भारत का इतिहास ऐसे जयचंदों से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपने फ़ायदे की ख़ातिर देश को बेचने की कोशिश की, राष्ट्र को धोखा दिया और समाज को बदनाम किया। महाराणा प्रताप जब चित्तौरगढ़ की गद्दी पर आसीन थे और हल्दीघाटी में उनका मुग़लों के साथ एक भीषण युद्ध देखने को मिला, तब उनकी युद्ध कला पूरे भारत में विख्यात हुई और अकबर के ख़िलाफ़ तलवार उठाने के लिए इतिहास में उन्हें एक महान योद्धा के रूप में जाना गया। हालाँकि, महाराणा की युद्ध कला, सैन्य क्षमता, नेतृत्व गुण और बुद्धिबल की चर्चा तभी से थी, जब वो किशोरावस्था में थे। लेकिन, सिंहासन धारण करने के बाद उन्होंने इस सभी चीजों को वास्तविक जीवन में सफलतापूर्वक उतार कर दिखाया। महाराणा प्रताप के युद्धकला की चर्चा तो ख़ूब होती है और होनी भी चाहिए, लेकिन राष्ट्र और कुल को लेकर उनके क्या विचार थे, इस पर भी चर्चा आवश्यक है।
अकबर जब एक-एक कर भारत के बड़े भू-भाग को जीतता जा रहा था और उसकी बादशाहत पर कोई आँच नहीं था, ऐसे समय में महाराणा के उदय ने उसे भयाक्रांत कर दिया था। सुरभित जयमाला से सुसज्जित उसका वक्षस्थल और हीरों से जड़ित मुकुट तो उसकी पहचान होती ही थी, लेकिन उसके मन में एक डर समाया रहता था। यह एक देशभक्त द्वारा आज़ादी का बिगुल बजाने और चित्तौरगढ़ के किले पर ‘जय एकलिंग’ बोल कर भगवा ध्वज फहराने का डर था। यह एक ऐसा भय था, जो एक विदेशी आक्रांता को भारत की स्वदेशी ताक़त से लग रहा था। राणा की आज़ादी उसे काँटों की तरह चुभती थी। एक दिन उसने मानसिंह को बुला कर शोलापुर जीतने को कहा और पथ में राणा से मिल कर उसे भी समझाने को कहा। वह राणा को लालच देकर और भय दिखा कर अपने वश में करना चाहता था।
मानसिंह जैसे लोग ही थे, जिनके बल से अकबर शासन कर रहा था। उसके नवरत्नों में शामिल मानसिंह एक राजपुत योद्धा था और जोधाबाई का रिश्तेदार भी। अपने समाज, कुल और देश की उपेक्षा कर अकबर की उँगलियों पर नाचने वाले मानसिंह ने शोलापुर को जीत कर अकबर को अपनी निष्ठा का सन्देश पहुँचाया। घमंड से चूर मानसिंह को शायद पता नहीं था कि जिसके लिए वह कार्य कर रहा है, वह एक आक्रांता है, जो अपनी कूटनीति के बल पर नरम भी बना रहा और जिसने मीठी छुरी बन कर हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़वाया भी। ऐसे व्यक्ति के साथ क्या किया जाना चाहिए? आज यह प्रश्न प्रासंगिक है क्योंकि आज भी ऐसे कई गद्दार और हैं, जो खाते तो इस देश का हैं लेकिन अपने ही समाज की पीठ में छुरा घोंपते हैं। आइए आज से क़रीब 450 वर्ष पीछे जाकर महाराणा प्रताप सिंह से सीखते हैं कि ऐसे लोगों के साथ क्या किया जाना चाहिए?
हुआ यूँ कि अकबर मानसिंह ने अपने आने का सन्देश उदयपुर भिजवा दिया। महाराणा ने अमर सिंह को बुलाकर उसकी आवभगत करने को कहा। ‘अतिथि देवो भवः’ की नीति पर चलने वाले राणा को ख़ूब पता था कि मानसिंह के मन में छल है, कपट है, मुग़लों के प्रति वफ़ादारी है, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने लोगों को आदेश दिया कि उसके स्वागत में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। महाराणा का विचार तो देखिए, दुश्मन के साथ भी ऐसा व्यवहार! मानसिंह उदयपुर पहुँचा और अमर सिंह ने उसका पूरा स्वागत किया। उस पर पुष्प-वर्षा की गई, गुलाबजल से सड़कों को धुलवाया गया और पूरा शहर जगमगा रहा था। मानसिंह के स्वागत में कलशें रखी गईं, दीप जलाए गए और दरवाजों को सजाया गया। चकित मानसिंह ने कहा कि उसे ख़ुद इस बात का विश्वास नहीं था कि उसका इतना स्वागत होगा।
ख़ैर, मानसिंह राजमहल पहुँचा और उसके लिए भोजन परोसा गया। सोने-चाँदी की थाली में राजस्थानी पकवान से लेकर अन्य प्रकार की खाद्द सामग्रियाँ डाली गईं। लेकिन, यहाँ एक समस्या खड़ी हो गई। मानसिंह को जिसका इन्तजार था, वह जिसके साथ भोजन करना चाहता था, वह जिससे मिलने आया था, जिसे अकबर का सन्देश देने आया था, वह कहीं भी दिख नहीं रहा था। अतः, उसने अमर सिंह को राणा के पास भेजकर कहवाया कि वह तब तक भोजन का एक कण भी नहीं छुएगा, जब तक महाराणा उसके साथ बैठ कर भोजन न करेंगे। अमर सिंह ने वापस आकर मानसिंह को सन्देश दिया कि चूँकि, महाराणा के सिर में दर्द है, वह मानसिंह के साथ भोजन नहीं कर सकते हैं।
महाराणा प्रताप धर्मभीरु थे, प्रखर हिंदूवादी थे और सनातन परंपरा के वाहक एवं रक्षक थे। जहाँ एक तरफ़ उन्होंने मानसिंह का स्वागत कर अपने हिन्दू चरित्र, स्वाभाव और उदार नीतियों का परिचय दिया, वहीं दूसरी तरफ़ एक कुलघाती के साथ बैठ कर भोजन करना उन्हें सपने में भी मंज़ूर नहीं था। राणा ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि उनके कुछ सिद्धांत थे, कुछ विचारधारा थी, और वह एक सच्चे राजपूत थे, हिन्दू थे और राष्ट्रवादी थे। मानसिंह ने राणा के सन्देश को अपनी अवज्ञा की तरह लिया और वह राणा के सिर में दर्द होने की ख़बर सुनते ही काँपने लगा। उसकी भृकुटियाँ तन गईं और उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। गुस्से से काँपते हुए मानसिंह ने युद्ध की धमकियाँ देनी शुरू कर दी और दावा किया कि उसी के कारण राणा की स्वतंत्रता बची हुई है। उसने अपनी युद्धकला के बारे में बखान शुरू कर दिया और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा।
चकाचौंध सी लगी मान को
राणा की मुख–भा से।
अहंकार की बातें सुन
जब निकला सिंह गुफा से।।
60, (हल्दीघाटी, पंचम सर्ग)
राणा प्रताप भला यह सब कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? एक महावीर कैसे अपने सामने मुग़लों के दास की वीरता का बखान सुन सकता था? एक राष्ट्रवादी राजा कैसे किसी को अपनी ही धरती पर अपने ही देश के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने की इज़ाज़त दे सकता था? विशाल कद-काठी और प्रखर तेजमय व्यक्तित्व के राणा जब अचानक से निकल कर मानसिंह के सामने आए, तब उसकी आँखें चकाचौंध सी हो गई, उसे कुछ भी सूझना बंद हो गया और जिस अकबर के बल पर वह कूद रहा था, उसकी याद तत्काल मिट गई। इसके बाद राणा प्रताप ने मानसिंह से जो कहा, वह एक सन्देश है सभी गद्दारों के लिए। यह भारतीय सेना को बलात्कारी बोलने वालों के लिए भी सन्देश है, यह हिन्दुओं को हिंसक बताने वालों के लिए भी सन्देश है, यह कश्मीर को भारत से अलग करने की कोशिश करने वालों के लिए भी सन्देश है और यह विदेशी पैसों से भारत को बर्बाद करने की साज़िश रचने वालों के लिए भी सन्देश है। महाराणा ने कहा:
“अरे तुर्क, तू अपनी यह बकवास बंद कर। तेरे लिए उत्तम भोजन का इंतजाम किया गया है, तेरे लिए शीतल पेय की व्यवस्था की गई है, वो सब ग्रहण कर। या फिर निकल जा यहाँ से। तू जिस युद्ध की धमकी मुझे दे रहा है न, उससे मैं डरता नहीं। तू आ जाना और मुझ से लड़ लेना, अगर इतनी ही इच्छा है तो चित्तौर पर चढ़ाई कर लेना। अरे मूर्ख, तुम तब कहाँ थे जब मैंने स्वतंत्रता का बिगुल फूँका था? मैं अपनी जाति और धर्म का रक्षक हूँ, समझ क्या रखा है तूने मुझे? मैं क्या हूँ, कौन हूँ, ये सब अभी नहीं बता सकता। ये सब मैं तुझे युद्ध में बताऊँगा। तेरे सारे प्रश्नों का उत्तर मैं युद्ध में ही दूँगा, महामृत्यु के साथ इधर-उधर लहराते हुए। प्रताप के प्रखर तेज की आग कैसे जलाती है, तुझ जैसे समाज का त्याग करने वालों को मैं बता दूँगा।”
“तेरे लिए नरक के द्वार खुले हुए हैं, तुझे जीवन भर धिक्कार है, क्योंकि तूने दुश्मनों का साथ दिया है। तुझे एक नज़र देख लेने से ही मन में निराशा का भाव आ जाता है और तुझे छूने से तो पाप लगता ही है। हिन्दू जनता के लिए तू एक क्लेश है, पश्चाताप है। तू इस अम्बर कुल समाज पर कलंक है। राणा कभी भी तेरा सम्मान नहीं कर सकता, जानता है क्यों? क्योंकि, अकबर तेरा मालिक है और मुग़ल पठान तेरे साथी हैं। तू भोजन से इनकार कर दे अथवा किसी कुत्ते की तरह इसे चट कर जाए, आज मैं इसका थोड़ा भी विचार नहीं करूँगा। अरे, तुझे सौ-सौ बार लानत है। तू म्लेच्छ वंश का सरदार है, तू हमारे इस अम्बर कुल पर अभिशाप है। और सुन, अगर इस बात पर तलवार उठती है तो मैं लड़ने को तैयार हूँ।”
महाराणा प्रताप का यह सन्देश आज जन-जन तक पहुँचनी चाहिए। उनकी हर जयंती पर महाराणा के दिखाए रास्ते पर चलने का प्राण करने वाले इस देश को भी गद्दारों के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा हमारे पूर्वज प्रताप ने किया था। आज जब उनकी जयंती है तो राणा के युद्ध के साथ-साथ उनके वाक्यों को भी गंभीरता से लेने की ज़रूरत है और मानसिंह एवं जयचंद जैसे कुलघातकों को इसी भाषा में जवाब देना भी वक़्त की माँग है। कहानी आगे की भी है कि किस तरह मानसिंह ने रोते-रोते अकबर के भरे दरबार में राणा द्वारा कही गई बातों को दुहराया और अंततः कैसे हल्दीघाटी का युद्ध हुआ। लेकिन, वो सब फिर कभी। एक और बात, मानसिंह के जाने के बाद महाराणा ने पूरे घर को खुदवा कर गंगाजल से अच्छी तरह सफाई करवाई थी।
(यह पूरा का पूरा लेख 20वीं सदी के लेखक श्यामनारायण पांडेय की कविता-रूपी पुस्तक ‘हल्दीघाटी‘ पर आधारित है।)