Sunday, December 22, 2024
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ऐराकी ‘सूफी संत’ कहलाया, ललितादित्य भुला दिए गए: क्यों सबको देखनी चाहिए ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘आज़ादी’ के नारे की मिलेगी सच्चाई

क्या पता कल को हिन्दू महिलाओं के बलात्कार को बढ़ावा देने वाला ये नारा भी वामपंथी और इस्लामी गिरोह द्वारा एक गाने में ढाल दिया जाए। फिर इसके सहारे नया सेक्युलर एजेंडा चलाया जाने लगेगा और इसका अर्थ जाने बिना इसका महिमामंडन किया जाएगा।

विवेक अग्निहोत्री की नई फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ शुक्रवार (11 मार्च, 2022) को रिलीज हुई और इसने पहले ही दिन दुनिया भर में 4.55 करोड़ रुपए कमा कर सबको चौंका दिया। बॉलीवुड वाले कहते रहे हैं कि कंटेंट ड्रिवेन सिनेमा अच्छा नहीं कर सकती, लेकिन इस फिल्म ने उन धारणाओं को तोड़ दिया है। कश्मीरी पंडित अपनी व्यथा को फिल्म में प्रतिबिंबित होते देख रहे हैं। यहाँ हम आपको फिल्म की कहानी बताए बिना ही आपको बताएँगे कि मूवी कैसी बनी है।

ज्यादा तकनीकी शब्दावली में न पड़ते हुए मुद्दे पर आते हैं। रात के 12 बजे से लेकर 3 बजे तक के शो में मैंने इस फिल्म को देखा और बीच-बीच में सिनेमा हॉल में ‘जय श्री राम’ से लेकर ‘भारत माता की जय’ तक के नारे भी गूँजते रहे। फिल्म में कश्मीर में नब्बे के दशक में पंडितों के नरसंहार और इसके पीछे इस्लामी कट्टरपंथियों की क्रूरता को उभारा है और साथ ही इसे आज के परिदृश्य से जोड़ कर कॉलेज कैम्पस की दूषित राजनीति और व्यवस्था में वामपंथियों की भागीदारी को उकेरा गया है।

इस फिल्म में दर्शन कुमार ने एक ऐसे छात्र का किरदार निभाया है, जो वामपंथियों के प्रभाव वाले दिल्ली के एक बड़े विश्वविद्यालय में छात्र संघ अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहा होता है, जहाँ उसके दिमाग में अरुंधति रॉय टाइप की एक वामपंथी प्रोफेसर कचरा ठूँसते जाती है। वहीं दूसरी तरफ उसके दादा के किरदार में अनुपम खेर हैं, जिन्होंने कश्मीरी पंडित नरसंहार की विभीषिका झेलने वाले एक शिक्षक का किरदार अदा किया है।

उस छात्र में मन में चल रहा अंतर्द्वंद्व ही इस फिल्म की कहानी है और यही आज की वास्तविकता भी है। जिस ‘आज़ादी-आज़ादी’ का नारा लगा कर भारत के टुकड़े होने की बात की जाती है और बाद में मीडिया के सामने महिमामंडन के लिए इसे गरीबी और तथाकथित सामंतवाद से जोड़ दिया जाता है, वही ‘आज़ादी’ का नारा जम्मू कश्मीर में आतंकी भी लगाते हैं। नब्बे का दशक ऐसा था, जब कश्मीरी मुस्लिमों और आतंकियों का फर्क समाप्त हो गया था – ये फिल्म उसी कहानी को कहती है।

मेरे हिसाब से अनुपम खेर की पहली फिल्म ‘सारांश (1984)’ और ‘खोसला का घोंसला (2006)’ के बाद इसी लीग में ये उनका सर्वश्रेष्ठ परफॉर्मेंस है। फिल्म में एक दृश्य है, जहाँ मिथुन चक्रवर्ती (जिन्होंने एक IAS अधिकारी का किरदार निभाया है) दर्शन कुमार को उनके ब्रेनवॉश होने का एहसास दिलाते हैं और इस दृश्य को देख कर ऐसा लगता है जैसे संजीदगी से ऐसे किरदारों को निभाने में अमिताभ बच्चन के साथ-साथ उनका भी कोई तोड़ नहीं। दोनों ही 20वीं सदी के अलग-अलग दौर में बड़े सुपरस्टार्स रहे हैं।

आपको ‘नादिमार्ग नरसंहार’ याद है? उस दौरान 25 कश्मीरी पंडितों को खड़ा करा कर नजदीक से सबको न सिर्फ गोली मार दी गई थी, बल्कि उन सभी के मृत शरीर को भी क्षत-विक्षत कर के अपमानित किया गया था। 23 मार्च, 2003 को पुलवामा जिले के नादिमार्ग में हुई इस घटना में आतंकी भारतीय सेना की वर्दी पहन कर आ थे और 11 पुरुष, 11 महिलाएँ, एक लड़के और एक शिशु तक को मार डाला था। मृतकों में एक 65 वर्ष के बुजुर्ग थे तो एक 2 वर्ष का शिशु भी था।

7 लाख कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा था, लेकिन हत्याओं, बलात्कार और क्रूरता के इस दौर को कमतर कर के दिखाया जाता है। विधु विनोद चोपड़ा की दोनों फिल्मों ‘मिशन कश्मीर (2000)’ और ‘शिकारा (2020)’ में इस मुद्दे पर बनाया गया, लेकिन दोनों में इस नरसंहार को अंजाम देने वालों को ही व्हाइटवॉश करने की कोशिश की गई। सवाल ये है कि जब हिटलर और नाजियों द्वारा अंजाम दिए गए ‘होलोकास्ट’ पर दर्जनों फ़िल्में बन सकती हैं और नाजियों को अत्याचारी और यहूदियों को पीड़ित दिखाते हुए सच्चाई बयाँ की जा सकती है, तो फिर भारत में क्यों नहीं?

दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं।

लेकिन अफ़सोस कि मुगलों द्वारा किए गए हिन्दुओं के नरसंहार से लेकर कश्मीरी पंडितों तक की व्यथा पर कोई फिल्म नहीं बनी। महमूद गजनी से लेकर यासीन मलिक तक की करतूतों को उलटा छिपाया ही गया, न तो हमने इतिहास में पढ़ा और न ही बॉलीवुड ने सच दिखाने की जहमत उठाई। इस फिल्म को देखने के बाद आप जानना चाहेंगे कि मीर शम्सुद्दीन ऐराकी कौन था? कैसे जिसे ‘सूफी संत’ बताया जाता है, उसने सन् 1477 में जम्मू कश्मीर में आकर शिया आतंक की नींव रखी।

इस फिल्म के पीछे गहरा रिसर्च किया गया है और विवेक अग्निहोत्री ने एक बार सोशल मीडिया के माध्यम से बताया भी था कि कैसे मीर शम्सुद्दीन ऐराकी ने खुद अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अगर कोई काफिर इस्लाम अपनाने से इनकार करता है तो सूफी लोग उसे रौंद डालेंगे और उसे ज़िंदा खा जाएँगे। कहा जाता है कि श्रीनगर सोनवार स्थित मंदिर में हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को उसने ध्वस्त किया था। पत्तन का शंकर गौरीश मंदिर हो या सुगंदेश मंदिर, उन्हें ऐराकी ने ही तबाह किया।

इस फिल्म को देखने के बाद एक आम आदमी पता लगाएगा कि ललितादित्य कौन थे। ललितादित्य मुक्तापीड के बारे में जम्मू कश्मीर के इतिहास के सबसे बड़े दस्तावेज कल्हण द्वारा रचित ‘राजतरंगिणी’ में दर्ज है, जिसमें बताया गया है कि भारत के एक बड़े हिस्से पर उनका शासन था। अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया के कई हिस्से उनके नियंत्रण में थे। परिहासपुर जैसे शहर हों या मार्तण्ड मंदिर जैसे पवित्र स्थल, ललितादित्य ने इन सबकी स्थापना की।

ये अलग बात है कि आज मार्तण्ड सूर्य मंदिर में विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक भारतीय सेना को बदनाम करने वाली फिल्म ‘हैदर (2014)’ बना कर ‘शैतानी नृत्य (Devil Dance)’ के लिए प्रयोग में लाते हैं। दूसरी तरफ देखें तो विधु विनोद चोपड़ा खुद एक कश्मीरी पंडित हैं, लेकिन अपनी फ़िल्में हिट कराने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों का महिमामंडन करते हैं। उनकी पत्नी अनुपमा चोपड़ा ‘समीक्षक’ बन कर ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों को बदनाम करती हैं।

आपने वो वीडियो देखा होगा, जिसमें सफूरा जरगर भारत विरोधी नाराएँ लगाती रहती हैं और वैश्विक वामपंथी प्रोपेगंडाबाज अरुंधति रॉय उसे स्नेहमयी नजरों से देखती रहती हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ में भी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेत्री पल्लवी जोशी का किरदार कुछ ऐसा ही है। ‘सिर्फ नाम रहेगा अल्लाह का’ जैसे नारों को ‘सेक्युलर’ बना कर भले ही प्रस्तुत किया जाता हो, लेकिन जब हम ऐसे नारों और गानों के वास्तविक अर्थ को समझते हैं तो हमें पता चलता है कि इस्लामी गिरोह का असली मकसद क्या है।

बीके गंजू नाम के एक युवा इंजीनियर को कश्मीर में मार डाला गया और उनकी पत्नी को पति के खून से सने चावल खाने के लिए विवश किया गया। वो एक चावल की बोरी में छिपे थे, लेकिन आतंकियों ने उन पर गोलियों की बौछार कर डाली। फिल्म देखने के बाद आपको ‘यहाँ क्‍या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’, ‘कश्‍मीर में अगर रहना है, अल्‍लाहू अकबर कहना है’ और ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान’ (हमें पाकिस्तान चाहिए और हिन्दू महिलाएँ भी, पुरुषों के बिना) जैसे नारों का मतलब पता चलता है।

क्या पता कल को हिन्दू महिलाओं के बलात्कार को बढ़ावा देने वाला ये नारा भी वामपंथी और इस्लामी गिरोह द्वारा एक गाने में ढाल दिया जाए। फिर इसके सहारे नया सेक्युलर एजेंडा चलाया जाने लगेगा और इसका अर्थ जाने बिना इसका महिमामंडन किया जाएगा। इसीलिए, हमें गिरोह विशेष द्वारा दिए जाने वाले एक-एक नारे और गाने के एक-एक शब्दों को समझने और उसे लेकर सतर्क रहने की जरूरत है। शाहीन बाग़ और दिल्ली दंगों में हम इसकी परिणीति देख चुके हैं।

अल्पसंख्यक कौन है, ये बहस भी इस फिल्म को देखने के बाद जरूरी हो जाता है। आखिर कश्मीर में बेचारे पंडित अल्पसंख्यक ही हो थे न। क्यों उनके लिए दुनिया के किसी भी अल्पसंख्यक अधिकार की बात करने वाले संगठनों ने आवाज़ नहीं उठाई? आज मिजोरम (2.75%), नागालैंड (8.75%), मेघालय (11.53%), अरुणाचल प्रदेश (29%), पंजाब (38.40%) और जम्मू कश्मीर (28.44%) में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। क्या उनके अधिकारों की कोई बात करता है?

‘द कश्मीर फाइल्स’ के साथ एक अच्छी बात ये है कि फिल्म में सचमुच ‘कश्मीरियत’ है। ऋषि कश्यप ने जिस कश्मीर को स्वर्ग बनाया और जगद्गुरु शंकराचार्य जहाँ केरल से चल कर पहुँचे, उस कश्मीर के बारे में बताया गया है। कश्मीरी भोजन और खाद्य पदार्थों को लेकर दुनिया को बताया गया है। अनुपम खेर खुद एक कश्मीरी पंडित हैं और उनका परिवार इस पलायन का भुक्तभोगी भी, इसीलिए उनकी भाषा में कश्मीरियत झलकती है। कश्मीरी भाषा में गीतों का भरपूर इस्तेमाल किया गया है।

ये फिल्म देख कर आप सोचेंगे कि क्यों और कैसे भारतीय वायुसेना के जवानों समेत कई हत्याओं का दोषी यासीन मलिक भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह से जाकर मिलता है। हालाँकि, इस दृश्य को सेंसर बोर्ड ने काट दिया है। आप सोचेंगे कि कैसे सैयस अली शाह गिलानी और मीरवाइज उमर फारुख जैसों को ‘गाँधीवादी’ बना कर पेश किया जाता है, लेकिन असल में ये सब उनके खूनी इतिहास को सफेदी देने के लिए होता है।

‘द कश्मीर फाइल्स’ देख कर आप सोचेंगे कि कैसे मीडिया भी वही दिखाता है, जो वामपंथी इकोसिस्टम चाहता है। आप सोचने को विवश होंगे कि कहीं आपका इलाका तो कभी नब्बे के दशक का कश्मीर तो नहीं बन जाएगा? आपके मन में सवाल उठेंगे कि कॉन्ग्रेस पार्टी ने अब्दुल्ला परिवार को हमेशा सिर पर क्यों चढ़ाए रखा? ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक फिल्म नहीं, वास्तविकता है। इतिहास है। इतिहास का चित्रण है। इसे ज़रूर देखिए। युवाओं को दिखाइए।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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