भारत में हिन्दुओं और सिखों का संयुक्त इतिहास इस्लामी आक्रांताओं की क्रूरता से लड़ने का रहा है। दोनों अलग-अलग धर्म रहे ज़रूर, लेकिन सनातन की छत्रछाया में। तभी सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने रामायण लिखी और तभी गुरु ग्रन्थ साहिब में 2500 बार ‘राम’ शब्द आता है। गुरु नानक के समय से लेकर अब तक हिन्दू और सिख एक-दूसरे के इष्ट व गुरुओं का सम्मान करते रहे हैं। हिन्दुओं के घर में आपको गुरु नानक की तस्वीर मिलेगी और सिखों के यहाँ भगवान शिव की।
ऐसा नहीं है कि हिन्दू धर्म और सिख धर्म में सब कुछ समान था। दोनों में कई अंतर भी थे। हिन्दू धर्म से बौद्ध, जैन और सिख सहित कई संप्रदाय निकले लेकिन अंत में सब के सब यहीं समाहित हुए। सिख धर्म में गुरु नानक के बाद ही एक अलग संप्रदाय का निर्माण हो गया था, जिसका नाम था – उदासी मत। इसकी स्थापना उनके बेटे बाबा श्रीचंद ने ही की थी। सिख संप्रदाय में गृहस्थी व समाज में रह कर जीवन को पवित्र बनाने पर जोर था, जबकि ‘उदासी मत’ में संसार के पूर्ण त्याग पर बल दिया गया।
कौन थे बाबा श्रीचंद जी? कैसे अपने पिता गुरु नानक से अलग थी उनकी विचारधारा
बाबा श्रीचंद जी का जन्म 15वीं शताब्दी के अंतिम दशक के मध्य में हुआ था। गुरु नानक के बाद जहाँ सिखों के दूसरे गुरु अंगद देव जी ने सिख धर्म का प्रचार-प्रसार किया, वहीं बाबा श्रीचंद ने उदासी संप्रदाय का। चौथे गुरु अमरदास का स्पष्ट कहना था कि सिख धर्म और उदासी संप्रदाय अलग-अलग है। इसीलिए, सिख धर्म भी उदासी और गृहस्थ – इन दो भागों में बँट गया था। गृहस्थों में भी अमृतधारी और सहजधारी गुट थे।
सिखों में निर्मल और अकाली, ये दो भाग थे। जहाँ निर्मल वाले ने ज्ञान-विज्ञान व धर्म के प्रसार का जिम्मा संभाला, अकालियों ने इस्लामी क्रूरता के विरुद्ध शस्त्र उठाए। सिख साम्राज्य की स्थापना करने वाले महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भी अकाली अच्छी-खासी संख्या में थे। निर्मल समुदाय को ब्राह्मणों की तरह ही ज्ञानी माना गया। अहिंसा प्रिय और निरापद सिखों को भी संघर्ष के लिए इस्लामी आक्रांताओं के सामने हथियार उठाने पड़े थे।
यहाँ हम बात कर रहे हैं बाबा श्रीचंद की। जहाँ गुरु नानक अपने भक्तों में ज्ञान भरने में लगे हुए थे, उनके बेटे सांसारिक कार्यों से दूर हमेशा ब्रह्मचेतना में ही लीन रहते थे। जवाहरलाल नेहरू की केंद्रीय कैबिनेट में कृषि मंत्री रहे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी लिखते हैं कि महाराणा प्रताप अकबर से लड़ते-लड़ते जब परेशान और निराश हो गए थे, तब बाबा श्रीचंद ने उनका उत्साहवर्धन किया था। प्राचीन काल से ही भारत में ऋषि-मुनि राजाओं को सही मार्ग दिखाते रहे हैं।
संसार को मिथ्या और माया समझने वाले बाबा श्रीचंद बचपन से ही संन्यास ग्रहण की इच्छा रखते थे। वो जहाँ जंगल में रहने की बातें करते थे, गुरु नानक गृहस्थी बसाने का उपदेश देते थे। वो संसार के त्याग की बात करते थे, उनके पिता संसार में रह कर ज्ञान अर्जन पर बल देते थे। बाबा श्रीचंद जी की माँ का नाम सुलखणी देवी था। कहते हैं, अपनी बहन नानकी बीबी के कहने पर गुरु नानक ने परिवार को आगे बढ़ाने का फैसला लिया था।
सिख समुदाय में आगे भी कई बड़े संत उदासी मत के समर्थक हुए। सिखों के छठे गुरु हरगोविंद के बेटे बाबा गुरदित्ता ने उदासी मत अपनाया। इसी तरह सातवें गुरु हर राय के बेटे राम राय ने उदासी मत को आगे बढ़ाया। सिखों में मान्यता है कि बाबा श्रीचंद जी का जीवन काफी लंबा था और अपने 135 वर्ष के आयुकाल में उन्होंने 5 सिख गुरुओं से अच्छे रिश्ते निभाए। तीसरे गुरु अमर दास के बेटे बाबा मोहन उनके संप्रदाय में शामिल हुए।
हिन्दू समाज से कैसे थे गुरु नानक और सिखों के रिश्ते?
गुरु नानक एक तरह से वो नाम हैं, जहाँ हिन्दू और सिख धर्म मिलते हैं। आज भले ही कनाडा और अमेरिका में बसे खालिस्तानी ये मानते हों कि हिन्दू धर्म से उनका कोई लेनादेना नहीं, लेकिन हर एक सिख आज भी खुद को सनातन का अंग मानता है और गुरु नानक खुद ‘भक्ति आंदोलन’ से प्रभावित थे। कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत तो हिन्दू धर्म में पहले से ही था, वो सिख धर्म में भी आया। मोक्ष का सिद्धांत भी हिन्दू धर्म में प्राचीन काल से ही रहा है।
भक्ति युग के कवियों कबीर, नामदेव और रैदास की रचनाएँ हमें पवित्र गुरु ग्रन्थ साहिब में मिलती हैं। ये सभी हिन्दू कवि व संत थे, सिख नहीं थे। सिखों में सिमरन और सेवा का महत्व है। संस्कृत में भी याद करने को ‘स्मरण’ कहते हैं, जो सिख धर्म में ईश्वर का ‘सिमरन’ बन गया। हाँ, सिख धर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं हुआ और वहाँ ईश्वर को निर्गुण माना गया। लेकिन आप देखिए, शंकराचार्य का अद्वैत भी तो यही था, जिसमें संपूर्ण सृष्टि को ही ब्रह्म माना गया।
इस्लाम की क्रूरता से लड़ने के लिए सिख धर्म में खालसा की स्थापना हुई, जिसने हथियार उठा कर औरंगज़ेब जैसे हिंसक राजाओं से संघर्ष किया। उदासीन मत के कई महंतों ने गुरुद्वारों का प्रबंधन व देखरेख का जिम्मा उठाया था। उदासी मत में मूर्तिपूजा होती है और वो विष्णु और शिव की आराधना करते हैं। उनके लिए सिख व हिन्दू एक हैं। कहते हैं, अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के बाद सिखों के गुरुद्वारों के प्रबंधन के लिए अलग संस्था बनी और उदासी महंतों को दरकिनार कर दिया गया।
सिख धर्म पर अध्ययन कर चुके इतिहासकार प्रोफेसर लुइस फेनेस का मानना है कि सिख धर्म की जड़ें भारत की संत परंपरा में ही हैं। गुरु तेग बहादुर ने जिस तरह कश्मीरी पंडितों की मदद की थी और इसके लिए औरंगजेब तक से भिड़ गए थे, तभी उन्हें ‘हिन्द की चादर’ कहा गया और उनके बलिदान को आज भी हम याद करते हैं। उन्होंने भले अपना बलिदान दे दिया, लेकिन इस्लाम अपनाने को राजी न हुए।
कृपा राम के नेतृत्व में करीब 500 कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर से मिले थे। तब कश्मीर में हिन्दुओं का उत्पीड़न और जबरन धर्मांतरण जोरों पर था। इफ्तिखार खान की इन ज्यादतियों पर गुरु तेग बहादुर ने कहा कि बलिदान देने के लिए तैयार रहने वाले ही इससे संघर्ष कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि औरंगजेब से कह दो कि वो उन्हें धर्मांतरित करना चाहता है तो पहले गुरु को मुस्लिम बना कर दिखाए। उन्हें रोपड़ से गिरफ्तार कर दिल्ली लाया गया और चाँदनी चौक पर उनका सिर कलम कर दिया गया।
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर के पक्ष में जो दलीलें दी गईं, उनमें एक गुरु नानक देव से जुड़ा हुआ भी था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने 1045 पेज के जजमेंट में गुरु नानक देव जी का भी जिक्र किया है। उनका नाम आते ही यह साफ़ हो जाता है कि अयोध्या में बाबर के आक्रमण से पहले भगवान श्रीराम की पूजा होती थी। 1858 में निहंग सिखों ने बाबरी में घुस के राम नाम अंकित कर दिया था।
अयोध्या फ़ैसले की जो कॉपी है, उसमें पृष्ठ संख्या 991-995 में सिखों के प्रथम गुरु का जिक्र किया गया है। एक तरह से ये प्रमुख आधार रहा, जिसका संज्ञान लेते हुए अदालत ने यह माना कि बाबर के आक्रमण से वर्षों पहले भी अयोध्या एक तीर्थस्थल था और वहाँ पूजा-पाठ होते थे। दरअसल, सुनवाई के दौरान राजिंदर सिंह नामक वकील कोर्ट में पेश हुए थे, जो सिख इतिहासकार हैं और सिख साहित्यों के बड़े विद्वान भी हैं। उन्होंने सिख साहित्यों के आधार पर यह साबित किया कि गुरु नानक देव 1510 में भगवान श्रीराम का दर्शन करने गए थे।
औरंगजेब से लड़ाई के समय राजा धर्मपाल जैसे हिन्दू राजा ने गुरु गोविंद सिंह का साथ दिया। गुरु अर्जुन दास ने ‘आदिग्रन्थ’ में ही रामकथा कह दी है। अवतारों को मान्यता न देने के बावजूद ‘हुकमि उपाई दस अवतारा‘ लिख कर गुरुवाणी ने सनातन के दशावतार को मान्यता दी है। राम-रावण युद्ध का प्रसंग भी उसमें है। “भूलो रावण मुगधु अचेति, लूटी लंका सीस समेत” वाली पंक्ति पर गौर कीजिए। गुरु गोविंद सिंह ने नैनादेवी पहाड़ के नीचे सतलज नदी के किनारे बैठ कर जुलाई 23, 1698 को ‘रामावतार’ की रचना पूरी की थी।
हिन्दू और सिख धर्म में क्या रही है समानताएँ?
सिख धर्म में शुरू में मूर्तिपूजा की मनाही थी। हिन्दुओं में भी आर्य समाज और वेदों का अनुसरण करने वाले लोग मूर्तिपूजा नहीं करते। निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा हिन्दू धर्म में भी है, जहाँ ईश्वर को कभी न जन्म लेने वाले और कभी मृत्यु को प्राप्त न होने वाला बताया गया है। आज भी गुरुद्वारों में पवित्र गुरु ग्रन्थ साहिब को रखा जाता है और वहाँ अरदास होती है। सिखों का मानना है कि स्वर्ग-नरक इसी धरती पर हैं और सभी को कर्म के अनुसार फल मिलता है।
सिखों में भी तीर्थयात्रा होती रही है। ऊपर हमने देखा कि गुरु नानक खुद श्रीराम लला का दर्शन करने अयोध्या गए थे। इसी तरह आज भी करतारपुर साहिब सिख दर्शन करने जाते हैं, जहाँ गुरु नानक अपने शरीर का त्याग करने से पहले 18 वर्षों तक रहे थे। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में दर्शन करने दूर-दूर से हिन्दू व सिख जाते हैं। हिन्दुओं की तरह सिखों में भी जाति-व्यवस्था है और शादी-विवाह में भी इसे देखा जाता है।
हालाँकि, शुरू में सिख गुरुओं ने हमेशा जाति-प्रथा का विरोध किया। हिन्दुओं में भी एक वर्ग ऐसा रहा है जो पशु बलि को आज भी सही मानता है, वहीं अधिकतर हमारे यहाँ अहिंसा की बात की गई है और निरीह जीवों की हत्या पर प्रतिबंध है। सिख धर्म में पशुबलि पर प्रतिबंध है और गुरु गोविंद सिंह ने धार्मिक बलि के द्वारा मिले माँस खाने से मना किया था। हालाँकि, निहंग और हज़ूरी सिख पशुबलि को सही मानते हैं।