रहुलबा के पैंट में अलकतरा की तरह राफ़ेल चिपक गया है और वो चाहे किरासन तेल डाल ले, पेट्रोल डाल ले, लेकिन वो छुटाए नहीं छूटता। जब देह में घोटालों का अलकतरा बाप से लेकर परनाना तक ने डीएनए के स्तर तक घुसा दिया हो तो ‘रोम-रोम’ से भ्रष्टाचार करनेवाले आदमी को फ़्रान्स-फ़्रान्स तक घोटाला ही दिखता है। ख़बर यह है कि हमारे अपने पपुआ ‘ठाकुर’ ने संसद में राफ़ेल सौदे पर चर्चा के दौरान अपने चिरकुट सांसदों की फ़ौज से लोकसभा के अंदर काग़ज़ों के जहाज उड़वाए।
जिस आदमी का काग़ज़ से इतना ही नाता हो कि कभी वो अपनी मम्मा के मनोनीत प्रधानमंत्री के कैबिनेट को डिसीजन के प्रिंट आउट को फाड़ चुका हो, या फिर उसके हवाई जहाज बनाए हों, (या फिर जीभ लगाकर रोल किया हो) उससे राफ़ेल के दामों के गणित पर क्या सवाल करना! जेटली बाबू भी ये सब बेकार की बातों में उलझ जाते हैं कि रहुलबा को बेसिक एरिथमेटिक नहीं आता! ऐ भैबा! उसको तो एरिथमेटिक होता क्या है वो भी नहीं पता होगा।
इसीलिए तो रहुलबा बहुत गुस्सा हो गया! संसद में गुस्सा हो गया कि ये सुमित्रा महाजन उसको बताएगी कि उसको क्या बोलना चाहिए, क्या नहीं? मतलब नेहरू के परनाती, इंदिरा के पोते और राजीव के बेटे को आजकल की स्पीकर बनी महिला बताएगी कि उसको संसद के भीतर कैसा व्यावहारिक करना चाहिए? जिसकी माँ चाभी से चलने वाले रोबोट को प्रधानमंत्री बना चुकी हो, उसे स्पीकर हेडफ़ोन लगाकर आदेश सुनने कहेगी? जिसके परनाना ने संसद बनाया हो, रात के बारह बजे उठकर डेस्टिनी के साथ इंडिया का ट्रिस्ट कराया हो, उस आदमी को संसद में कैसे और क्या बोलना है, वो बात दस साल सत्ता में रही पार्टी की सांसद बताएगी?
इसी को रहुलबा घोर कलजुग कहता है काहे कि डिम्पल वाले हंस को दाना-पानी चुगने कह दिया और ये कौआ सब मोती खा रिया है! जिसका बचपन इसी संसद में बोफ़ोर्स के मॉडल की चटनी चाटते बीता है, उस चिरयुवा व्यक्ति को बताया जाएगा कि संसद में पेपर प्लेन उड़ाना ग़लत है! वो काहे नहीं उड़ाएगा प्लेन? बचपन से उड़ाया है, अब तो जवान हुए हैं, संसद में परिवार है, घर का मामला है, तो पेपर मोड़ कर प्लेन नहीं बना सकते? “आपको मज़ा नहीं आया? अच्छा, मज़ा आया? तो आप भी उड़ा लीजिए प्लेन! ऐसे मोड़कर बना लीजिए न प्लेन! मैं वही मज़ा आपको देना चाहता हूँ जो एक बार महिलाओं को देना चाह रहा था।”
जिस परिवार के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट का जज कौन बनेगा ये तय होता था, उस परिवार का छोना बाबू सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन को सही मानेगा? रहुलबा का माइंड इज़ इक्वल टू ब्लोन हो गया जब गोगोई ने बंद लिफ़ाफ़े में राफ़ेल के दस्तावेज मँगाए और कह दिया कि सब सही है। हैं! सब सही कैसे है, रहुलबा कह रहा है कि गलत है, तो गलत है।
महीनों की मेहनत, फ़्रान्स के अनाम पोर्टल को बहलाकर, ओलांद से कहवाकर, इतना इलेबोरेट झूठ बुना था चाटुकारों ने, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने गुड़गोबर कर दिया। इस मामले में एक्के बात बुझाता है और वो ये है कि कॉन्ग्रेस को घोटाले करने का अनुभव तो है, लेकिन जब न किया हो तो मैनुफै़क्चर करने का बिलकुल नहीं। पहले कभी ज़रूरत नहीं हुई, और प्रैक्टिस करने से बेहतर घोटाला ही कर लेना इनकी हर सरकार का हॉलमार्क रहा है, तो ठीक से ताना-बाना बुन नहीं पाए।
बात भी सही है कि जब पूरा ध्यान घोटाला करने और उससे बाल-बाल बच जाने पर हो, और मगज में ये गर्मी कि हम कभी सत्ता से बाहर नहीं होंगे, उसको चौवालीस कर देना, ठीक बात थोड़े ही है। अब ऐसी स्थिति में नया स्किलसेट डेवलप करना पड़ा रहा है। मोदी डिजिटल इंडिया ले आया और अम्बानी जियो, उसका अलग ही टंटा है। हर आदमी को थोड़ा सर्च करने पर काम का मैटेरियल मिलिए जाता है।
पपुआ के बर्तन वाले जीजू से लेकर बोफ़ोर्स वाले अब्बू, इमरजेन्सी वाली दादी और जीप वाले नाना तक ने ऐसे कांड किए हैं कि पार्टी कार्यकर्ता तक मुख्यालयों की हवा सूँघकर ही करप्ट हो जाता है। ऐसे में दिन-रात वहीं बिताने वाली लीडरशिप जन्मजात अनुभव के साथ आती है, और घोटाले तो बस नैसर्गिक रूप से हो जाते हैं।
जब ये कहते हैं कि इन्होंने व्हीलचेयर से लेकर कोयला, स्पैक्ट्रम, कॉमनवेल्थ और अगस्ता वैस्टलैंड के हेलिकॉप्टर तक घोटाला नहीं किया, तो आप मानिए कि वो बिलकुल सही कह रहे हैं। क्योंकि इनकी ख़ून में घोटाले के इतने तत्व घुल चुके हैं कि इन्हें ‘करना’ नहीं पड़ता, वो बस ‘हो’ जाते हैं। यही कारण है कि ये लोग अपने घोटाले को, अगस्ता वाले हेलिकॉप्टर और ‘HAL को कॉन्ट्रैक्ट क्यों नहीं दिया’ को आसानी से भूल जाते हैं क्योंकि इन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि ये जो कर रहे हैं, वो घोटाला है।
मतलब देखिए आप, अपने आस-पास कॉन्ग्रेसी सरकारों की लाई गई परम्परा को निहारिए तो पाएँगे कि चपरासी को सौ रुपए देकर ‘आवासीय प्रमाण पत्र’ बनवाने से लेकर, पासपोर्ट के लिए तिमारपुर के पुलिसवाले को 1000 रूपए देने तक, आप झिझकते भी नहीं, क्योंकि आईआईटी ही नहीं भ्रष्टाचार के घूमते-फिरते संस्थान भी तो इनके परनाना ने ही दिए हैं, जो कि आपको कभी भी आउट ऑफ़ प्लेस नहीं लगेंगे। आप अपने दोस्तों को कहेंगे, तो वो उल्टे आपको कह देंगे कि ‘इतना तो चलता है’। ये एटीट्यूड बाय डिफ़ॉल्ट भारतीय जनता में भर देना, कम्प्यूटर लाने से कम थोड़े ही है!
कम्प्यूटर इनके बाप ने दिया, आईआईटी इनके परनाना, और ‘इमरजेन्सी’ में ‘पावर’ ले गई इनकी दादी, तो चपरासियों की ऊपरी कमाई के इस नायाब स्टार्टअप का ज़िम्मा भी तो उन्हें ही लेना होगा ना? अब ऐसे में घोटाला न कर पाने का ‘विथड्राअल सिम्पटम’ तो दिखेगा ही कॉन्ग्रेसियों में। ‘यार चार साल हो गए यार! घोटाला नहीं किया यार…’ की फ़ीलिंग कितनी मजबूर कर देती है इन्सान को, इसका उदाहरण कॉन्ग्रेस और राफ़ेल को लेकर उनके प्रेम से दिखता है।
चोर वाली प्रवृत्ति हो, और ऐसे माहौल में पले-बढ़ें हों जहाँ आपके शरीर के हर मॉलीक्यूल घोटालों की कोवेलेंट बॉन्डिंग से बने हुए हों, तो फिर लगता है कि सबको चोर बताकर अपने आप को नॉर्मल बता पाना ज़्यादा सही रहेगा। इसीलिए पपुआ कभी भी अपने पप्पा या पार्टी के पापों का ज़िक्र नहीं करता क्योंकि उसको लगता होगा कि घोटाला तो नॉर्मल-सी बात है, जो नहीं करते वो एब्नॉर्मल हैं।
इसी चक्कर में उसको विश्वास ही नहीं हो रहा है कि रक्षा क्षेत्र में सौदा हो गया और घोटाला हुआ ही न हो। बात सही या गलत की है ही नहीं, बात है कि किसी का विश्वास सरकारों के घोटाला करने की प्रवृत्ति में इतना प्रगाढ़ हो तो उसके लिए भ्रष्टाचार से दूर रहने वाली सरकार के अस्तित्व में होने की संभावना पर खुद को समझा पाना अत्यंत कठिन हो जाता है। वो तो यही कहेगा, “अबे चल! सरकार घोटाला नहीं करेगी… मतलब कुछ भी बोलेगा!”
इसीलिए, डिम्पल पड़नेवाले क्यूट आदमी का शातिर होना मुझे तो बिलकुल सही अवधारणा नहीं लगती। इतना क्यूट आदमी, जो पार्टी का अध्यक्ष होकर संसद में काग़ज़ के हवाई जहाज उड़वा देता हो, मैडम को सर बोल देता है, चार सवाल के बारे में ट्वीट करता हो और तीसरा लिखना ही भूल जाता हो, वो रहुलबा, हमारा पपुआ, भले ही कॉन्ग्रेस में जन्मा, लेकिन सोच-समझकर विरोधियों पर हमला करेगा, ये गलत बात है।