हम आपके लिए हिन्दू-सिख इतिहास सीरीज की दूसरी कड़ी लेकर आए हैं, जिसमें हम आपको बताएँगे कि किस तरह सिखों में ही पैदा हो गए विरोधियों से मिर्जा राजा जय सिंह I और उनके बेटे राम सिंह ने गुरु तेग बहादुर की रक्षा की थी। पहले भाग में हमने बताया था कि कैसे गुरु नानक के बेटे अपने पिता से अलग रास्ते चले थे और उन्होंने ‘उदासी पंथ’ की स्थापना की थी। साथ ही ये भी कि दिल्ली के कनॉट पैलेस में जो गुरुद्वारा खड़ा है, उसके लिए हिन्दू राजा ने अपना बँगला दान कर दिया था।
आपने अक्सर इस तरह का नैरेटिव सुना होगा कि अगर सिख न होते तो हिन्दुओं का क्या होता? ‘हम तुम्हारे लिए खड़े हुए हैं’ से लेकर ‘हमारे बिना तुम्हारा क्या होता’ जैसे चीजें अक्सर इतिहास के नाम पर गिनाई जाती है। लेकिन, असली बात तो ये है कि इतिहास में हिन्दुओं ने और हिन्दू धर्म ने देश-दुनिया को हमेशा दिया दी है। आज भी हिन्दू ही त्याग कर के चल रहे हैं, अपनी ही भूमि पर। ठीक इसी तरह, यहाँ हम आपको बताएँगे कि कैसे ये कहना गलत है कि अगर सिख नहीं होते तो, हिन्दुओं की ‘माँ-बहनें’ नहीं बचतीं।
‘किसान आंदोलन’ के दौरान भी ऐसा ही नैरेटिव फैलाया गया, जिसके कारण अंततः गुरु परब के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी। जबकि सच्चाई तो ये है कि अंग्रेज मानते थे कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अगर पंजाब के सिख सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ छोड़ दिया होता, तो उन्हें उसी समय वापस लौटना होता। पंजाब में अंग्रेजों को नहीं रोका गया और इस तरह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजों ने कुचला। इसका जिक्र वीर सावरकर ने भी अपनी पुस्तक में किया है।
सबसे पहली बात तो ये है कि पाँचवें गुरु तक आते-आते सिख मजहब कभी हिन्दू धर्म से अलग रहा ही नहीं। अर्थात, एक अलग धर्म के रूप में इसे नहीं माना जाता था। ये एक अलग पंथ या संप्रदाय था और सनातन धर्म में समय-समय पर ऐसे कई संप्रदाय हुए हैं। पहले पाँच गुरुओं के अंतर्गत सिखों ने हथियार नहीं उठाए थे। शांति और भाईचारे के संदेशों पर ही इसका आधार कायम था। अगर सिखों को हथियार उठाना पड़ा तो क्यों? इस्लामी आक्रांताओं और उनकी क्रूरता के विरुद्ध।
सिखों के छठे गुरु थे हरगोविंद और उनके अंतर्गत ही धर्म की रक्षा के लिए इस कौम ने हथियार उठाए। गुरु अर्जुन देव के बलिदान के बाद जब गुरु हरगोविंद का तिलक ‘बाबा बुड्ढा’ द्वारा किया जा रहा था, तभी उन्होंने शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र की विद्या पर भी रोज दिया, क्योंकि उन्हें अपने पिता का बलिदान याद था। मात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने एक प्रौढ़ की तरह सोच दिखाई। ‘बाबा बुड्ढा’ वही थे, जिन्होंने तिलक लगा कर अर्जुन और रामदास को विधिवत गुरु घोषित किया था।
उसी दिन के बाद से गुरु हरगोविंद दो तलवारें धारण करने लगे, जिनमें से एक को ‘पीरी की तलवार’ कहा जाता था। गुरु अंगद देव ने पहले ही सिखों में अखाड़े की परंपरा स्थापित कर दी थी। मल्ल्युद्ध के साथ-साथ उनमें अब शस्त्रविद्या सिखाई जाने लगी और अमृतसर आने वाले सिख भी हथियार लेकर आते थे। मुग़ल बादशाह जहाँगीर तक इस तैयारी की गूँज सुनाई दी। इस तरह ये कहना कि सिखों के हथियार केवल हिन्दुओं के लिए उठाए थे, एकदम गलत है। गुरुओं के बलिदान के बाद उन्होंने आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाए।
सिख सेना का अहम अंग थे हिन्दू, गुरुओं की रक्षा का संभाला दायित्व
क्या आपको पता है कि सिखों को हथियारों से प्रशिक्षित करने में और गुरु हरगोविंद की रक्षा करने में राजपूत सबसे आगे थे। उनकी सहायता से ही सिखों की एक ऐसी फ़ौज तैयार हुई, जिसे मुगलों को नाकों चने चबाने को मंजूर कर दिया। स्वयं गुरु नानक ने राजपूताना शासन में आने वाले हिन्दुओं के दो तीर्थों कोलायत और पुष्कर का दर्शन किया था। मनसवाल (Doad) राजपूतों के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध थे। करतारपुर में जब गुरु नानक कई दिनों तक रुके थे, तब एक राजपूत परिवार ही उनके लिए भोजन लेकर आता था।
गुरु हरगोविंद को मुगलों ने ग्वालियर के किले में नजरबंद कर दिया था। उसी दौरान वो कई राजपूत राजाओं के संपर्क में आए और जब वो वहाँ से बाहर निकले तो उनकी सेना में कई राजपूत भी भर्ती हुए। गुरु हरगोविंद और उनकी फ़ौज को शस्त्रविद्या सिखाने में राय सिगरा और राय जैता नामक राजपूतों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। गुरुसर के युद्ध में राजपूत सेना ने उनकी मदद की थी। जहाँगीर को जब उन्हें ग्वालियर के किले से रिहा करने को मजबूर होना पड़ा था, तब उनके साथ 52 हिन्दू राजकुमार भी छोड़े गए थे जिन्होंने हमेशा उनका साथ दिया।
इसी तरह गुरु गोविंद सिंह को शस्त्रों का ज्ञान देने में राव मंडन सिंह राठौड़ के वंश में जमे बज्जर सिंह ने बड़ी भूमिका निभाई थी। आपने ‘आलम सिंह चौहान नचणा’ का नाम नहीं सुना होगा, लेकिन ये गुरु गोविंद सिंह की सेना का नेतृत्व करने वाले एक हिन्दू सेनापति थे। वो सियालकोट के एक राजपूत परिवार से सम्बन्ध रखते थे। उन्हें गुरु गोविंद सिंह का सबसे विश्वासपात्र माना जाता था। जब एक बार गुरु गोविंद सिंह घिर गए थे तो उन्होंने अपनी सेना के साथ बड़ी बहादुरी का परिचय देकर उन्हें बचाया।
आनंदपुर के आसपास हुए सभी युद्धों में आलम सिंह चौहान की बड़ी भूमिका थी। खुद गुरु गोविंद सिंह ने ‘बिचित्र नाटक’ में बताया है कि किस तरह जब लाहौर के सूबेदार दिलावर खान के बेटे खानजादा ने रात के समय ही आनंदपुर को तबाह करने की सजाइश रची, तब आलम सिंह चौहान की सतर्कता ही थी कि सिखों ने उसे बिना किसी युद्ध के पीछे हटने को मजबूर कर दिया। उन्होंने गुरु के बेटे अजीत सिंह के लिए लड़ते हुए अपना बलिदान भी दे दिया था।
सिखों में भी कई थे गद्दार, जिन्होंने अपने ही गुरुओं के खिलाफ मुगलों की मदद की
हिन्दुओं ने तो हमेशा सिख गुरुओं का साथ दिया, उनका आदेश माना और उनकी सहायता की। लेकिन, सिखों में ही कुछ ऐसे लोग हो गए थे जिन्होंने अपनी ही कौम के खिलाफ मुगलों से हाथ मिला लिया था। उन्हीं में से एक था सातवें गुरु हर राय का बड़ा बेटा राम राय, जो औरंगजेब से जा मिला था। यहाँ तक कि उसने मुगलों को उकसा कर गुरु तेग बहादुर को गिरफ्तार करवा दिया। वो खुद गुरु बनने की इच्छा रखता था। लेकिन, ऐसे समय में एक हिन्दू राजा ने उनकी मदद की।
असल में राम राय को उनके पिता हर राय ने ही औरंगज़ेब के पास अपना दूत बना कर भेजा था, लेकिन उसकी मंशा बदल गई। उसने ‘रामराइया’ नामक पंथ की स्थापना की, लेकिन सिखों ने मान्यता नहीं दी। औरंगज़ेब ने खुश होकर उसे जागीर भी सौंपी थी। गुरु ग्रन्थ साहिब की एक पंक्ति को बदल कर राम राय ने ‘मुस्लिम’ की जगह ‘बेईमान’ कर दिया (“मिटी मुसलमान की पेड़ै पई कुम्हिआर”), जिससे औरंगजेब खुश हुआ था। हालाँकि, गुरु हर राय ने इसीलिए अपने बड़े बेटे से नाराज़गी जताते हुए छोटे को अगला गुरु घोषित किया था।
मिर्जा जय सिंह के पुत्र राम सिंह ने गुरु तेग बहादुर के पक्ष में दलीलें पेश की और उन्हें छोड़ दिया गया। उन्होंने न सिर्फ उन्हें कैद मुक्त कराया, बल्कि गुरु के आचरण की जिम्मेदरी न सिर्फ अपने ऊपर ले ली। बाद में कश्मीरी पंडितों और उन पर हो रहे अत्याचार के कारण गुरु तेग बहादुर भी बलिदान हुए। उन्हें औरंगजेब ने इस्लाम कबूलने को कहा, जो उन्होंने नहीं किया। लेकिन, ये इतिहास में दर्ज है कि गुरु बनने के दौरान विरोधियों के खिलाफ राजा जय सिंह ने उनका समर्थन किया था।
Guru Har Krishan Sahib ji and the Queen) When Guru Har Krishan visited Delhi he stayed at Jai Singh's place ( which is now the site of
— Dharam Seva Records (@DharamSeva) January 23, 2018
Gurdwara Bangla Sahib). However it is said that Jai Singh and his wife (the queen) had some doubts probably because of Guru sahib's age pic.twitter.com/E1Vr7OrY6X
क्या आपको दिल्ली के ‘गुरुद्वारा बांग्ला साहिब’ का इतिहास पता है? असल में 1783 में सबसे पहले सिख सरदार बघेल सिंह ने यहाँ एक छोटा सा पवित्र स्थल बनाया था। इसके लिए जमीन राजा जय सिंह ने दी थी। आमेर के जय सिंह ने अपना पूरा का पूरा बँगला दे दिया, जिस पर ये गुरुद्वारा बना। बघेल सिंह ने ही मुग़ल बादशाह शाह आलम के समय दिल्ली में 9 जगह गुरुद्वारा बनवाए थे। पहले इसे ‘जयसिंहपुरा पैलेस’ कहा जाता था। उन्होंने यहाँ एक तालाब भी बनवाया था।
(ये ‘हिन्दू-सिख इतिहास का दूसरा लेख है पहला लेख आप यहाँ क्लिक कर के पढ़ सकते हैं’)