महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं सहित 3 लोगों की मॉब लिंचिंग गुरुवार (अप्रैल 16, 2020) को कर दी गई, जो साधु-संतों और भगवा के प्रति घृणा से सने माहौल की ओर इशारा करता है। भीड़ के साथ एनसीपी और सीपीएम नेताओं के खड़े होने की बात भी सामने आई। 3 दिनों बाद जब इस वीभत्स घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होना शुरू हुआ, तब आमजनों ने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। तब जाकर पुलिस कहीं हरकत में आई और 110 लोगों की गिरफ़्तारी व 2 पुलिसकर्मियों को सस्पेंड करने की बात कही गई। वीडियो में देखा जा सकता है कि वृद्ध साधु ने बचाव के लिए पुलिसकर्मी का हाथ पकड़ा तो उसने झटक दिया।
वो दोनों साधु कल्पवृक्ष गिरी और सुशील गिरी दशनामी सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते हैं। इनका इतिहास देशभक्ति से ओतप्रोत है, जिसकी चर्चा हम करेंगे लेकिन उससे पहले दशनामी क्या होते हैं, ये जानकारी दे दें। जैसा कि हमें पता है, बौद्ध मठों और विहारों के पतन के बाद भारत में अद्वैत दर्शन का प्रभाव बढ़ा और वैदिक सिद्धांतों की पुनर्स्थापना होने लगी। इसमें आदि शंकराचार्य का योगदान था, जिन्होंने देश के चार कोने में चार मठ स्थापित किए। इनमें स्थापित सन्यासियों के 10 सम्प्रदायों को शंकराचार्य ने अरण्य, आश्रम, भर्ती, गिरी, पर्वत, पुरी, भारती, सरस्वती, सागर, तीर्थ और वन नामक 10 सम्प्रदाय स्थापित किए।
दशनामी साधुओं का प्रारंभिक इतिहास
आप देखते होंगे कि इनमें से कई सरनेम के रूप में विख्यात हैं। दरअसल, अलग-अलग संप्रदाय के सन्यासियों ने इन्हीं नामों को अपना अंतिम नाम बना लिया। इससे उनके संप्रदाय की स्वतः पहचान हो जाती है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित शैव संप्रदाय के सन्यासी ही दशनामी कहलाए। दशनामी में कई नागा भी हुए, जिनका युद्ध का पुराना इतिहास रहा है। पहले दशनामी संप्रदाय के सन्यासी आमतौर पर नंगे रहा करते थे। ‘जनसत्ता’ के संस्थापक संपादक रहे प्रभाष जोशी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू होने का धर्म‘ में उल्लेख किया है कि दशनामी साधु देश भर में घूमा करते थे लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इन पर पाबंदियाँ लगा दी।
The sadhus lynched in #Palghar belonged to Dashnami Juna Akhara.
— True Indology (@TIinExile) April 20, 2020
The Dashnamis fought a war against Aurangzeb. They drove away Mughals & protected Varanasi.
They were first to fight British in Sannyasi rebellion.
Is this how we express gratitude? Have we failed as a society?
उन्हें गाँवों और बस्तियों में जाने से रोका जाने लगा। कुम्भ और सिंहस्थ में भी इन्हें परेशान किया गया लेकिन इन्होने अपनी पुरातन परंपरा जारी रखी। इन्हें युद्धक सन्यासी भी कहा जाने लगा क्योंकि ये अस्त्र-शास्त्र और लड़ाई में निपुण होते चले गए। ये अधिकतर राजस्थान में फैले मठों में रहते थे जो भिक्षा माँग कर खाते थे और सिपाही के रूप में भी काम करते थे। कर्नल टॉड ने इनके बारे में लिखा है कि ये मादक जड़ी-बूटी व द्रव्य का सेवन भी किया करते थे। कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी में इस्लामी आक्रांताओं का आतंक बढ़ गया था और फ़क़ीर भी सन्यासियों को मारने लगे थे, जिससे बनारस के मधुसूदन सरस्वती चिंतित थे।
उन्होंने ही सन्यासियों की युद्धक टुकड़ी बनाई, जो रक्षा के लिए तलवार उठाती थी। इसके लिए उन्होंने बादशाह अकबर तक भी अपनी बात पहुँचवाई थी। इस टुकड़ी की खासियत ये थी कि इसमें सभी जातियों के लोग शामिल थे। ऐसा नहीं है कि इससे पहले युद्ध करने वाले सन्यासी नहीं होते थे, वो पहले भी मौजूद थे। दशनामी सम्प्रदायों में ही अखाड़े होते हैं। इनमें से जूना अखाडा सबसे लोकप्रिय है, जिसे भैरव अखाडा भी कहा जाता है। पालघर में मारे गए दोनों ही साधु जूना अखाड़ा से ही सम्बन्ध रखते थे। इस अखाड़ा का मुख्यालय वाराणसी में है और दत्तात्रेय को इसका इष्टदेव माना गया है। इसी तरह महानिर्वाणी दशनामी का पाँचवा अखाड़ा है।
इस्लामी आक्रांताओं से किया था युद्ध
इसकी स्थापना झारखण्ड के कुण्डागढ़ स्थित सिद्देश्वर मंदिर में हुई थी। वाराणसी में जब औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर हमला करवाया था तो इन्हीं सन्यासियों ने मंदिर की रक्षा के लिए शस्त्र उठाए थे। वाराणसी को औरंगज़ेब के कहर से इन्हीं सन्यासियों ने बचाया था। औरंगज़ेब की फ़ौज और इन सन्यासियों के बीच भीषण लड़ाई हुई थी। इसका मुख्य केंद्र प्रयाग में है और ये कपिल को अपना इष्ट मानते हैं। कुम्भ और सिंहस्थ में इन्हें आगे जगह दी जाती है। अंग्रेज मानते थे कि शैव और वैष्णव सन्यासी एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं, इसीलिए उन्होंने सन्यासियों के शस्त्र धारण पर रोक लगा दी। वैष्णव संप्रदाय के भी सन्यासी होते थे और उनमें से कई बैरागी कहे जाते थे।
Sadhus fought Islamic invaders, who often targeted them. Naga Babas were at the forefront of the resistance. https://t.co/FGdWoHnLNp
— Dr David Frawley (@davidfrawleyved) July 23, 2016
अगर आज हम भारत के इतिहास को देखते हैं कि हमें पता चलता है कि इस्लामी आक्रांताओं से लड़ने में जहाँ हमारे योद्धाओं ने अहम भूमिका निभाई, साधु-सन्यासियों ने भी मंदिरों और धर्म की रक्षा के लिए जान दाँव पर लगा दिए। सोचा जाए तो ईसाई शक्तियों के पास सबकुछ था- अत्याधुनिक हथियार, धर्मान्तरण के लिए प्रलोभन और सत्ता का संरक्षण। इन सबके बावजूद अगर आज हिन्दू धर्म मजबूती से बचा हुआ है तो इसके पीछे आम जनमानस में राम-कृष्ण के प्रति आस्था जगाने वाले भक्ति योग के संतों के अलावा सन्यासियों के संघर्ष का भी योगदान है। आज इन्हीं साधु-संतों का अपमान हो रहा है, उनकी मॉब लिंचिंग कर दी जा रही है।
अगर नागा साधुओं की परंपरा की बात करें तो ये हजारों साल पुरानी है। कई प्राचीन वैदिक ग्रंथों में भी दिगंबर नागा साधुओं के संदर्भ मिलते हैं। अखाड़े के सदस्य शास्त्रों के साथ शस्त्र विद्या में भी निपुण होते थे ताकि अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए ज़रूरत पड़ने पर यज्ञ की समिधा के साथ अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी तैयार रहें। 1666 में जब औरंगजेब की सेना ने हरिद्वार पर हमला किया तो भी नागा साधु उनका विरोध करने के लिए योद्धाओं के रूप में आगे आए। आज ऐसे कई मंदिर जो औरंगजेब के समय ध्वस्त हो मस्जिद बनने से रह गए। उसमें तत्कालीन शासकों के साथ नागा साधुओं का बड़ा योगदान है।
सन्यासी विद्रोह: अँग्रेजों के ख़िलाफ़ उठाया हथियार
बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ भी सन्यासी उठ खड़े हुए थे, जिसे ‘सन्यासी रिबेलियन’ के रूप में जाना जाता है। ये 1770 में ही शुरू हो गया था, जब बक्सर युद्ध के बाद ब्रिटिश लोगो से टैक्स वसूलने लगे थे। सन्यासियों ने जलपाईगुड़ी के मुर्शिदाबाद और वैकुण्ठपुर जंगलों में सशस्त्र युद्ध किए। जहाँ बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक ‘आनंद मठ’ में इसे हिन्दुओं का आंदोलन कहा है, वामपंथी इतिहासकारों ने इसे साम्राज्यवाद और सामंतवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई बताया। अवध व बंगाल के नवाबों और महाराष्ट्र के राजपूत राजाओं की सेना में भी सन्यासियों को शामिल किया गया था। ये आंदोलन लगभग 5 दशक तक चलता रहा था।
अगर महाराष्ट्र सरकार उचित करावाई नही करेगी तो उग्र आंदोलन नागा सन्यासियों का महारष्ट्र में होगा,,
— Ridhima Pandey (@Being_Ridhima) April 20, 2020
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष के द्वारा चेतावनी pic.twitter.com/pXNxLUKjkV
सबसे बड़ी बात तो ये कि इसमें फकीरों ने भी सन्यासियों का साथ दिया था क्योंकि तब उनकी भी जान पर बन आई थी। आज देश में ऐसे ही सन्यासियों को कई लोग हेय दृष्टि से देखने लगे हैं, जिनका इतना उज्जवल इतिहास रहा है। जिन्होंने इस्लामी आक्रांताओं और अंग्रेजों से युद्ध किया, उन सम्प्रदायों के लोग आज सुरक्षित नहीं हैं। ऐसा तभी होता है, जब देश ने इनके उपकार को भूल कर इन्हें उचित सम्मान देना बंद कर दिया है। आज ज़रूरत है कि पाठ्यक्रमों में भी इन सन्यासियों की बहादुरी को शामिल किया जाए, जहाँ औरंगज़ेब और खिलजी की जीवनियाँ भरी पड़ी हैं। क्या हम इन सन्यासियों के प्रति कृतज्ञ नहीं हैं?