने के लिए ‘जाने जाते थे।’
- वह रिश्तेदारों को सतर्क नज़र से ‘देखते थे‘ कि इस्लामिक क़ानून का पालन हो रहा है या नहीं।
- वह 2004 में दो पत्नियों व छह बच्चों के साथ ‘रहे।’
- वह बच्चों को क़ुरान ‘पढ़ाते थे।’
- बगदादी फुटबॉल क्लब ‘के स्टार थे।’
- बगदादी हिंसक इस्लामिक मूवमेंट की तरफ़ ‘आकर्षित हो गए।’
- वो क़ैदियों को इस्लाम की शिक्षा ‘देते थे।’
- ‘उन्हें‘ शूरा काउंसिल में शामिल किया गया।
बीबीसी की उपर्युक्त भाषा से लगता है कि उसका कोई अपना मर गया है और वो उसे श्रद्धांजलि दे रहा है। श्रद्धांजलि देते समय जैसे किसी व्यक्ति के अच्छे कार्य गिनाए जाते हैं, वैसे ही लगभग 4 लाख मौतों के लिए जिम्मेदार आतंकी संगठन के सबसे बड़े सरगना की मौत पर बीबीसी ने गिनाया। क्या हजार लाशें गिरा कर कोई एकाध बार फुटबॉल खेल ले तो उसे आतंकी कहा जाएगा या फिर दुनिया को बताया जाएगा कि ‘एक फुटबॉल स्टार नहीं रहा’? हो सकता है बीबीसी को हिंसक इस्लामिक आतंक ‘आकर्षित’ लगता हो लेकिन लाखों जान लेने वाला ये आतंकवाद डरावना है, भयावह है- आकर्षक नहीं।
जम्मू कश्मीर में आम नागरिकों और सुरक्षा बलों को मार रहे आतंकी ‘विद्रोही’ हो जाते हैं, बगदादी ‘एक्टिविस्ट’ अर्थात कार्यकर्ता हो जाता है, लादेन एक अच्छा ‘पिता’ हो जाता है और दाऊद इब्राहिम तो मीडिया के इस वर्ग के लिए बॉलीवुड हीरो से कम है नहीं। आख़िर क्या कारण है कि जब भी किसी आतंकी की मौत हो जाती है तो उसके घर-परिवार को ढूँढ कर यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि उसके पिता एक शिक्षाविद हैं या फिर उसकी माँ कितनी अच्छी हैं या फिर उसका परिवार कितना सरल, शांत और शौम्य है? क्या इन चीजों से कोई फ़र्क़ पड़ता भी है क्या?
हाल ही में कमलेश तिवारी की मौत के बाद लल्लनटॉप जैसे मीडिया पोर्टल ने लिखा कि आरोपितों के पिता के बयान को सुना जाना चाहिए। क्या इससे कमलेश तिवारी वापस आ जाएँगे या फिर उनके पीड़ित परिजनों को न्याय मिल जाएगा? क्या हत्यारोपित का पिता कुछ बोल दे तो उसे पत्थर की लकीर मान लेनी चाहिए? ठीक इसी तरह, बीबीसी आईएसआईएस के सरगना की मौत पर शोक मनाता दिख रहा है और उसे ऐसे सम्मान दे रहा है, जैसे कोई अपने मृत पिता को देता है।
लगे हाथ बीबीसी को मोसुल के उसी ‘पवित्र मस्जिद’ में जाकर बगदादी की आत्मा की शांति के लिए नमाज भी अदा करनी चाहिए, जिसमें वह पहली बार दिखा था। अरे सॉरी, ‘दिखे थे।’ बगदादी की रूह की शांति के लिए बीबीसी को कुछ चील-कौवों को खाना खिलाना चाहिए और हो सके तो गयाजी जाकर तर्पण-अर्पण भी करना चाहिए। लेकिन हाँ, लाखों मृतकों के परिजन दुनिया के सबसे बड़े न्यूज़ नेटवर्क्स में से एक से यह सवाल ज़रूर पूछेंगे कि उनकी बदहाली के जिम्मेदार व्यक्ति का गुणगान कर के उनके जले पर नमक क्यों छिड़का जा रहा है?
यही स्थिति रही तो आश्चर्य नहीं होगा अगर कल को बीबीसी का होमपेज खोलते ही ज़ाकिर नाइक के वीडियो मिलें, जिसमें वह ‘जिहाद’ के लिए मुस्लिम युवकों को भड़काता दिखे। जब आईएसआईएस के सबसे बड़े आतंकी का गुणगान किया जा सकता है, फिर ज़ाकिर नाइक तो बहुत छोटी बात है। सबसे बड़ी बात कि बीबीसी ने इस लेख में ‘कथित इस्लामिक स्टेट’ का प्रयोग किया है। अर्थात, बीबीसी यह मानता ही नहीं है कि इस्लामिक स्टेट नामक कोई आतंकी संगठन इस दुनिया में है भी। बीबीसी का कहना है कि 4-6 लाख लोग यूँ ही हवा में मर गए, उन्हें किसी ने नहीं मारा।
जब आईएसआईएस है ही नहीं तो फिर अमेरिका की सेना सीरिया में पूरी-भाजी तलने गई थी? बीबीसी ने क्षण भर में उन सैनिकों के बलिदानों को भी नकार दिया, जिनकी मौत आईएसआईएस से लड़ते हुए हुई। साथ ही बीबीसी ने भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियों को भी नकार दिया, जिन्होंने पता लगाया था कि केरल सहित भारत के कई हिस्सों से मुस्लिम युवकों ने आईएसआईएस ज्वाइन किया है। आईएसआईएस तो था ही नहीं, है ही नहीं, वो तो ‘कथित आईएसआईएस’ है। हिंसक इस्लामिक क़ानून और हिंसक विचारधारा को बीबीसी ने ऐसे प्रस्तुत किया है, जैसे ये किसी धर्मग्रन्थ का हिस्सा हो।
बीबीसी के लिए यह सब नया नहीं है। यह मीडिया के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जो आतंकियों से सहानुभूति रखता है। यहाँ हमने उसके इस कारनामे को हूबहू आपने सामने रख कर यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे आतंकियों के सम्मान में मीडिया संस्थान झुकते हैं और उसे ऐसे सम्मान देते हैं, जैसे वह लाखों मौतों का गुनहगार न होकर कोई समाजिक कार्यकर्ता हो। अगर भारत में आएँ तो यहाँ नक्सलियों को ऐसे ही ट्रीट किया जाता है, जैसे वो सम्पूर्ण समाज के प्रतिनिधि हों और सरकार से जनता का हक़ माँग रहे हों। भले ही वो लोगों को भड़का कर भीमा-कोरेगाँव हिंसा भड़काते हों, उन्हें महिमामंडित कर के दिखाया जाता है।