भगवान विष्णु के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म का जश्न कृष्ण जन्माष्टमी, जिसे जन्माष्टमी या गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना और मनाया जाता है। यदि हिंदू चंद्र कैलेंडर के तिथि के अनुसार बात करें तो कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन अर्थात अष्टमी को भाद्रपद में मनाया जाता है। वैसे तो कृष्ण सनातन संस्कृति में न सिर्फ जन-जन के आराध्य हैं बल्कि हर परिस्थिति और दौर में एक सच्चे मार्गदर्शक भी, इसके पीछे है उनका अनूठा व्यक्तित्व जो उनके जीवन के उतार-चढ़ाओं, संघर्षों का वह केन्द्रविन्दु है जो मानव रूप में जन्म लेकर भी उन्हें भगवत्ता के शीर्ष पर बैठाती है।
कृष्ण का व्यक्तित्व कई आयामों में अनूठा है। बचपन से लेकर जीवन के अंत तक निरंतर संघर्षों और कर्मठता की आग पर तपा एक ऐसा महामानव जो जिया तो लगातार खतरों के साए में लेकिन कोई भी अंततः उनसे जीत नहीं पाया, जब जो जरुरी लगा, बिना रूढ़िबद्ध सामाजिक नियमों की परवाह किए धर्म की स्थापना हेतु उन्होंने नया आदर्श खड़ा किया जो आज भी हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अनूठेपन की सबसे खास बात यही है कि कृष्ण हुए तो अतीत में हैं, लेकिन हैं भविष्य के, आज भी यदि नजर दौड़ाएँ तो मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं दिखाई पड़ता कि कृष्ण का समसामयिक हो सके। उन पर न जाने कितने शास्त्र, कितनी टीकाएँ लिखी गईं, न जाने कितने लम्बे-लम्बे व्याख्यान और आख्यान दिए गए फिर भी कृष्ण आज भी आम मनुष्य की समझ से बाहर हैं।
शायद यह भविष्य में ही यह संभव हो पाए कि कृष्ण को हम समझ पाएँ। इसके कुछ बुनियादी कारण हैं। कारणों पर बात इसलिए भी जरुरी है कि आज सनातन धर्म, जो सदैव नित नवीन अविष्कार, अन्वेषण अर्थात खोज और स्वतन्त्र विचारणा को बढ़ावा देने वाला रहा आज उसे मात्र हिंदुत्व के नाम पर कुछ संकीर्ण लोग खारिज कर देने की कुत्सित सोच से भरे हैं। घृणा के इसी आवेश में वह एक पूरी परम्परा को विकृत और खारिज कर देना चाहते हैं बिना कुछ भी जाने या अनुभव किए। यह कहीं न कहीं उस विराट चेतना का अपमान है जिसका अंश हर सनातनी की शिराओं में रक्त बनकर, या चेतना के रूप में प्रवाहमान है।
इस धरा पर रहने वाले हर किसी के कहीं न कहीं तार यहाँ की सनातन बागडोर से जुड़े हैं जिससे कोई अनजान भले हो सकता है लेकिन उसे झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसे में जब बात आदर्श चुनने की होगी तो इस संस्कृति के एकमान्य आदर्श राम और कृष्ण ही होंगे, दोनों के व्यक्तित्वों में वह सूत्र छिपे हैं जो मानवता के सम्पूर्ण विकास और स्वयं भगवान हो जाने की संभावना से भरे हैं। और इनमे में भी कोई एक चुनना हो तो कृष्ण सम्पूर्ण है, तभी तो उन्हें पूर्ण अवतार माना गया है।
जिसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं, जो धर्म की परम गहराइयों और ऊँचाइयों के शिखर पुरुष होकर भी गुरु-गंभीर नहीं हैं, उदास-निराश या रोते हुए नहीं हैं। उनका सम्पूर्ण जीवनवृत्त एक खेल है, बिना किसी परिणाम की चिंता किए अपनी पूर्णता में, पूरी तल्लीनता से किया गया एक कर्म।
साधारणत: जब किसी महापुरुष, किसी संत की जिस अवधारणा को आगे बढ़ाया जाता रहा है उसका लक्षण ही रोता हुआ होना नजर आता है। जिंदगी से उदास, पीड़ित, हारा और भागा हुआ। लेकिन सनातन संस्कृति के पूरे कालखंड में देखें तो कृष्ण अकेले ही एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में नजर आते हैं जो नृत्य करते हुए, रास रचाते हुए, क्रीड़ा करते हुए, हँसते हुए, गीत गाते हुए, युद्ध में भी सदैव मंद स्फीति मुस्कान के साथ आभा बिखेरते नजर आते हैं।
एक नजर दौड़ाइए तो अतीत का सारा धर्म दुखवादी नजर आएगा। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का कोई भी धर्म हो उदास आँसुओं से भरा हुआ, पीड़ा प्रधान नजर आता है। हँसता हुआ धर्म, जीवन को उसकी सम्पूर्ण समग्रता में स्वीकार करने वाला धर्म, वास्तव में अभी पैदा होने को है। जो कृष्ण की राह पर चलकर ही प्राप्त किया सकता है। जहाँ जीवन हर क्षण, हर परिस्थति में नृत्य है, आनंद है, रास है, महासमर में भी विनाश के साथ नवनिर्माण की प्रस्थानबिंदु है।
आज सनातन धर्म जो अब हिन्दू धर्म के रूप में जाना जा रहा है चौथे स्थान पर है, पहले पर ईसाई, दूसरे पर इस्लाम, तीसरे पर वे लोग हैं जो किसी भी धर्म या मजहब को नहीं मानते, इसके बाद आता है हिन्दू धर्म लेकिन यदि आनंद, खोज, अध्यात्म और चेतना के शिखरविन्दु के रूप में देखें तो सनातन अर्थात हिन्दू धर्म सर्वश्रेष्ठ है। यह बात मैं यूँ ही नहीं कह रहा हूँ अभी तक का जो अनुभव और अपनी आध्यात्मिक चेतना रही है उसका निष्कर्ष यही है और आप भी इससे सहमत होंगे, न भी हों तो भी इस सत्य को झूठलाया नहीं जा सकता।
क्योंकि, जिस ईसाइयत से विश्व का एक बड़ा हिस्सा उसकी विस्तारवादी, प्रलोभन आधारित नीतियों के कारण प्रभावित जान पड़ता है, उसके मसीहा जीसस के संबंध में ओशो जैसे तत्वदर्शियों ने कहा है कि वह कभी हँसे नहीं। आपको शायद ऐसी कोई छवि या वचन ध्यान नहीं आ रहा होगा जब जीसस आपको मुस्कराते हुए नजर आते हों! कहते हैं जीसस का यह उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ उनका शरीर ही कालांतर में तमाम दुखी चित्त लोगों के बीच आकर्षण का कारण बन गया क्योंकि इन मजहबों की आधारशिला ही रक्तरंजित रही है।
बहुत व्यापक अर्थों में देखा जाए तो महावीर या बुद्ध बहुत गहरे अर्थों में जीवन के विरोधी नजर आते हैं। क्योंकि वे कोई और जीवन है परलोक में, इस लोक से परे, कोई मोक्ष है, उसके पक्षपाती हैं। उनके हिसाब से यह जीवन आनंद नहीं बल्कि सर्वं दुखम-दुखम अर्थात दुःख ही है जबकि कृष्ण का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही आनंदमय है और वे जीवन के हर क्षण में भयमुक्त होकर, फल की चिंता छोड़कर उपयुक्त कर्म की बात करते हैं।
इस तरह से देखा जाए तो अब तक व्याप्त सभी धर्म-मजहबों ने जीवन को दो हिस्सों में बाँट रखा है- एक वह, जो स्वीकार करने योग्य है और एक वह, जो इनकार करने योग्य है। कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकारते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में स्वयं फलित हुई है। इसलिए इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, लेकिन कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा। कहते हैं राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का प्रासंगिक कारण है। वह कारण यह है कि कृष्ण ने सब कुछ आत्मसात कर लिया बिना किसी दुराग्रह के, जिसका प्रमाण उनका सम्पूर्ण जीवन है।
भगवान कृष्ण का न सिर्फ व्यक्तित्व अनूठा है और वे सम्पूर्ण अवतार के रूप में स्वीकार किया गए हैं बल्कि कृष्ण शब्द भी गहरे बोध का परिचायक है। ओशो कहते हैं कि कृष्ण का अर्थ है, केंद्र- कृष्ण अर्थात जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे, सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, एक तरह से कशिश का एक केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस ओर सारी चीजें खिंचती हों। जो केंद्रीय चुंबक का काम करे।
सनातन धर्म की ऐसी महिमा है कि यदि आध्यात्मिक रूप में गौर से देखा जाए तो प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है, सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब चीजें केंद्रित हैं, खिंचती है, आकृष्ट होती हैं। शरीर आकृष्ट होकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार उसके आसपास निर्मित होता है, समाज उसके आसपास निर्मित होता है, व्यापक अर्थों में देखा जाए तो ये सम्पूर्ण जगत आकृष्ट होकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सम्पूर्ण जीवन घटित होता है।
जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, तो एक अर्थ में कृष्ण का ही जन्म है वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू हो जाती हैं। उस कृष्ण बिंदु के आसपास क्रिस्टलाइजेशन शुरू होता है और व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसलिए व्यापक अर्थों में कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष का जन्म मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति मात्र का जन्म है।
ऐसे में जब कृष्ण जैसा व्यक्ति हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है। उम्मीद है पहेली सी नहीं लग रही होगी क्योंकि सही मायने में महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है, पौराणिक होती है जो बार-बार पीछे लौटकर निर्मित होती है।
हर बार जब हम चिंतन में डूबे होते हैं, पीछे लौटकर जब हम देखते हैं तो अतीत की हर गौरवशाली चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है। जो अर्थ हो सकता है घटते हुए क्षण में कभी न भी रहे होंगे। लेकिन चेतना में जीवंत हो उठती है और ऐसा आखिर हो भी क्यों न, क्योंकि कृष्ण जैसे व्यक्तियों, महामानवों, भगवत्ता के शीर्ष पर खड़े महापुरुषों का जीवनवृत्त एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी अपने हिसाब से बार-बार लिखती है।
हजारों-लाखों लोग लिखते हैं। जब इतने लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएँ होना भी स्वाभाविक हैं। इतने शास्त्र, टीकाएँ, व्याख्याएँ भी संभव है। इस प्रकार धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी एक व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण कहीं न कहीं एक संस्था हो जाते हैं, एक इंस्टीट्यूट हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों के सारभूत तत्व हो जाते हैं। मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है। इसलिए व्यक्तिवाची अर्थों में कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति रह ही नहीं जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चेतना के, हमारे कलेक्टिव माइंड के एक व्यापक प्रतीक हो जाते हैं। और कही न कहीं हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे हैं, वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।