हिंदुओं से आजादी लेने निकला सुलेमान आजकल घर में बैठा है। बाहर मोर्चे पर समीना चच्ची हैं। इस ठंड में भी। रुबिया भाभी भी बच्चों के साथ डेरा डाले बैठी हैं। नीलोफर ने तो हिजाब उतार लिए हैं। आजकल बिंदी भी लगाती है। कभी-कभी मंगलसूत्र भी पहन लेती है। नीलोफर के रंग इतनी तेजी से बदल रहे हैं कि रुबीना कहती है- हिंदू-मुस्लिम का फर्क मिटाने के फेर में पगली किसी दिन मॉंग ही न भर ले! तपाक से नीलोफर कहती है- मैं चाहती हूँ कल को कोई भक्त यह न कहे कि विरोध तो वे कर रहे जिनके अब्बा का दस्तावेज बकरा खा गया!
शाहीनबाग के उस टेंट के नीचे विरोध के जैसे रंग मैंने देखे, ऐसा सतरंगी विरोध सबा नक़ली और इकतरफा ख़ानम (डर के माहौल में बदले हुए नाम) ने भी कभी नहीं देखा था। सबा नक़ली के मन की बात जानने से पहले यह जानते हैं कि इस ‘संघर्ष’ ने आखिरकार असली जमीन पकड़ी कैसे। सत्ता के विरोध के नाम पर स्वास्तिक को कुचलने की क्रांति ने घर की सीमाएँ तोड़ी कैसे?
जिस क्रांति ने पहले सड़कों को जलाया। सार्वजानिक धन की व्यापक हानि कर सरकार, तंत्र और टैक्स भरने वालों का खुलकर मजाक बनाया। फिर वामपंथ के रक्तरंजित इतिहास की झलक दिखाई और बात कश्मीर की आजादी तक पहुँची। कानून के विरोध के नाम पर हिंदू विरोधी नारे लगे। कल ही इस विरोध-प्रदर्शन की एक नई तस्वीर शाहीनबाग से आई। एक पोस्टर में कुछ हिजाब पहने महिलाएँ स्वास्तिक के चिह्न को कुचलते हुए दिखाई गई हैं।
सोशल मीडिया पर ही प्रदर्शन कर रहे लोगों द्वारा ‘किट’ (जिसमें सनस्क्रीन से लेकर पेटीज और पिज़्ज़ा बर्गर तक शामिल हैं) और प्रदर्शन का टाइमटेबल शेयर किया जा रहा है। इस ‘किट’ में विरोध-प्रदर्शन में आने वाली मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला हिजाब लाना भी आवश्यक बताया गया है। विरोध कर रहे इन क्रन्तिबीजों के चेहरे पर हिजाब है और जुबान पर इस्लामिक नारे।
लेकिन, इस क्रांति के समानांतर अल्पसंख्यक महिलाओं का जो सशक्तिकरण दिख रहा है वह केवल सबा नक़ली की नंगी आँखें ही देख पाई हैं। चाहे सबा नक़ली की आप बीती हो या इकतरफा ख़ानम, हिजाब में ढकी जिन महिलाओं को घर से बाहर सब्जी लेने के लिए जाने की आजादी नहीं थी वे आज हिंदुत्व से आजादी के नारे भी लगा लेती हैं।
बकौल सबा नक़ली- यह इस्लामिक पुनर्जागरण का नया दौर है। इसमें याद रखा जाएगा कि किस तरह से इस्लामिक चरमपंथियों ने हिंदुत्व और सरकार से संघर्ष में शरीयत से संघर्ष शुरू कर दिया था। 500 रुपए रोजाना की दिहाड़ी पर प्रदर्शन कर रही सबा नक़ली का कहना है कि वो इस सरकार और हिंदुत्व के खिलाफ सिर्फ बाहर से नारेबाज़ी कर रही है। हृदय की गहराइयों में वो इन दोनों ही फासीवादी ताकतों की आभारी हैं।
सबा नक़ली ने बताया कि उनका शौहर तौहमत मुरादाबादी (बदला हुआ नाम), जो उन्हें कचरे वाले की गाड़ी में कचरा डालने तक के लिए बाहर नहीं निकलने देता था, वो उनसे कह रहा है कि कोई छपाक फिल्म आई है जिसे देखते ही सरकार काँप उठेगी और किसी फासीवादी संस्था का नाश हो जाएगा। शौहर तौहमत मुरादाबादी ने सबा नक़ली से यह भी कहा है कि सड़क पर जाना है, घर से बाहर निकलना है, नारे लगाने हैं, गीत गाने हैं, सीटियाँ बजानी हैं… सत्ता रहेगी तो शरीयत भी रहेगी।
सबा नक़ली की मानें तो इस स्टेटस को मुस्लिम औरतें बेहद इंज्वाय कर रही हैं। बिंदी और मंगलसूत्र देख आजकल वे भी ‘वाउ’ कहते हैं। फिर वे कहती हैं- मोदी है तो मुमकिन है। मैं और मेरी बहनें नीलोफर, रुबीना, जमीला किसी को नहीं पता माजरा क्या है। लेकिन, हम सब खुश हैं। लग रहा है कुछ हो रहा है। अच्छे दिन आ रहे हैं। खुली हवा में साँस, PVR-मल्टीप्लेक्स में छपाक। तीन तलाक का खौफ तो मोदी जी ने पहले ही खत्म कर दिया है।
सबा नक़ली कहती हैं- अब बस इतनी दुआ है, मोदी जी बने रहे। शाहीनबाग सजा रहे।
पीछे से रुबीना की आवाज़ आती है- आमीन! और पीछे से हारमोनियम बजाते हुए तौहमत मुरादाबादी की सुरों से सजी आवाज आती है ‘हम भी देखेंगे…’ शाहीनबाग को नजर ना लगे।
(पहचान छिपाने और मुस्लिम महिलाओं की सुरक्षा को देखते हुए सारे नाम बदल दिए गए हैं)