Friday, March 29, 2024
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अमृता प्रीतम: जिन्हें दो मर्दों के बीच छुपा दिया गया

अमृता का ज़िक्र हमेशा मर्दों के साथ होने के पीछे वो पितृसत्ता है जिसका ये यक़ीन है कि महिलाओं को कुछ भी करने के लिए एक ऐसे इंसान से प्रेरणा चाहिए, जो मर्द हो।

अमृता प्रीतम 31 अगस्त 1919 को पैदा हुई थीं। आज 2019 में अगर वो ज़िंदा होतीं तो 100 साल की होतीं। सबसे पहले अमृता को उनकी सालगिरह मुबारक!

जब हम अमृता की बात करते हैं तो उनका ये परिचय हमारे ज़हन में आता है (या आना चाहिए); कि अमृता एक शानदार लेखिका थीं, पंजाबी भाषा की प्रसिद्ध लेखिका। अमृता ने पंजाबी के अलावा हिन्दी में भी कविताएँ लिखीं, उपन्यास लिखे। उनकी पंजाबी नज़्म “अज्ज आखां वारिस शाह नू” ने पंजाब में तक़सीम के वक़्त महिलाओं पर हुए ज़ुल्मों की बात कही। अमृता का उपन्यास “पिंजर” महिलाओं पर हुए ज़ुल्मों की बात करता है और उसका किरदार “पूरो” तो जैसे अमर ही हो गया। अमृता, जो साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला बनीं। अमृता, जिन्होंने अपने जीवन के साथ देश की तमाम महिलाओं के जीवन को जोड़ के लिखा और तक़सीम के बाद भी हिंदुस्तान के अलावा पाकिस्तान में भी बराबर मशहूर रहीं।

लेकिन रुकिए, और आज ज़रा अपने फेसबुक टाइमलाइन, अपने इनबॉक्स पर नज़र दौड़ाइए। क्या अमृता का ये परिचय आपने विकिपीडिया के अलावा कहीं भी और पढ़ा है? मुझे यक़ीन है कि 80 प्रतिशत लोगों का जवाब “नहीं” होगा। अगर ये परिचय किसी ने पढ़ा भी हो, तो उसमें एक बात और जोड़ी गई होगी, जिस पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया होगा। वो बात ये, कि अमृता प्रीतम साहिर लुधियानवी की प्रेमिका थीं, कि वे साहिर से बेहद प्यार करती थीं, कि वे उनकी छोड़ी हुई सिगरेट पीती थीं। या ये बात कि इमरोज़ अमृता से बहुत प्यार करते थे लेकिन अमृता को साहिर से ज़्यादा प्यार था।

ये कोई अच्छी बात नहीं है कि इतनी उम्दा लेखिका का जीवन सिर्फ़ दो मर्दों तक सीमित कर दिया गया। कि एक मर्द से वो इश्क़ करती थी, और दूसरा मर्द उनसे इश्क़ करता था। दुनिया इसको लव ट्रायंगल यानी प्रेम त्रिकोण कहती है, और इस प्यार को अपनी प्रेरणा के रूप में भी देखती है। बाज़ औक़ात (कई बार) मैंने ये देखा है कि लोग अमृता को सिर्फ़ साहिर की सिगरेट की वजह से याद रखते हैं।

इस बात को बढ़ावा दिया है बड़े-बड़े शहरों में हो रहे Poetry Open Mics ने, जिसमें Yourquote जैसी पोयट्री कंपनियाँ शामिल हैं। ऐसी जगहों पर नए लिखने वाले अपनी कविताओं (जो कविता नहीं है) में अमृता, साहिर, इमरोज़, सिगरेट का ज़िक्र करते हैं और इसे मशहूर कर के ट्रेंडिंग हो जाते हैं।

ज़ाहिर बात है कि अमृता के जीवन का एक बड़ा हिस्सा इश्क़ में बीता था, सबका बीतता है। क्या एक लेखिका को सिर्फ़ इसलिए याद किया जाना चाहिए कि वो इश्क़ करती थी, या इसलिए याद रखा जाना चाहिए कि वो किसी मर्द के इश्क़ में दीवानी हो गई थी? और वो मर्द कौन, जो बहुत बड़ा शायर था, फ़िल्मों में गाने लिखता था। उस लेखिका को उसके अपने लेखन, अपने कामों के लिए याद कभी नहीं रखा जाता।

ये बात सच है कि अमृता साहिर से इश्क़ करती थीं, और जब वो इमरोज़ की दोस्त थीं, तब उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि वो कभी इमरोज़ के साथ जीवन गुज़ारेंगी। इस बात का एतराफ़ अमृता ने ख़ुद किया है। अपनी किताब “रसीदी टिकट” के एक चैप्टर “आधी रोटी पूरा चाँद” में अमृता इमरोज़ के साथ खाना खाने के बारे में लिखती हैं,

“बहुत बरसों बाद इमरोज़ ने कहीं इस घटना को लिखा था – ‘आधी रोटी, पूरा चाँद’ पर उस दिन हम दोनों को सपना-सा भी नहीं था कि वक़्त आएगा, जब हम दोनों जो रोटी कमाएँगे, आधी-आधी बाँट लेंगे।”

आज सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया और तमाम प्रोग्राम में इस बात पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है कि अमृता का साहिर से कैसा रिश्ता था, और इमरोज़ से कैसा रिश्ता था। लेकिन इस सब के दौरान इसकी बात नहीं होती कि साहिर ने कभी इज़हार नहीं किया और उन्हें छोड़ कर चले गए। अमृता के बारे में ये भी कहा जाता है कि जितनी भी प्रेम कविताएँ अमृता ने लिखीं, वो इस दु:ख में लिखीं कि साहिर उन्हें छोड़ कर चले गए थे।

अमृता का ज़िक्र हमेशा मर्दों के साथ होने के पीछे वो पितृसत्ता है जिसका ये यक़ीन है कि महिलाओं को कुछ भी करने के लिए एक ऐसे इंसान से प्रेरणा चाहिए, जो मर्द हो। इसको आप पितृसत्तात्मक मानसिकता भी कह सकते हैं जिसका यक़ीन ये है कि महिलाएँ ख़ुद से कुछ लिख नहीं सकतीं।

बात अमृता पर ही नहीं रुकती

ये “बदतमीज़ी” अमृता प्रीतम तक ही सीमित नहीं है। आपको हर क्षेत्र की महिलाओं के बारे में ये बातें मिल जाएँगी जिसमें उनका ज़िक्र किसी मर्द से जोड़ कर किया जाता है। मसलन आप फ़िल्मों की ही बात करें!

किसी से पूछ लें कि रत्ना पाठक कौन हैं! जवाब आएगा, नसीरुद्दीन शाह की पत्नी; पुछें कि सुप्रिया पाठक कौन हैं! जवाब आएगा, पंकज कपूर की पत्नी। शबाना आज़मी का ज़िक्र आज भी जावेद अख़्तर या कैफ़ी आज़मी से जोड़ कर किया जाता है। इसी दिल्ली शहर में जब कोई मुशायरा हो, और कोई शायरा अच्छे शेर सुनाए, तो उनके उस्ताद का ज़िक्र किया जाता है।

ये महज़ कुछ ही उदाहरण हैं, ऐसे हज़ारों उदाहरण हर क्षेत्र में मौजूद हैं।

देश-दुनिया-समाज इतना आगे जा चुका है, आधुनिक हो चुका है। लेकिन एक वक़्त पर लड़कियों को पढ़ने तक की इजाज़त न देने वाले इस समाज में आज भी एक रत्ती का फ़र्क़ देखने को नहीं मिलता। आज भी ये सोच बनी हुई है कि यदि कोई महिला कुछ कर रही है, तो उसकी वजह उसके जीवन का कोई मर्द ही होगा। हम आज भी महिलाओं को उनकी आज़ाद पहचान देने में नाकाम हैं।

अमृता के जन्म को 100 साल हो गए हैं और उनकी मौत को 14 साल। आज ज़रूरी है कि अमृता को पढ़ा जाए। अमृता के अलावा भी हर महिला को पढ़ा जाए, उसके काम को देखा जाए, अच्छे कामों को सराहा जाए ताकि इस समाज को किसी महिला की बात करने के लिए किसी मर्द के सहारे की ज़रूरत न पड़े।

लेखक: सत्यम तिवारी

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