स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) ने युवाओं को एक सन्देश दिया था कि ‘गीता पढ़ने से बेहतर है कि फुटबॉल खेलो’। स्वामी जी का युवाओं से किया गया यह एक विशेष आह्वान अक्सर विवाद और चर्चा का विषय रहता है। वामपंथी बुद्धिपिशाच उनके इस बयान को अपना ध्येय साधने के उद्देश्य से करते आए हैं, जबकि कुछ सनातनी भी अक्सर इस बयान के भ्रम में पड़ कर भड़क उठते हैं, बिना ये समझे कि वास्तव में स्वामी विवेकानंद के वक्तव्य के गहरे निहितार्थ क्या थे।
स्वामी विवेकानंद के इस बयान को तोड़ मरोड़कर सामने रखने और अपने उद्देश्यों को पूरा करने का यह प्रयास इस बार जॉय भट्टाचार्य द्वारा किया गया है। जॉय भट्टाचार्य ने स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन पर उनके इस कथन को कोट करते हुए अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा, “आप गीता के अध्ययन की तुलना में फुटबॉल के माध्यम से स्वर्ग के ज्यादा करीब होंगे। स्वामी विवेकानंद, आज के दिन 1863 में पैदा हुए थे। उन्होंने 1880 में टाउन क्लब का प्रतिनिधित्व करते हुए एक बार 7 विकेट भी लिए थे। संयोग से, हाल ही में टाउन क्लब से निकला हुआ कोई खिलाड़ी, जिसने कामयाबी हासिल की वह मोहम्मद शमी है।”
“You will be nearer to Heaven through football than through the study of the Gita.”
— Joy Bhattacharjya (@joybhattacharj) January 12, 2021
Swami Vivekananda, born on this day in 1863. He also once took 7 wickets representing Town Club in the 1880s. Incidentally, the most recent Town Club player to make it big is Mohammed Shami pic.twitter.com/D2lOr4HDKM
निश्चित ही, जॉय भट्टाचार्य का उद्देश्य यहाँ पर ना ही गीता का महिमामंडन, या स्वामी विवेकानंद का स्मरण करना नहीं था। जॉय का इशारा स्वामी विवेकानंद के कथन को धूर्तता से रखते हुए यह साबित करना था कि गीता पढ़ना एक बेकार काम है और फुटबॉल बेहतर विकल्प है। अगर आशय इस तरफ इशारा न करता तो जॉय को किसी फुटबॉलर का नाम लिखना चाहिए था न कि फुटबॉल का उदाहरण दे कर एक मुस्लिम खिलाड़ी का। मोहम्मद शमी भारत के बेहतरीन क्रिकेटर हैं, इसमें दोराय नहीं है, लेकिन जॉय भट्टाचार्य क्या हैं, वह भी दिख रहा है।
कई बार लोग ज्यादा स्मार्ट दिखने के चक्कर में अपनी फजीहत कराते हैं। जब संदर्भ का ज्ञान न हो, तो व्यक्ति को फोटो पर ‘योर कोट्स’ टाइप की बातें लिख कर लहरिया लूट लेना चाहिए, क्योंकि ज्योंहि आप उससे बाहर टाँग फैलाते हैं, आपकी ज्ञानरूपी चादर के पतले होने के कारण छेद दिखने लगता है। जाहिर है कि स्वामी जी ने यह बात किसी खास संदर्भ में कही होगी क्योंकि अगर यह वाक्य संदर्भहीन होता तो विवेकानंद का नाम पेले और मैराडोना के साथ लिया जाता, न कि सनातन दर्शन के स्वर्णिम स्तम्भ के रूप में।
क्या था स्वामी विवेकानंद का ‘गीता के बजाय फुटबॉल’ से आशय
क्या वास्तव में स्वामी विवेकानंद के ‘गीता के बजाय फुटबॉल’ वाले कथन का अर्थ वही है, जैसा कि कुछ लोग अपनी कुटिलता के जरिए साबित करने का प्रयास करते हैं? इसके लिए उस किस्से को समझना बेहद जरुरी है, जहाँ से स्वामी विवेकानंद के गीता को लेकर दिए गए इस बयान की शुरुआत हुई।
वास्तव में, यह बांग्ला भाषा में गीता के गेय पदों का काव्य रूपांतरण करने वाले आचार्य सत्येन्द्र बनर्जी थे, जिन्होंने बचपन में स्वामी विवेकानंद से गीता पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। इस पर स्वामी जी ने उनसे कहा था कि उन्हें पहले 6 माह तक फुटबॉल खेलना होगा, निर्धनों और असहायों की मदद करनी होगी तभी वो उनसे गीता पाठ की बात रखने के लायक होंगे।
इस पर जब बालक ने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि गीता तो एक धार्मिक ग्रंथ है, फिर इसके ज्ञान के लिए फुटबॉल खेलना क्यों जरुरी है? इस पर स्वामी जी ने अपने जवाब में कहा, “गीता वीरजनों और त्यागी व्यक्तियों का महाग्रंथ है। इसलिए जो वीरत्व और सेवाभाव से भरा होगा, वही गीता के गूढ़ श्लोकों का रहस्य समझ पाएगा।”
06 माह तक स्वामी जी के बताए तरीकों का अनुसरण करने के बाद जब बालक वापस स्वामी के पास लौटे, तो स्वामी विवेकानंद ने उन्हें गीता का ज्ञान दिया। विवेकानंद के फुटबॉल खेलने का असल मायनों में यही मतलब रहा होगा कि स्थूल शरीर प्रखर विचारों का जनक नहीं हो सकता।
यदि हम अपने आस-पास की दिनचर्या को ही देखें तो सोशल मीडिया इस्तेमाल करने से लेकर टेलीविजन, नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार आदि देखने तक, कुछ पढ़ने से लेकर कहीं घूमने तक, अक्सर हम लोग मात्र एक दर्शक की तरह ही जीते हैं। हम असलियत में किसी भी चीज का हिस्सा नहीं होते। जिन पुस्तकों को हम पढ़ रहे होते हैं, हम वह किरदार नहीं होते, ना ही टीवी पर क्रिकेट देखते समय हम वो खिलाड़ी होते हैं। कुल मिलकर हम ‘मैदान’ से नदारद ही रहते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने भी यही कहा था। असल में विवेकानंद का यह कथन उन्हीं की पुस्तक ‘कोलंबो से अल्मोड़ा तक व्याख्यान’ (Lectures from Colombo to Almora) का एक हिस्सा है। स्वामी जी के शब्दों में,
“हम कई चीजों की बात तोते की तरह करते हैं, लेकिन उन्हें कभी नहीं करते; बोलना और न करना हमारी आदत बन गई है। उसका कारण क्या है? शारीरिक कमजोरी। इस तरह का कमजोर मस्तिष्क कुछ भी करने में सक्षम नहीं है; हमें इसे मजबूत करना चाहिए। सबसे पहले, हमारे युवा मजबूत होने चाहिए। धर्म बाद में आएगा। मजबूत बनो, मेरे युवा मित्र; मेरी आपको यही सलाह है। गीता के अध्ययन की तुलना में आप फुटबॉल के माध्यम से स्वर्ग के नजदीक होंगे। ये साहसी शब्द हैं; लेकिन मुझे उनसे कहना है, क्योंकि मैं तुमसे प्यार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि जूता कहाँ पर चुभता है। मुझे थोड़ा अनुभव हुआ है। आप अपने बाइसेप्स, अपनी मसल्स को थोड़ा मजबूत करके गीता को बेहतर समझेंगे। आप अपने अंदर थोड़े से मजबूत रक्त से कृष्ण की महान प्रतिभा और कृष्ण की ताकत को बेहतर समझ सकेंगे। आप उपनिषदों को बेहतर समझेंगे, जब आपका शरीर आपके पैरों पर दृढ़ होता है, और आप अपने आप को पुरुष के रूप में महसूस करते हैं। इस प्रकार हमें अपनी आवश्यकताओं के लिए इन्हें लागू करना होगा।”
स्वामी जी किसी को गीता फेंकने और सिर्फ फुटबॉल खेलने के लिए नहीं कह रहे हैं। वह कह रहे हैं कि स्वस्थ शरीर उसी ‘कर्म योग’ की पूर्ति के लिए आवश्यक है, जिसका वर्णन गीता में भगवान कृष्ण ने भी दिया।
जॉय भट्टाचार्य जैसे लोग सैकड़ों हैं, जिन्हें स्वामी विवेकानंद के सभी आदर्शों में आपत्ति नजर आ ही जाती हैं। यह वही लोग हैं, जो जेएनयू में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा से छेड़खानी करने वाली मानसिकता का समर्थन करते हैं और उन्हें इसमें हिंसा और घृणा का अंश नजर नहीं आता।
स्वामी जी के विचारों में ये जमात आज तक भी गीता, स्वर्ग और फुटबॉल के भ्रामक विवरण के अलावा अपने वैचारिक टार के पोषण के लिए कुछ और नहीं तलाश पाए हैं। गीता का विस्तार और स्वामी विवेकानंद का दर्शन अभी वामपंथ की पहुँच की सभी सीमाओं से बहुत आगे है। लेकिन क्रन्तिकारी और प्रगतीशीलों को पहले यह तय करना होगा कि क्या वे किसी एक ऐसे व्यक्ति के प्रगतिशील विचारों को स्वीकार कर पाएँगे, जिसके सर पर भगवा था?