इतिहास से छेड़छाड़ छद्म बुद्धिजीवियों का पुरातन पेशा रहा है और अपने (कु)चिंतन को सर्वोपरि साबित करने की उनकी आदत भी। अगर इतिहास के बारे में ये अंग्रेजी में कुछ लिख दें, तो भला उसे काटने की हिम्मत किसमें होती थी? लेकिन, अब समय बदल गया है। इसी क्रम में हमारी नज़र ‘द वायर’ के एक लेख पर पड़ी, जो हिंदुत्व को लेकर लिखे गए तीन लेखों की सीरीज का दूसरा भाग है। इस आर्टिकल में सबकुछ है। अंग्रेजी है। सीरिया की बातें हैं। सन 1200 में पोप ने क्या किया, यह भी है। ऐतिहासिक घटनाओं का ज़िक्र हैं। कमी है तो बस सच्चाई की। लेख की शुरुआत ही होती है कई ऐसे धर्मों का जिक्र करने से, जो अन्य पुराने धर्मों से पैदा हुए।
यहाँ हम वायर के वरिष्ठ पत्रकार की तरह केवल उपदेश नहीं देंगे बाकि सबूतों के साथ ऐतिहासिक तथ्यों के ज़िक्र कर के लेखक द्वारा इस्लामिक आक्रांताओं को वाइटवाश करने की कोशिशों को एक्सपोज़ करेंगे। आगे बढ़ने से पहले बता दें कि प्रोपेगंडा पोर्टल ‘द वायर’ का यह लेख दुर्भाग्यपूर्ण है, राजपूतों और ब्राह्मणों का कुतर्कों की बिना पर अपमान करने वाला है और खिलजी, अकबर इत्यादि के गुणगान करने वाला है। भारतीय संस्कृति को कमतर आँकने की कोशिश की गई है। लेखक की नज़र में, लाखों जान देने, हज़ारों बलात्कार होने औरकई हज़ार बड़े मंदिर ढाहने की क़ीमत पर अगर एक पर्शियन कलाकृति मिलती है तो उसे पूजना चाहिए। तो आइए, पोस्टमॉर्टम शुरू करते हैं।
इस लेख को लिखने वाले प्रेम शंकर झा हैं, जिन्होंने एग्जिट पोल कैसे बुरी तरह ग़लत हो जाएँगे, इस पर भी एक लम्बा-चौड़ा लेख लिखा था। इन छद्म बुद्धिजीवियों के साथ दिक्कत यह है कि ये सुदूर सीरिया और मेसोपोटामिया की घटनाओं व इतिहास का विवरण तो सही देते हैं लेकिन जहाँ बात भारत के सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास की आती है, ये गच्चा खा जाते हैं। या फिर यह भी हो सकता है कि जानबूझ कर ग़लत तथ्य पेश करते हैं। लेखकपहले तर्क से ही पगलैती करता नज़र आता है क्योंकि वह कहता है कि भारत में धर्म और इस्लाम का शुरुआती संपर्क काफ़ी शांतिपूर्ण रहा है। आप भी हँस लीजिए इस चुटकुले पर।
पहली बात, यहाँ लेखक ने चिरकाल से अरब और इस्लाम को एक कर के देखने की कोशिश की क्योंकि अरब और गुजरात के संपर्क को भी धर्म और मजहब वालों के बीच संपर्क के रूप में देखने की गई है। गुजरात में अरबों का आना-जाना इस्लाम के उत्थान से पहले से ही था और व्यापारिक रिश्तों के कारण वे गुजरातियों के संपर्क में थे। लेकिन, यहाँ लेखक ने बड़ी चालाकी से अरब और भारत के संपर्क को इस्लामी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहा, जबकि अरब तो इस्लाम अपनाने से पहले भी अरब ही थे। जब अरब में इस्लाम फैला, उसके बाद वे इस मज़हब के झंडाबरदार बन गए और उन्होंने इसे फैलाना शुरू किया।
लेखक का यह भी दावा है कि यहाँ आकर अरब वालों ने मस्जिदें बनानी शुरू की लेकिन किसी भी प्रकार के सांप्रदायिक तनाव ने जन्म नहीं लिया। लेकिन, लेखक को यह समझना चाहिए कि साम्राज्यवाद और विस्तारवाद कभी भी हमारी संस्कृति नहीं रही है। अगर अरबों ने यहाँ आकर मस्जिदें बनाईं, तो इसका यह अर्थ है कि भारत तब भी उतना ही सहिष्णु था, जितना आज है। सर्वविदित है कि इस्लाम के उत्थान के बाद शुरुआती दिनों में लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ धर्मान्तरण के लिए भारत आए थे, जिसनें बाद में लूटपाट और फिर साम्राजयवाद का रूप ले लिया। आज भी अंतिम चेर राजा के इस्लाम अपनाने के बाद मक्का जाने की कहानी पुरानी इस्लामी पुस्तकों में गर्व से उल्लेखित की जाती है।
भरता सहिष्णु है, तभी उसने धर्मान्तरण के इरादे से आए व्यापारियों को भी रहने की अनुमति दी। भारत का समाज काफ़ी खुले विचारों वाला था, तभी अरब से आए व्यापारियों में से कई ने भारतीय महिलाओं से विवाह किया और वे यहीं के होकर रह गए। जब महमूद गज़नी ने सोमनाथ पर हमला किया, तब तक इस्लाम साम्राज्यवाद का रुख अपना चुका था और धर्मान्तरण की मदांधता में गतिमान था। यहाँ लेखक ने इस बात को हाइलाइट करने की कोशिश की है कि सोमनाथ पर गज़नी द्वारा हमला करने के दौरान अरबों ने मरते दम तक मंदिर की रक्षा की। लेकिन, बड़ी चालाकी से लेखक ने एक तथ्य को छिपा दिया। इसकी सच्चाई हम आपको बताते हैं।
दरससल, लेखक धर्मान्तरण और ख़ूनख़राबे को सही साबित करने के लिए जिन अरबों द्वारा सोमनाथ मंदिर की रक्षा के लिए जान देने की बात कर रहा है, उन्हीं अरबों के शासक ने इस मंदिर पर पर हमला किया था। वर्ष 725 में सिंध के अरब शासक अल-जुनैद ने महमूद गज़नी से पहले ही इस मंदिर में तबाही मचाई थी। ऐसे में लेखक का यह दावा खोखलेपन वाला है कि जिन अरबों ने महमूद गजनी के आने से 300 साल पहले ही इस मंदिर को तबाह किया था, उन्होंने इसकी रक्षा के लिए जान तक दे दी। हाँ, भारतियों को अपनी सहिष्णुता की कीमत क्या देकर चुकानी पड़ी, इस बारे में लेखक ने चुप्पी साध रखी है।
अब आते हैं लेखक के एक और झूठे और भ्रामक दावे पर, जिसमें यह कहा गया है कि दिल्ली सल्तनत वाला काल शायद संघ और हिदुत्व विचारधारा वाले लोग याद न करना चाहें। जिस समयावधि में न जाने उत्तर भारत में कई जगहों पर आततायियों के कारण महिलाओं को आग में कूदना पड़ा था, उस काल को तो तो याद रखना ही चहिए ताकि आने वाली पीढ़ियों को भी पता चले कि वो आक्रांता कौन थे? मुगलों ने कला को महत्त्व दिया, हुमायूँ ने मकबरा बनवाया, शाहजहाँ ने ताजमहल बनवाया, भारत और अरब की कलाओं के मिश्रण से नई कलाओं को जन्म दिया गया- इनकी कीमत क्या चुकानी पड़ी, इस बारे में लेखक सेलेक्टिव हो उठा है।
इंडो-इस्लामिक आर्किटेक्चर का गुणगान करते-करते लेखक ने इस बात को किनारे करने की कोशिश की है कि इस कला के अधिकतर नमूने हमारी पुरानी विरासतों को तबाह कर के बनाए गए। इसे यूँ समझिए। कोई लेखक के घर में घुस आता है और फिर उन्हें निकाल बाहर कर घर को ढाह देता है। इसके बाद वह व्यक्ति वहाँ कुछ नई कलाकृतियाँ बनता है, जो उसके अनुयायियों के लिए एक पवित्र स्थल बन जाता है। क्या लेखक की आने वाले पीढियाँ उन कलाकृतियों का गुणगान करेंगी और उस कलाकार को पूजेगी? नहीं, क्योंकि वह कलाकार नहीं बल्कि आक्रान्ता था। ठीक इसी तरह, अनगिनत मंदिरों और बौद्ध स्थलों को तबाह कर बनाई गई कलाकृतियों का गुणगान कर लेखक ने जता दिया है कि ‘द वायर’ में आक्रान्ताओं के लिए एक विशेष सम्मान है।
सल्तनत काल पर हिन्दुओं को क्यों गर्व करना चाहिए? लेखक कहता है कि इस दौरान कत्थक नृत्य का जन्म हुआ, इसीलिए। यह विचित्र तो है ही, साथ ही एक बड़ा झूठ भी है। दरअसल, कत्थक नृत्य का प्रचलन वैदिक काल से ही रहा है और पीढ़ियों से चली आ रही इस नृत्य परम्परा को पुजारियों और राजाओं तक ने संरक्षण दिया क्योंकि वे इसे हिन्दू धर्म की कथाओं के प्रचार-प्रसार का एक बड़ा माध्यम मानते थे। हाँ, मुग़ल काल के दौरान पर्शियन प्रभाव आने के बाद कत्थक नृत्य के तौर-तरीकों में बदलाव हुए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पीढ़ी दर पीढ़ी बदलती एक व्यवस्था के जन्मकाल को लेकर झूठे दावे किए जाएँ। नहीं, कत्थक का जन्म सल्तनत काल में नहीं हुआ।
#Kathak, one of the major classical dances of #IncredibleIndia, is believed to have originated in Uttar Pradesh. Traditionally, the origin of Kathak is attributed to the Kathakars, the traveling bards of ancient northern India. #UttarPradesh @tourismgoi @alphonstourism pic.twitter.com/KwsNtzpXK9
— Incredible!ndia (@incredibleindia) March 10, 2019
लेखक मजहबी आक्रान्ताओं को ‘अच्छा आक्रान्ता’ और ‘बुरा आक्रान्ता’ के रूप में देखना चाहता है। उसकी नज़र में खिलजी वंश ‘अच्छा आक्रान्ता’ था और मंगोल ‘बुरा आक्रान्ता’ थे। लेखक के विचारों से लगता है कि भारतियों को खिलजी की पूजा करनी चहिए क्योंकि उसनें हमें मंगोलों से बचाया। साम्राज्यवाद की इस लड़ाई में जब भारतीय पक्ष कोई था ही नहीं और दोनों ही पक्षों का मकसद खूनखराबा ही था, ऐसे में खिलजी अच्छा और मंगोल बुरा कहाँ से हो गया? मंगोलों को हराने के बाद खिलजी ने रणथम्भोर, वारंगल, चित्तौर, गुजरात और दिल्ली में क्या किया, इस बारे में लेखक ने चुप्पी साध रखी है। क्या वह कृत्य मंगोलों से अलग था?
जिस अमीर खुसरों की दुहाई देकर लेखक खिलजी की पूजा करने की बातें कर रहा है, उसी खुसरो ने लिखा है कि चित्तौर को जीतने के बाद खिलजी ने 30,000 हिन्दुओं को मार डालने का आदेश दिया था। खुसरो लिखता है कि उन्हें सूखे घास की तरह काट डाला गया। लेकिन नहीं, यह सब चलता है क्योंकि वह ‘अच्छा आक्रान्ता’ था। लेखक ने लगे हाथ धर्मान्तरण के लिए इस्लामिक आक्रान्ताओं को जिम्मेदार ठहराने की बजाय ब्राह्मणों और ब्राह्मणवाद को गाली भी दे दी है। यह आजकल का ट्रेंड है, कूल है, चलता है- इसीलिए छद्म बुद्धिजीवी जहाँ भी तथ्य से मार खाते हैं, यही उनका आख़िरी सहारा होता है। इसके बाद लेखक ने अकबर द्वारा शुरू किए गए धर्म दीन-ए-इलाही की प्रशंसा पर अपना ध्यान केंद्रित किया है और इसे सबसे अच्छा बताया है।
“With the stroke of our swords Hindu infidels have been vaporized. The strong men of the Hindus have been trodden under feet. Islam is triumphant, idolatry subdued.”
— Divya Kumar Soti (@DivyaSoti) July 1, 2018
~Tarikh-i-Alai, Amir Khusro https://t.co/prHpZxtB02
अकबर के बारे में कहा जाता है कि वह एक रुढ़िवादी था और तभी उसने अपनी नई राजधानी फतेहपुर सिकरी में इबादतखाना बनवाया था, जहाँ मज़हबी चर्चे हुआ करते थे। एक वाकया है। जब मथुरा के ब्राह्मण पर पैगम्बर मुहम्मद को अपशब्द कहने का आरोप लगा तब मामला अकबर तक पहुँचा। कहा जाता है कि सभासदों की राय अलग-अलग होने के कारण अकबर कोई दंड नहीं दे पाया और उसनें यह कार्य शेख अब्दुल नबी को सौंप दिया। क्या आपको पता है उस ब्राह्मण को क्या सजा मिली? सज़ा-ए-मौत। पैगम्बर के बारे में अपशब्द कहने पर आरोपित को मार डालने वाले राजा के शासनकाल को लिबरल विचारधारा वाला बताया गया, यह सबसे बड़ी भूल है।
इस पूरे लेख का सार यह है कि जिन लोगों ने आपके घर में घुस कर महिलाओं का बलात्कार किया, उनका सम्मान कीजिए। लेखक का मानना है कि आपके घर को जबरन तोड़ कर एक कलाकृति बना दी जाए, आप उस कलाकृति की पूजा कीजिए। ‘द वायर’ का कहना है कि एक छोटे से राज्य को जीत कर 30000 हिन्दुओं को मार डालने वाले सुलतान की प्रशंसा कीजिए क्योंकि उसने मंगोलों को भगाया। इस लेख में हमें उन सारी चीजों की बानगी मिली है, जो हमें सालों से पाठ्य पुस्तकों से लेकर इतिहास की किताबों तक में पढ़ाया जाता रहा। राजस्थान के राजपूरों को गाली दीजिए और इस्लामी आक्रांताओं की तारीफों के पुल बाँधिए क्योंकि ‘उन्होंने युद्ध की नई तकनीकें सिखाई।’
जिन अरबों के शासक ने सोमनाथ मंदिर में तबाही मचाई, उन्हीं अरबों को धन्यवाद दीजिए क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर मंदिर को बचाने में अपनी जान लुटा दी। ये फेक नैरेटिव के बादशाह हैं। फेक नैरेटिव गढ़ना और उसे भुनाना इनके लिए दाएँ हाथ का खेल है। जिस कत्थक का मूल वैदिक काल तक जाता है, उस कत्थक को सुल्तानों के जमाने में पैदा होना बताया गया। भक्ति आंदोलन का श्रेय भी सुल्तानों को दीजिए, इस बात को नज़रअंदाज़ कीजिए कि भक्ति काल के कई संतों के साथ क्या किया गया? आश्चर्य नहीं होगा जब कल को ये लोग यह भी कहने लगे की रामायण और महाभारत आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं, इसका श्रेय इस्लामी आक्रांताओं को जाता है क्योंकि उन्होंने इस सहेज कर रखा। आपका इतिहास, आपको मुबारक।
मुगल धर्मान्तरण करने नहीं आए थे, वे बस अन्य राजाओं की भाँति अपना साम्राज्य फैला रहे थे- ऐसा लेखक का दावा है। अगर ऐसा है तो हार के डर से हुमायूँ ने अल्लाह के नाम पर अपने सैनिकों को उत्तेजित क्यों किया? खिलजी के दरबारियों द्वारा लिखी गई पुस्तकों में हिन्दुओं को नीच क्यों कहा गया? कथित लिबरल अकबर के दरबार में पैगम्बर मुहम्मद को अपशब्द कहने के आरोप में ब्राह्मण को सज़ा-ए-मौत क्यों मिली? अगर इस्लामिक आक्रांता धर्मान्तरण के लिए नहीं आए थे, इस्लाम को फैलाने नहीं आए थे- तो उन सभी ने मस्जिदें ही क्यों बनवाई? बौद्ध विहार, जैन मठ और मंदिर क्यों नहीं बनवाए? ऐसे बेहूदा लॉजिक पेश कर ही इन छद्म बुद्धिजीवियों ने हमें दशकों तक ठगा है।