कोरोना एकदम संत वाइरस है। बिल्कुल समाजवादी, सेक्युलर। सभी लोगों में बराबर फैलता है। यह किसी के धर्म, जाति, लिंग, विचारधारा या आर्थिक स्थिति के कारण भेदभाव किए बिना सबको हो सकता है। सेक्युलरिज़्म की तरह ही कोरोना पहले उतना ही संवेदनशील था, जितना लोगों ने उसे संवेदनशील समझा, जिसने नहीं समझा उसने नहीं समझा। कुछ लोग पहले दिन से गंभीर दिखे तो कुछ लोगों को लगा कोरोना किसी किताब से निकल कर आ गया है। कुछ ने तो यह घोषित कर दिया कि उनके तथाकथित आंदोलन को दबाने के लिए सरकार ने ही इस रोग का भ्रम फैलाया।
अगर देश मे आंदोलन समाप्त हो जाएँ तो आधे बुद्धिजीवी भूखे ही मर जाएँ, इसलिए उन्होंने इस आपात स्थिति में भी प्रयास किया कि आंदोलन चलता रहे। जब वामपंथी लोगों को पता चला कि कोरोना भारतीय मूल का नहीं है बल्कि उनके पैतृक गाँव चीन से आया है, जहाँ कम्युनिस्ट सरकार है, तो उनको बड़ा अपनापन सा लगा। इसीलिए भारत में विलुप्त होते वामपंथियों ने इसके विरुद्ध कोई आंदोलन वग़ैरह नहीं किया, अन्यथा भारत में कोई घटना बिना वामपंथियों के आंदोलन के कैसे हो सकती है।
लेकिन लॉकडाउन होना था, सो हो गया। हो सकता है विरोध, धरना, प्रदर्शन आदि का आयोजन बाद में कर लिया जाए। दूसरी तरह के जो लोग हैं, वो हैं सेक्युलर लोग। इनके अंदर दो ही चीज़ें होती हैं एक तो गुस्सा और दूसरा नखरा। इनके नखरे न उठाओ तो गुस्सा हो जाते हैं और जब इनको गुस्सा नहीं आ रहा होता तो इनके नखरे चालू रहते हैं। सरकारें इनका नखरा उठाना ही श्रेयस्कर समझती है, क्योंकि गुस्से में तो ये लोग कुछ भी कर सकते हैं।
सरकार अंदर से, और उस अंदर के अंदर से भी सेक्युलर ही है, लेकिन कोरोना भारी पड़ गया। जिन्हें गलती करने पर भी छूना राजनीति में पाप समझा जाता था, उन्हें बिना किसी भेदभाव के खुलकर धोया गया। इससे हमें पता चला कि सरकार चाहे तो क़ानून का राज भी इस देश में चल सकता है। संविधान में पर्याप्त प्रावधान हैं कि देश में अपराधी पकड़े जा सकते हैं। पहली बार पता चला कि सरकार चाहे तो हमारी पुलिस NYPD, FBI से कम नहीं है। एक वेब-सीरीज़ इन पर भी बनाई जा सकती है।
जनता की माँग पर दूरदर्शन ने रामायण का प्रसारण किया तो पता चला कि रामायण को लेकर जितना उत्साह लोगों में है, उतना किसी और कार्यक्रम को लेकर नहीं है। रामायण के पुनः प्रसारण ने दूरदर्शन के दिन बदलने का रास्ता दिखाया है। दूरदर्शन चलाने वाले कितना समझ पाते हैं, यह भविष्य बताएगा। दूरदर्शन पर भूतकाल से वर्तमान में आए कार्यक्रम वास्तव में पारिवारिक मनोरंजन के लिए स्वस्थ और स्वच्छ हैं।
पहली बार पता चला कि बादशाह अकबर के खजांची आजकल संतरे बेच रहे हैं, उनको अकबर के जमाने से नोट गिनने की आदत थी और संतरे गिनते समय भी वी वैसे ही गिनती करते हैं जैसे नोट। बैंक वाले अलग ही परेशन हो गए, पहली बार पता चला कि अगर सरकार खाते में पाँच सौ रुपया डाल दे तो लाल किले और ताजमहल के मालिक-मलकाइन भी लाइन में लगे दिख जाते हैं।
लॉकडाउन के कारण एक और बात पता चली कि निज़ामुद्दीन में सिर्फ़ फाया कुन, फाया कुन नहीं होता, बल्कि एक ‘अमीर’ की स्वघोषित समानांतर सत्ता भी चलती है और उस सत्ता से बात सीधे NSA लेवल पर होती है। आश्चर्य तो तब हुआ, जब पता चला कि इस सत्ता के राजदूत देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं, और तो और विदेशों के भी राजदूत विशेष विषयों पर चर्चा करने सीधे यहीं पहुँचते हैं। सरकार को खबर हो या न हो, जनता को खबर पहली बार लगी कि ऐसा भी कुछ होता है।
कुछ नए शब्द सीखने को मिले, मरकज, तबलीगी, जमात। सरकार ने भी इनके लिए नए शब्द गढ़ दिया – सिंगल सोर्स। पहली बार ऐसा देखने को मिला कि बीमार भाग रहे हैं और डॉक्टर भी इलाज़ करने के लिए उनके पीछे-पीछे भाग रहे हैं। सरकार मुफ्त इलाज करना चाहती है और लोग करवाना नहीं चाहते। किंचित उन्हें लगा हो कि यह सरकार की कोई संजय गाँधी “कनेक्शन कटवाओ रेडियो पाओ” योजना है, इसलिए भाग रहे हों। या फिर लोगों ने इसे ऐसा रोग समझ लिया, जिसे बताने में लज्जा आती हो और लोग रोग को छुपा कर रखने का प्रयास करने लगे।
लेकिन स्वास्थ्यकर्मियों पर हुए पथराव को कोई नहीं समझ पाया। तरह-तरह के मरीज़ सामने आए। कुछ अमानवीय थे – इलाज करने वालों की कुटाई कर डाली। वहीं कुछ मजदूर ऐसे थे कि जहाँ रहे, वहाँ की रंगाई-पुताई कर डाली। कहीं एक मजदूर पैदल अपने गाँव को निकला और भूख से चल बसा और कहीं सरकारी दामाद बने मरीज खाने को नट बोल्ट माँगते दिखे। जिस तरह से हर एक घर, हर एक आदमी का ध्यान रखा गया, मरीजों और उनके संपर्क में आए लोगों को ट्रैक किया गया, उससे यह भी पता चला कि सरकार का तंत्र कितना सशक्त है। लेकिन दूसरी तरफ पालघर की घटना ने यह आइना भी दिखाया कि देश में छोटे-छोटे पाकिस्तान ही नहीं, छोटे-छोटे अबूझमाड़ भी फल-फूल रहे हैं।
‘संकट के समय में राजनीति मत करें’ कहते हुए कुछ राजनेता राजनीति करते रहे। पहली बार पता चला कि केन्द्र सरकार के पास इतने अधिकार तो हैं कि पाकिस्तान में घुस सकती है। लेकिन इतने अधिकार नही हैं कि पश्चिम बंगाल मे घुस सके। पता तो यह भी चला कि भारत से लोग पढ़ने पाकिस्तान भी जाते हैं। क्या पढ़ने जाते हैं, इस बात का खुलासा होना चाहिए। दुनिया में कहीं भी पढ़ने चले जाओ लेकिन पाकिस्तान के पास ऐसा कौन सा पाठ्यक्रम है, जिसके लिए लोग वहाँ चले जाते हैं? इसके बाद कुछ और बड़े वाले लोग पढ़ने के लिए बांग्लादेश भी गए थे। ये और ग़ज़ब की बात थी। लॉकडाउन न हुआ होता तो पता ही नहीं चलता।
यह भी पता चला कि लोग जितनी खरीददारी करते हैं, उतनी खरीददारी की आवश्यकता वास्तव में है नहीं। लोगों की आवश्यकता अब भी रोटी और मकान हैं। जब घर में ही बैठे रहना है तो आदमी कच्छे बनियान में भी जीवन निकाल सकता है। इसलिए कपड़ा प्राथमिकता नहीं है। अदालत में वकील हों तो बात अलग है। दवा ज़रूरी है लेकिन जितनी माँग लोगों ने सरकार से दारू की की, दवा की नहीं की। इससे लोगों की प्राथमिकताओं का पता चलता है।
आईटी सेक्टर ने बिना समय व्यर्थ किए घर से काम करने को सामान्य मान लिया। यह संतोष की बात रही कि देश में कई क्षेत्र ऐसे थे, जिनका काम नहीं रुका। बहुत से सरकारी दफ़्तर भी काम करते रहे। जब भीड़ शहरों से गाँवों की ओर भागी तब डर था कि कहीं कोरोना देहात में न पहुँच जाए, लेकिन गाँवों ने संभाल लिया। लोगों को एक बार फिर यह अहसास हुआ कि गाँव अधिक सुरक्षित और संपन्न हैं, हमारे गाँव इतने सक्षम हैं कि पूरे देश को घर बिठा कर खिला सकते हैं।
मोबाइल बेचकर रोटी खिलाने के दिन हमारे देश को नहीं देखने पड़ेंगे। अब लॉकडाउन कई क्षेत्रों में खुलने वाला है, जीवन पुनः पटरी पर उतरेगा। लेकिन यह अंत नहीं है, अभी कोरोना समाप्त नहीं हुआ है। सरकार अपने स्तर पर लड़ चुकी है, अब लड़ाई में लोगों को प्रत्यक्ष उतरना है। अगले दो से तीन महीने आसान नहीं होने वाले। बस उत्सवधर्मी संस्कृति के संवाहकों से इतनी ही अपेक्षा है कि लॉकडाउन में ढील मिलते ही कोरोना पर विजय का उत्सव न मनाने लगें।