Sunday, November 17, 2024
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आदियोगी की प्रतिमा के सामने ईसाई मिशनरी की बेहूदगी हिन्दुओं के धैर्य की परीक्षा ही है

यह सोचकर देखिए कि इसी मिशनरी ने अगर किसी मस्जिद, मजार या किसी मुस्लिम-बहुल इलाके में भी उनके मज़हब और पैगंबर का अपमान किया होता तो उसका क्या हाल होता? हिन्दुओं का भी धैर्य अंतिम छोर पर है- परीक्षा कम ही हो तो बेहतर होगा…

सोशल मीडिया पर एक वीडियो मिला है। एक ईसाई कोयंबटोर स्थित सद्गुरु जग्गी वासुदेव के ईशा फाउंडेशन के प्रांगण में स्थापित आदियोगी शिव की प्रतिमा के आगे जाता है और वहाँ भगवन शिव का दर्शन और उन्हें नमन कर रहे हिन्दू भक्तों से चिल्ला कर तमिल में कुछ कहता है, जिसमें से मुझे खुद केवल एक शब्द समझ में आया- येसु। तमिल मित्रों को पूछा तो पता चला कि वह कह रहा है, “ध्यान से सुनो, सब लोग। योग, योगी या साँप इंसानों को नहीं बचा सकते। येसु ने तुम्हारे लिए खून बहा दिया। मैं अपना संदेश हिंदुस्तान को और इस प्रतिमा का अनावरण करने वाले पीएम को दे रहा हूँ। केवल येसु इंसानों के पापों को साफ कर सकता है। येसु, कृपया इंसानों की आँखें खोलो और हिंदुस्तान को बचाओ।

स्कूलों में सुना था, मंदिर में, आश्रम में उम्मीद नहीं थी

यह पहली बार नहीं सुना है कि ‘तुम्हारे भगवान नकली हैं, इनसे कुछ नहीं होने वाला’, ‘सब मूर्ति-वूर्ति अन्धविश्वास है’, ‘आँख बंद करके बैठने (ध्यान मुद्रा) या शरीर ऐंठने (हठ योग) से क्या होता है? ऐसे भला शरीर ठीक हो सकता है?’, ‘येसु ही असली परमेश्वर हैं’- कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने से यह सब गाहे-बगाहे सुनने को मिल ही जाता था। वह भी इतने आहिस्ते-आहिस्ते हिन्दूफ़ोबिया का जहर भरा जाता था कि पता ही नहीं चलता था कब तर्क और विज्ञान पढ़ते-पढ़ते हम हिन्दुओं के तिलक-पूजा-तंत्र से लेकर राम-कृष्ण-पुनर्जन्म-योग सभी को एक झाड़ू से बकवास मानकर बुहारने लगते थे।

लेकिन वह स्कूल ‘उनका इलाका’ था- उनकी मर्जी जो पढ़ाएँ; हमारी गलती थी, हमारे माँ-बाप की गलती थी, हिन्दू समाज की गलती थी कि मिशनरियों जैसे उच्च-गुणवत्ता की शिक्षा तुलनात्मक रूप से कम दाम में मुहैया करने वाले स्कूल उतनी तादाद में नहीं खुले जितना होना चाहिए था। पर यह मामला वह नहीं है- यहाँ हमारे पवित्र, धार्मिक स्थल में आकर, हमारे गुरु के आश्रम में, हमारे महादेव की मूर्ति के सामने उसे फर्जी कहा जा रहा है। और बोलने वाले के हावभाव से साफ़ है कि वह अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त है- पता है उसे किसी ने टोक भी दिया तो पत्रकारिता का समुदाय विशेष “ऑल रिलीजंस आर ईक्वल” से लेकर “हिन्दू फासीवाद फैलना चालू; बेचारे मिशनरी को हिन्दू ‘पर्यटन’ स्थलों पर अपना प्रचार नहीं करने दिया जा रहा” का नाटक शुरू करने के लिए गिद्ध की तरह बैठा ही है।

कहाँ से आती है इतनी हिम्मत? कहाँ से आता है इतना दुस्साहस कि किसी के धार्मिक स्थल पर घुस कर उनके धर्म को नकली कहा जाए, उसका मजाक उड़ाया जाए? और कहीं से नहीं, हमारी तथाकथित ‘सेक्युलर’ व्यवस्था से ही, जहाँ हिन्दुओं के मंदिरों को सरकारें हड़प कर उनके खजाने निगल सकती हैं और अपने साहबों की सुविधा से मंदिर की परम्पराओं को बदल सकतीं हैं। जहाँ अदालत देश की लगभग 80% आबादी को बताती है कि उनकी परम्पराओं के लिए संविधान में सुरक्षा नहीं है, वह अनुच्छेद 25-30 केवल अल्पसंख्यकों को देते हैं ,जहाँ मीडिया गिरोह हिन्दुओं को Characterological Evil (चरित्र से ही बुरे, और ‘सुधार’ की सर्वथा आवश्यकता में) के रूप में प्रचारित करते हैं, जहाँ हिन्दुओं की आस्था और परम्परा से नफरत, उसका अपमान ‘प्रगतिशीलता’ की पहली शर्त है, और उनके सम्मान की बात भर करना आपको ‘कम्युनल’, ‘फासिस्ट’ और न जाने क्या-क्या बना देता है।  यह दुस्साहस ऐसे ही हिन्दूफ़ोबिक ‘इकोसिस्टम’ से आता है।

मिशनरी की साम्राज्यवादी भाषा

इस मिशनरी की भाषा पर अगर गौर करें तो यह वही बोली बोल रहा है जो हिंदुस्तान को 190 साल अपने बूटों के तले रौंदने वाले अंग्रेज बोलते थे। और उनके संरक्षण में यहाँ की स्थानीय संस्कृति को लील लेने वाले मिशनरी पादरियों की यह बोली थी। हिंदुस्तान को (केवल) “साँप-मदारियों का देश” बताना महज नस्ली या चमड़ी के रंग पर आधारित नहीं, मज़हबी, पंथिक प्रपोगंडा था; वाइट सुप्रीमेसी की जड़ ईसाईयत में ही हैं- और यह वाइट क्रिश्चियन सुप्रीमेसी है। आज ईसाईयत दुनिया फैला लेने के बाद यह क्रिश्चियन सुप्रीमेसी है। इनके लिए हम हिन्दू हमेशा नरकोन्मुख अभिशप्त लोग होंगे, और हमें अपमानित कर, प्रताड़ित कर, भेदभाव कर भी ‘बचाना’ इनका “पवित्र कर्तव्य”- जैसे पिछली सदी में चमड़ी के पीछे छिपा वाइट मैन्स बर्डेन था, इस सदी में खुल कर क्रिश्चियन मैन्स बर्डेन है कि हम बेचारे हिन्दुओं को मूर्ति-पूजा के पाप से बचाएँ।

हमारी संस्कृति का हमारे विरुद्ध प्रयोग, साथ देने में हिन्दू भी कम नहीं  

एक ओर ईसाईयत का मूल आधार ही मूर्ति-पूजा और देवताओं की अवैधता है, मूर्ति और देवता के पूजकों को कयामत के दिन नर्क में भेजने का ईसा का वादा है, दूसरी ओर ईसाई अपना पंथ हिंदुस्तान में फ़ैलाने के लिए हमारी संस्कृति और हमारे देवताओं के प्रयोग से पीछे नहीं रहते। नीचे कुछ ऐसी ही तस्वीरें हैं जिनमें ईसा मसीह को तो हिन्दू देवताओं मुरुगन (कार्तिकेय), दक्षिणमूर्ति शिव, देवी इत्यादि के रूप में दिखाया गया है, देवताओं का साथी (यानि “बस एक और देवता”) दिखाया गया है, ईसाई मिथक (माइथोलोजी) में घटी घटनाओं को हिन्दू शृंगार, रूप आदि दिए हैं- यानि ईसाईयत के आईने में हिन्दुओं को उतारने के लिए पिछले दरवाजा बनाया गया है। अधिकाँश चित्र स्वराज्य के लेख से हैं, बाकी गूगल पर “jesus appropriation” इमेज सर्च कर पाए जा सकते हैं।

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उनका साथ देने में हिन्दू (या शायद हिन्दू नामधारी छद्म-हिन्दू?) भी पीछे नहीं हैं। कर्नाटक संगीत के मशहूर गायक टीएम कृष्णा को इस विकृत सेक्युलरिज्म के कीड़े ने ऐसा काटा कि वह चर्चों में घूम-घूमकर श्री राम की वंदना और प्रशंसा में लिखे गए त्यागराजा, मुत्तुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री के कीर्तनों को जीसस घुसेड़ कर गाने लगे। विरोध बढ़ा तो उन्होंने संघ परिवार के बहाने हिन्दुओं को चिढ़ाने के लिए घोषणा कर दी कि अब तो हर महीने जीसस और अल्लाह के लिए एक कर्नाटक संगीत का भजन जारी होगा

तिस पर भी मानसिक ही नहीं आत्मा के स्तर तक से दिवालिया कुछ लोग इसे हिन्दुओं का ही दूसरे मतों के पवित्र प्रतीकों को ‘हड़पना’ बताने में लगे हैं।

हिन्दू-विरोधी दोगले सेक्युलरिज्म का अंत जरूरी  

सेक्युलरिज्म के नाम पर हिन्दुओं पर थोपी गई इस विकृत विचारधारा का अंत जरूरी है। आखिर हिन्दू ही क्यों पंथ-निरपेक्षता को ढोएँ? जिन्हें लगता है कि कभी-न-कभी दूसरे समुदाय (विशेष तौर पर अब्राहमी इस्लाम और ईसाईयत) हमें पलट के सम्मान देंगे, उनकी जानकारी के लिए ईशा फाउंडेशन के इस योग मंदिर के बाहर ॐ और सिखों के पवित्र चिह्न के अलावा ईसाई क्रॉस, समुदाय विशेष का चाँद सितारा भी बने हैं। उसके बावजूद जग्गी वासुदेव को आदियोगी प्रतिमा बनाने से लेकर उसका मोदी से अनावरण कराने तक हर कदम पर उनके खिलाफ दुष्प्रचार हुआ- उनकी जमीन को आदिवासियों से हड़पी हुई बताया गया (जबकि उन्होंने दस्तावेज सामने रखकर जब चुनौती दी तो सब गायब हो गए), उन्हें मोदी के तलवे चाटने वाला बताया गया, जेएनयू में उनकी मौजूदगी के खिलाफ प्रपोगंडा हुआ और अब उनके ही आश्रम में उनके इष्ट देवता का अपमान हुआ है।

जरा सोचकर देखिए कि किसी चर्च या मस्जिद में अगर कोई हिन्दू ईसा या मोहम्मद पर सवाल भर पूछ दे तो लिबरल मीडिया गिरोह कितने दिन बवाल काटेगा? फिर यह सोचकर देखिए कि इसी मिशनरी ने अगर किसी मस्जिद, मजार या किसी मुस्लिम-बहुल इलाके में भी उनके मज़हब और पैगंबर का अपमान किया होता तो उसका क्या हाल होता? हिन्दुओं का भी धैर्य अंतिम छोर पर है- परीक्षा कम ही हो तो बेहतर होगा…

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