बिहार का एक जिला है सिवान, जहाँ 1990 से लेकर 2009 तक एक अपराधी का राजनीतिक वर्चस्व रहा। मोहम्मद शहाबुद्दीन नाम का ये अपराधी अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन आम लोगों के बीच गुंडागर्दी और खौफ का जो आलम इसने पैदा किया, वो शायद ही कहीं और देखने को मिलता है। लालू यादव की शह पर इसने तीन दशक तक सिवान पर राज किया। न सिर्फ राज किया, बल्कि हत्या, रंगदारी और अपहरण का एक रिकॉर्ड बना डाला।
मोहम्मद शहाबुद्दीन 1990 में पहली बार जीरादेई विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय जीत कर विधायक बना। 1995 में उसने ‘जनता दल’ के टिकट पर मैदान में उतर कर फिर से जीत दर्ज की। इसके एक साल बाद ही वो सिवान से सांसद बन गया। उसने 1996, 1998, 1999 और 2004 में लगातार 4 बार इस सीट से जीत दर्ज की। अगर आपको लगता है कि जीत का ‘छक्का’ लगाने वाला ये व्यक्ति उस क्षेत्र के लोगों का चहेता था या जननेता था, तो आप बिलकुल गलत हैं।
मोहम्मद शहाबुद्दीन बिहार के उन अपराधियों में से था, जिसका 80 के दशक में उदय हुआ। गरीब बिहार में कुछ सरकारी योजनाएँ आनी शुरू हुई थीं, अतः उसके लिए टेंडर वगैरह जारी किए जाते थे। यही कारण है कि 80 के दशक में अपराधी ठेकेदार बनने लगे और फिर अपने कारनामों को सफ़ेद जामा पहनाने के लिए नेता। मीडिया में ‘बाहुबली’ और अपने समर्थकों में ‘साहेब’ नाम से जाना जाने वाला मोहम्मद शहाबुद्दीन उनमें से ही एक था।
उसी पर आधारित है ZEE5 की 6 एपिसोड वाली वेब सीरीज ‘रंगबाज: डर की राजनीति’। इसमें न सिर्फ मोहम्मद शहाबुद्दीन (सीरीज में हरुल शाह अली) का जम कर महिमामंडन किया गया है, बल्कि उन ‘चंदा बाबू’ को विलेन बना कर पेश कर दिया गया है जिनके 3 बेटों की उसने बेरहमी से हत्या करवा दी थी। इतना ही नहीं, वामपंथी गिरोह की ‘Hindu Goons’ वाली नैरेटिव में ये जम कर फिट होता है। क्लाइमैक्स को वास्तविकता से दूर कर के शहाबुद्दीन को ‘जननेता’ बताने की कोशिश की गई है और उसके हर एक अपराध पर पर्दा डालने के लिए ‘वाजिब कारण’ खोजने की कोशिश की गई है।
वैसे बॉलीवुड में अपराधियों का महिमामंडन कोई नई बात नहीं है। अंडरवर्ल्ड के सरगना दाऊद इब्राहिम को तो कई फिल्मों में नायक बना कर पेश किया जा चुका है। हाजी मस्तान को भी मसीहा बना कर पेश किया गया। दाऊद की बहन तक पर फिल्म बनी। ‘रईस’ में शाहरुख़ खान ने आतंकी अब्दुल लतीफ के किरदार को ‘देवता’ बना कर पेश किया। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। ‘रंगबाज: डर की राजनीति’ बॉलीवुड की इसी श्रृंखला को आगे बढ़ाता है।
हिन्दू-मुस्लिम दंगों का मतलब मुस्लिमों को खदेड़ते हिन्दू गुंडे, मुस्लिम ही पीड़ित
फिल्म में मोहम्मद शहाबुद्दीन को बचपन में एक हिन्दू-मुस्लिम दंगों में घिरते हुए दिखाया गया है। बॉलीवुड के लिए हिन्दू-मुस्लिम दंगों का अर्थ हुआ ‘पीड़ित’ मुस्लिमों का पीछे करते हिन्दू गुंडे। मुस्लिम महिलाओं और बच्चों की जान के प्यासे भगवाधारी गुंडे। इस वेब सीरीज में दिखाया गया है कि बच्चा शहाबुद्दीन जब अपने हिन्दू दोस्त के साथ स्कूल से लौट रहा होता है, तब मुस्लिम इलाकों में हिन्दू गुंडे तबाही मचा रहे होते हैं।
फिर वो उसके पीछे पड़ जाते हैं, लेकिन उसके हिन्दू दोस्त की माँ उन दोनों को अपने घर में पनाह देकर बचा लेती हैं। और हाँ, भले ही दिल्ली दंगों से लेकर कई ऐसे मामलों में हिन्दुओं की दुकानें चुन-चुन कर जलाए जाने की घटनाएँ सामने आती हों, लेकिन इस वेब सीरीज में शहाबुद्दीन के अब्बा की दुकान हिन्दू गुंडे जला डालते हैं। ऊपर से पुलिस भी मुस्लिमों का मजाक बनाती है। ‘हिन्दुओं द्वारा मुस्लिमों के कत्लेआम’ का डर दिखाती है, तंज कसती है।
अब भला इस तरह के तंज से कोई शहाबुद्दीन गुंडा क्यों न बने? यही है नैरेटिव। एक अन्य दृश्य में जब शहाबुद्दीन को उसके भाई की तरह बाहर जाने और नौकरी या व्यापार करने को बोला जाता है तो वो अपने अब्बा से पूछता है कि वहाँ किसी ने मेरी दुकान जला दी तो? इसी कारण वो अपराधी बन जाता है। ये सब देखने में काफी बचकाना लगता है। नैरेटिव ये फैलाने की कोशिश की गई है कि हिन्दू गुंडों की वजह से मुस्लिम अपराधी बनते हैं। कई फिल्मों में हम दंगों की वजह से मुस्लिमों को अपराधी बनते देख चुके हैं।
ज़मींदारों ने शहाबुद्दीन को खड़ा किया, बाद में उन्हें हराने के लिए ही राजनीति में आया गैंगस्टर
इस वेब सीरीज में इतिहास का ज्ञान बघारते हुए बताया गया है कि जो पहले जमींदार हुआ करते थे, वही बाद में नेता बन गए। क्या लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान या सुशील मोदी जमींदारों के परिवार से सम्बन्ध रखते हैं? नहीं। बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह या फिर उप-मुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिन्हा दलितों पर अत्याचार करने वाले जमींदार थे? जमीदारों के बहाने सवर्णों और फिर हिन्दुओं को अत्याचारी साबित करने की कोशिश नई नहीं है।
याद कीजिए, कैसे केरल में मोपला मुस्लिमों द्वारा किए गए हिन्दुओं के घोर नरसंहार को ‘किसान विद्रोह’ बता कर हमें पढ़ाया जाता रहा। बताया गया कि जमींदारों की क्रूरता से तंग आकर किसानों ने बगावत कर दी। जबकि ये एक जिहाद था, हिन्दुओं के खिलाफ। उसी तरह यहाँ भी ‘दशरथ सिंह’ नाम का एक किरदार गढ़ा गया है ‘क्रूर जमींदारों’ का प्रतिनिधित्व करने के लिए। दिखाया गया है कि दशरथ सिंह ही शहाबुद्दीन को अपराध की दुनिया में लेकर आता है और उससे अपने काम करवाता है, अपनी जमीन की सुरक्षा करवाता है।
यहाँ हमको शहाबुद्दीन के अपराधी बनने का दूसरा कारण मिल जाता है। पहले हिन्दू गुंडे, दूसरी जमींदारी। दशरथ सिंह से जब शहाबुद्दीन चुनाव लड़ने की अनुमति माँगता है तो वो अपने गुर्गों के साथ उसका मजाक बनाता है, इसके बाद वो उसे ही हरा देता है। अब हम आपको बताते हैं कि दशरथ सिंह का किरदार किनसे प्रेरित है। उन शख्स का नाम है त्रिभुवन नारायण सिंह, कैप्टन डॉक्टर त्रिभुवन नारायण सिंह। सिवान के सबसे इज्जतदार नामों में से एक।
वो 1985 में कॉन्ग्रेस के टिकट पर विधायक बने थे। मई 2022 में ही 80 साल की उम्र में उनका निधन हुआ था। ये वो व्यक्ति हैं, जो न सिर्फ एक दशक सेना में रहे थे बल्कि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी देश की सेवा की थी। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में जिले में उनका योगदान लोग आज भी याद करते हैं। हरेराम कॉलेज की नींव रखने में मुख्य भूमिका निभाने वाले कैप्टन डॉ त्रिभुवन नारायण सिंह इस कॉलेज की समिति के सचिव थे।
उन्होंने ‘राजेंद्र सेवाश्रम’ में बतौर चिकित्सक कार्य किया और इसके जीर्णोद्धार के लिए वो अपने निधन से कुछ दिन पहले तक लगातार प्रयासरत थे। मैड़वा के कोरवा और नौतन में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र की स्थापना में उनकी भूमिका थी। देश के लोकप्रिय डर्मेटोलॉजिस्ट टीएन कई हथियार को चलाने में माहिर थे। उन्होंने ये कह कर शहाबुद्दीन की पैरवी करने से इनकार कर दिया था कि वो अपराधियों का साथ नहीं देंगे। फिर शहाबुद्दीन ने भी राजनीति में उतरने की ठानी और 1990 के चुनाव में उसने अपराध की सारी सीमाएँ पार कर के उन्हें हरा दिया। ऐसे व्यक्ति को अपराधियों का पनाहगार दिखाया गया है।
रंगदारी = रक्षा, अगर अपराधी मुस्लिम हो
इस वेब सीरीज में दिखाया गया है कि शहाबुद्दीन या उसने गुंडे व्यापारियों से हफ्ता माँगने नहीं जाते हैं, बल्कि सारे व्यापारी खुद आकर उससे कहते हैं कि हमसे हफ्ता लो और हमारी रक्षा करो। अर्थात, रंगदारी ‘रक्षा’ बन जाता है, जब उसे वसूलने वाला कोई मुस्लिम अपराधी हो। सिवान के व्यापारी अपनी दुकानों में ‘साहेब’ की फोटो रखते हैं, उससे डरते नहीं बल्कि इज्जत करते हैं। व्यापारियों में उसका कोई डर नहीं है, सभी स्वेच्छा से उसके साथ हैं।
जबकि सच्चाई ये थी कि अगर किसी दुकानदार ने शहाबुद्दीन के विपक्षी उम्मीदवार का पोस्टर-बैनर गलती से भी लगा लिया तो उसकी शामत आ जाती थी। 2004 का लोकसभा चुनाव शहाबुद्दीन ने जेल से ही जीता था। जेल में रहते उसने अस्पताल में रहने का इंतजाम कर लिया था। एक फ्लोर पूरा उसके लिए बुक था और वहाँ से वो राजनीतिक बैठकें करता था। चुनाव में उसकी जीत हुई और उसके बाद कई जदयू कार्यकर्ताओं की हत्याएँ हुईं, क्योंकि जदयू के ओमप्रकाश यादव ने उसे कड़ी टक्कर दी थी।
1997 में राजद के गठन के बाद लालू यादव के हाथ में सत्ता पूरी तरह से आ गई और फिर शहाबुद्दीन सिवान में कानून का पर्याय बन गया। जिस व्यक्ति से पुलिस तक काँपती थी, व्यापारियों और कारोबारियों में उसके खौफ का आप अंदाज़ा लगा लीजिए। अगर शहाबुद्दीन की जनता के बीच उतनी ही लोकप्रियता रहती तो उसकी बीवी हिना शहाब लगातार तीन बार (2009, 2014, 2019) लोकसभा का चुनाव नहीं हारती। कॉलेज के जमाने से ही अपराध की दुनिया में आगे बढ़ने वाले शहाबुद्दीन को लेकर लोगों में इज्जत नहीं, डर था।
चंदा बाबू को ही बना दिया ‘अपराधी’, एक पीड़ित बुजुर्ग को दिखाया ‘विकास में बाधक’
ZEE5 पर आए वेब सीरीज ‘रंगबाज: डर की राजनीति’ की मानें तो चंदा बाबू विकास में बाधक बन रहे थे। एक वर्ल्ड क्लास अस्पताल बनवाने के लिए सभी व्यापारियों ने अपनी जमीनें दे दी, लेकिन वो दोगुनी कीमत मिलने के बावजूद अपनी दुकान नहीं दे रहे थे। उनके बेटों ने तेजाब से शहाबुद्दीन के लोगों पर हमला किया, इसीलिए शहाबुद्दीन ने उनके दो बेटों को तेजाब से नहला कर मार डाला। इसके बाद टुकड़े-टुकड़े कर के उनके शव फेंक दिए गए थे, ये नहीं दिखाया गया है।
तीसरा भाई बाद में गवाही देने आता है, लेकिन उसे भी मार डाला जाता है। सीरीज के अंत में जेल में रह रहे चंदा बाबू ही शहाबुद्दीन से माफ़ी माँगने के बहाने उसके पास आते हैं और उसे मार डालते हैं। चंद्रकेश्वर प्रसाद उर्फ़ चंदा बाबू का दिसंबर 2020 में हार्ट अटैक से निधन हो गया था। तीन जवान बेटों की अर्थी को कंधा देने वाला ये व्यक्ति अंत समय तक अपने बेटों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ता रहा। उन्हें इस वेब सीरीज में सिवान के विकास में रोड अटकाने वाला बताया गया है।
असली बात ये है कि चंदा बाबू की दुकान पर आए शहाबुद्दीन के गुंडों ने ढाई लाख रुपए लूट लिए थे। उनके बेटे सतीश 40,000 रुपए तक देने को तैयार भी हो गए थे, लेकिन गुंडे उन्हें पीटने लगे। भाई राजीव ने उन्हें बचाने के लिए बाथरूम में रखा एसिड गुंडों की तरफ फेंका, जिसकी कुछ छींटें उन पर पड़ गईं। फिर शहाबुद्दीन के आदेश के बाद भाई गिरीश और सतीश को राजीव के सामने दोनों को तेजाब से नहला कर मार डाला गया और शव टुकड़े-टुकड़े कर बोरियों में नमक के साथ रख कर फेंक दिया गया।
फिर चंदा बाबू की दुकान भी लूटपाट के बाद जला डाली गई। वेब सीरीज में बचपन में शहाबुद्दीन की दुकान जलती हुई दिखाई गई है। सिवान से लेकर पटना और दिल्ली तक चंदा बाबू धक्के खाते रहे, लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला। गवाही देने आया तीसरा बेटा राजीव भी मारा गया। चंदा बाबू और उनकी पत्नी कलावती ने हिम्मत नहीं हारी। विकलांग बेटे और पत्नी की देखरेख भी उनके जिम्मे थी। वो कहते थे, “या तो भगवान मार दें, या शहाबुद्दीन।”
अपराधी नहीं, ‘विकास पुरुष’ शहाबुद्दीन: महिला अधिकारों की करता है बात
आपने अक्सर कई मामलों में देखा है जहाँ अपराधी के मुस्लिम होने पर उसे पागल कह दिया जाता है। गोरखपुर मंदिर के हमलावर को पागल कह दिया गया। परिवार ने कहा उन्हें कुछ पता ही नहीं है। जबकि कमलेश तिवारी मामले में हम देख चुके हैं कैसे परिवार भी जिहाद में उनका साथ देता है। लेकिन, फिल्मों में मुस्लिम अपराधियों के परिवार वाले बड़े ही उसूल वाले होते हैं। शहाबुद्दीन के अब्बा उससे बातें नहीं करते, अपराध से नफरत करते हैं और उसके बनाए घर में नहीं रहते, न ही उसका दिया कोई सामान लेते हैं।
शहाबुद्दीन की बीवी उसे अपराध करने से मना करती है, डाँटती है। जबकि सच्चाई ये है कि पूरा का पूरा परिवार जिहाद में साथ होता है। MLC चुनाव के दौरान निर्दलीय प्रत्याशी रईस खान पर AK-47 से अंधाधुन गोलीबारी हुई थी। इस मामले में शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा को नामजद किया गया था। ये इसी साल अप्रैल की घटना है, शहाबुद्दीन के मरने के 1 साल बाद की। हिना शाहब ने रोते हुए पलायन की धमकी दे डाली और बेटे को निर्दोष बताया। असल जीवन में परिवार ने शहाबुद्दीन के अपराधों का बचाव ही किया।
शहाबुद्दीन इस वेब सीरीज में ‘विकास पुरुष’ है। जेल में एक कॉन्स्टेबल बताता है कि कैसे उसकी बेटियाँ उसी के खोले कॉलेज में पढ़ पाई हैं। वो अपनी बीवी को बताता है कि कैसे उसने संसद में महिला शिक्षा पर भाषण दिया। फिर समझाता है कि इन मुद्दों पर बोलने के लिए उसे संसद पहुँचना होगा और वहाँ तक जाने के लिए ये सब करना पड़ता है। फिल्म में वामपंथी नेता चंद्रशेखर सिंह को शहाबुद्दीन का बचपन का दोस्त बताया गया है, जबकि दोनों साथ नहीं पढ़े थे और दोस्त नहीं थे। चंद्रशेखर सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी।
प्रतापपुर मुठभेड़ को भी इसमें शहाबुद्दीन द्वारा ‘आत्मरक्षा में की गई कार्रवाई’ साबित करने का प्रयास किया गया था। असल में उसने एक एसपी को पीटा था और उसके आदमियों ने कई पुलिसकर्मियों की पिटाई की थी, जिसके बाद कई थानों की पुलिस उसके घर पहुँची थी। इस मुठभेड़ में 13 लाशें गिरी थीं। ISI, पाकिस्तान और अंडरवर्ल्ड से कनेक्शन रखने वाले शहाबुद्दीन के खौफ से निजात के लिए सेना की टुकड़ी को सिवान में तैनात करना पड़ा था। मुठभेड़ के बाद पुलिस को ही क्रूर बताते हुए लालू यादव की सरकार ने शहाबुद्दीन का साथ दिया।