Thursday, November 14, 2024
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खेले मसाने में होरी दिगंबर… : काशी में महाश्मशान मणिकर्णिका पर खेली जाती है चिता-भस्म की अनोखी होली, तारक मन्त्र देने आते हैं महादेव

"खेले मसाने में होरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी, भूत पिशाच बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी…। लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के चिता भस्म भर झोरी… दिगंबर खेले मसाने में होरी…।"

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी (Kashi) में देवस्थान और महाश्मसान का महत्व एक जैसा है। जहाँ जन्म और मृत्यु दोनों मंगल है। ऐसी अलबेली अविनाशी काशी में खेली जाती है दुनियाभर में सबसे अनूठी जलती चिता की राख और भस्म से होली। महाश्मशान मणिकर्णिका पर बाबा मसान नाथ के चरणों में चिता की राख समर्पित कर फाग और राग-विराग दोनों का ही उत्सव आरम्भ हो जाता है। पूरा दृश्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि जैसे भूतभावन महादेव स्वयं वहाँ अपने गणों के साथ प्रकट हो गए हों।

हर वर्ष रंगभरी एकादशी के अगले दिन महाश्मशान मणिकर्णिका पर चिता भस्म की होली होती है। लेकिन माहौल बनाने के लिए रंगभरी एकादशी के दिन भी हरिश्चंद्र घाट के श्मशान पर चिता की राख से होली खेलकर काशी में चिता-भस्म की होली की शुरुआत हो जाती है। इसी दिन से बनारस में रंग-गुलाल खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिनों तक चलता है।

इस वर्ष रंगभरी एकादशी सोमवार (14 मार्च, 2022) को थी और महाश्मशान की होली आज यानि मंगलवार (15 मार्च, 2022) को है। यहाँ बता दें कि फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को रंगभरी एकादशी कहा जाता है।

पौराणिक मान्यता

काशी में मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ के साथ होली खेलने और उत्सव मनाने के लिए भूत-प्रेत, पिशाच, चुड़ैल, डाकिनी-शाकिनी, औघड़, सन्यासी, अघोरी, कपालिक, शैव-शाक्त सब आते हैं।

ये वो लोग हैं जो रंगभरी एकादशी में शामिल नहीं होते हैं। महादेव शिव अपने ससुराल पक्ष के निवेदन पर अपने गणों को जब माता पार्वती का गौना लेने जाते हैं तो बाहर ही रोक देते हैं। क्योंकि, जो हाल महाशिवरात्रि पर शिव के विवाह में हुआ था वही अराजकता दोबारा पैदा न हो जाए। इसलिए अगले दिन मिलने का वादा करके सबको महाश्मशान बुला लेते है जिनको गौना में बुलाने पर उपद्रव तय था।

देश-विदेश से पहुँचते हैं बाबा के भक्त निभाई जाती है लौकिक परंपरा

काशी की आदिकाल से चली आ रही यह परंपरा उसे अविमुक्त क्षेत्र बनाती है। जहाँ आम से लेकर खास तक, संत से लेकर सन्यासी तक चिता भस्म को विभूति मानकर माथे पर रमाए भाँग-बूटी छाने होली खेलते हैं। ऐसे में राग-विराग की नगरी काशी की प्राचीन काल से चली आ रही परम्पराएँ भी निराली हैं। जहाँ रंगभरी एकादशी पर महादेव काशी विश्वनाथ अड़भंगी बारात के साथ माता पार्वती का गौना कराकर ले जाते हैं तो वहीं दूसरे दिन बाबा अप्पने वादे के अनुसार गणों के साथ उत्सव मनाने महाश्मशान मणिकर्णिका भी जाते हैं। जहाँ चिता भस्म के साथ ये होली खेली जाती है।

परंपराओं के अनुसार भगवान शिव के स्वरूप बाबा मशान नाथ की पूजा कर महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर उनके गण जलती चिताओं के बीच गुलाल की जगह चिता-भस्म की राख से होली खेलते हैं। हर वर्ष काशी मोक्षदायिनी सेवा समिति द्वारा बाबा कीनाराम स्थल रवींद्रपुरी से बाबा मसान नाथ की परंपरागत ऐतिहासिक शोभायात्रा निकाली जाती है।

लौकिक परंपरा की बात करें तो मणिकर्णिका पर जहाँ अनवरत चिताएँ जलती रहती हैं वहाँ पारम्परिक चिता भस्म की होली खेलने न केवल देश के कोने-कोने से साधक और शिव भक्त आते हैं बल्कि विदेशों से भी लोग पहुँचते हैं।

वहीं इस सनातनी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी काशी में हर वर्ष रंगभरी एकादशी को बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार किया जाता है। वे दूल्हे के रूप में सजाए जाते हैं। फिर विधिपूर्व​क हर्षोल्लास से बाबा विश्वनाथ के संग माता गौरा का गौना कराया जाता है। पूरी परंपरा का बनारस में विधिवत पालन होता है।

काशीवासी आज भी बाराती, भक्त तो शिव के गण बनते हैं। महाशिवरात्रि पर जो गण बाराती बनकर शिव विवाह में शामिल हुए थे वही अब बाबा की पालकी लेकर गौना कराने निकलते हैं। माँ गौरी की विदाई कराकर शिव जब काशी विश्वनाथ मंदिर की तरफ प्रस्थान करते हैं तो काशी में शिव के गण बने शिव-भक्त रंग-गुलाल उड़ाते हुए साथ चलते हैं।

बनारस में कहा जाता है कि महादेव कितनी भी मस्ती में क्यों न हों लेकिन अपने दृश्य-अदृश्य उन गणों को उत्सव में बिसरा दें यह हो नहीं सकता। वे गण जो थोड़े डरावने हैं। वही जो बिना बुलाए जब शिव बारात में सब चलें गए तो द्वारचार में माँ गौरा की माँ मैना देवी ऐसी बारात और बारातियों को देखकर बेहोश हो गई थीं। इसलिए, कहा जाता है कि गौना में ऐसे भूत-पिचास, अदृश्य आत्माएँ थोड़ी दूरी बना लेती हैं ताकि सब सकुशल संपन्न हो जाए।

काशी की संगीत परंपरा में घुला है अड़भंगीपन और होलियाना मिजाज

काशी की संगीत परंपरा पर बात करते हुए पद्म विभूषण से सम्मानित पंडित छन्नूलाल मिश्र बताते हैं कि बनारस की होली भी बनारस के मिजाज के अनुसार ही अड़भंगी है। दुनिया का इकलौता शहर जहाँ अबीर, गुलाल के अलावा धधकती चिताओं के बीच चिता भस्म की होली होती है। घाट से लेकर गलियों तक होली के हुड़दंग का हर रंग अद्भुत होता है। महादेव की नगरी काशी की होली भी अड़भंगी शिव की तरह ही निराली है।

वह कुछ याद करते हुए गुनगुनाने लगते हैं-

“खेले मसाने में होरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी, भूत पिशाच बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी…। वह कहते हैं कि लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के चिता भस्म भर झोरी… दिगंबर खेले मसाने में होरी…।”

आखिर ऐसा दृश्य कहाँ देखने को मिलेगा कि भगवान शिव के गण अपने झोली में चिता भस्म की राख भरकर मन भर होली खेलकर तृप्त हो जाते हों। उनका कहना है कि काशी की होली में राग और विराग दोनों नजर आते हैं।

पंडित छन्नूलाल मिश्र ठहरकर कुछ समझाते हुए आगे गुनगुनाते लगते हैं-

“गोप न गोपी श्याम न राधा, ना कोई रोक ना कवनो बाधा, ना साजन ना गोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी…।”

भावविभोर हो वह कह उठते हैं कि शिव की नगरी काशी की होली की बात ही निराली है। जब महादेव महाश्मशान में उतरते हैं तो-

“भूतनाथ की मंगल-होरी, देखि सिहाएं बिरिज के गोरी, धन-धन नाथ अघोरी… दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।”

काशी में महादेव स्वयं देते हैं तारक मन्त्र

परंपराओं के अनुसार, आज भी महाश्मशान मणिकर्णिका पर, भगवान शिव के स्‍वरुप बाबा मशाननाथ की पूजा कर श्‍मशान घाट पर चिता भस्‍म से उनके गण होली खेलते हैं। कहते शैव-शाक्त, अघोरी से लेकर तमाम महादेव के भक्त-गण इस अवसर का साक्षी होने के लिए कई जन्मों तक प्रतीक्षा करते हैं। कहा तो यह भी जाता है जब तक महादेव न बुलाएँ तब तक किसी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता कि वह स्वयं काशी में महादेव संग होली खेलने का पुण्य अवसर प्राप्त करे।

काशी मोक्ष की नगरी है और दूसरी मान्‍यता यह भी है कि यहाँ भगवान शिव स्‍वयं तारक मंत्र देते हैं। लिहाजा यहाँ पर मृत्‍यु भी उत्‍सव है और होली पर चिता की भस्‍म को उनके गण अबीर और गुलाल की भाँति एक दूसरे पर फेंककर सुख-समृद्धि-वैभव संग शिव की कृपा पाने का उपक्रम भी करते हैं।

बुढ़वा मंगल तक चलती है होली

चलते-चलते अब आपको यह भी बता दूँ कि होली बनारस और बिहार के गया में बुढ़वा मंगल तक चलता है। होली के बाद आने वाले मंगलवार को काशीवासी बुढ़वा मंगल या वृद्ध अंगारक पर्व भी कहते हैं। काशी में होली जहाँ युवाओं के जोश का त्यौहार है तो बुढ़वा मंगल में बुजुर्गों का उत्साह भी दिखाई पड़ता है।

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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