5000 वर्षों से अधिक समय से भारत उस बौद्धिक संपदा का धनी रहा जो मानव जाति के लिए सर्वोत्तम बिन्दु था। विश्व की सबसे पुरातन सभ्यता, भारत की ज्ञान और विज्ञान की एक महान परंपरा रही है। यदि प्राचीन भारत साधु और संतों की भूमि रही तो यह महान शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों की कर्मस्थली भी रही।
प्राचीन वैदिक काल से लेकर आज तक भारतीयों ने सभी क्षेत्रों में वह ज्ञान अर्जित किया, जिसकी तुलना नहीं की जा सकती है। हमारे पूर्वज हमारे लिए ज्ञान का वह पिटारा छोड़कर गए, जिसकी सहायता से सहस्त्राब्दियों से सभ्यताओं ने अपने ज्ञान के आधार को मजबूत किया। खगोल से लेकर धातु विज्ञान, गणित, चिकित्सा और अन्य कई क्षेत्रों में भारतीयों का योगदान सम्पूर्ण विश्व के लिए ही अनूठा रहा है।
यह भारतीय विज्ञान वैदिक काल अर्थात 3000 साल पहले से ही फलता-फूलता रहा। भारतीय वैज्ञानिकों ने कई सारे आविष्कार किए और पश्चिम सभ्यता से कई हजारों साल पहले वैज्ञानिक अवधारणाओं पर प्रकाश डाला। वैज्ञानिक घटनाओं की व्याख्या के साथ-साथ हमारे भारतीय ऋषि-मनीषियों ने वैज्ञानिक विधियों का भी आविष्कार किया।
इन सबमें सबसे रोचक यह है कि भारतीय खोजकर्ताओं ने यह सब अवलोकन सामान्य उपकरणों और कुछ ऐसी तकनीकों की सहायता से किया, जिसे हम आज प्राचीन और अपरिष्कृत समझते हैं।
यह अत्यंत गर्व का विषय है कि भारतीयों ने खगोल विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, अंकशास्त्र, समय की माप, उपकरणों के निर्माण, ग्रहों की गति, कैलेंडर निर्माण और ऐसे ही कई क्षेत्रों के महान ग्रंथों की रचना की।
ऐसी ही एक किताब है ‘इंडियन एस्ट्रोनॉमी: अ सोर्स बुक’ जिसे बीवी सुब्बारय्यप्पा और केवी शर्मा ने लिखा है। इस पुस्तक में भारतीय वैज्ञानिकों, खगोलशास्त्रियों और गणितज्ञों द्वारा 3000 से अधिक ऐसी खोजों का वर्णन किया गया है, जो हजारों सालों के दौरान की गई हैं। इस पुस्तक के माध्यम से खगोल विज्ञान, अंकशास्त्र, समय की माप और दूसरे अन्य पहलुओं पर चर्चा की गई है, जो प्राचीन भारत में हमारे वैज्ञानिकों के अध्ययन के प्रमुख क्षेत्र थे।
इस पुस्तक में 3000 ऐसे पदों का वर्णन किया गया है, जो आर्यभट्ट, भास्कराचार्य और ब्रह्मगुप्त के द्वारा रचे गए। इन पदों को कई मूल ग्रंथों से लिया गया है, जो अधिकांशतः संस्कृत में थे, जिनका अनुवाद अंग्रेजी में किया गया। उनमें से कुछ पद यहाँ वर्णित किए जा रहे हैं, जो यह बताते हैं कि किस तरह से भारतीय वैज्ञानिकों ने विश्व की कुछ महानतम खोजें कीं।
1. एक ज्योतिर्विद की योग्यता
संस्कृत में दिए हुए ये पद्यांश भारतीय ज्योतिषशास्त्र की आधारभूत विशेषताओं को बताते हैं और साथ ही एक खगोलशास्त्री के लिए आवश्यक विशेषताओं के बारे में भी। आगे दिए गए पद्य बताते हैं कि प्राचीन समय में सटीकता का कितना महत्व था और एक व्यक्ति को ज्योतिर्विद बनने के लिए किस प्रकार सभी तरह की विधियों की जानकारी चाहिए थी। इससे भी महत्वपूर्ण है कि इन प्राचीन ग्रंथों में इस बात पर भी महत्व दिया गया था कि घटनाओं का आकलन और गणितीय दस्तावेजीकरण किया जाए, जिससे एक भारतीय ज्योतिर्विद अनुमान पर नहीं अपितु आँकड़ों के आधार पर अपने काम को अंजाम दे।
यहाँ एक श्लोक दिया गया है, जो किसी भी व्यक्ति के लिए ज्योतिषशास्त्र के अध्ययन करने के योग्यता के पैमाने को सेट करता है। ये प्राचीन श्लोक वैदिक काल में लिखे गए थे और यह सुनिश्चित करते थे कि एक व्यक्ति को किन नियमों का पालन करना चाहिए।
वेदों में कहा गया है कि कोई विशेष यज्ञ करने से पहले निश्चित समय पर कुछ विशेष कार्य करने चाहिए। इसलिए जो ज्योतिष को जानता है, जो समय पर आधारित विज्ञान है, वह यज्ञ को जानता है। यह ऋग्वेद में लिखा हुआ है।
प्राचीन हिन्दू ज्योतिर्विद, खगोलशास्त्री और बहुज्ञ वाराहमिहिर ने अपने महान ग्रंथ बृहत संहिता में भी ज्योतिर्विद बनने के लिए कुछ योग्यताएँ बताईं हैं। ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में वराहमिहिर खुद एक ऐसे ज्योतिर्विद थे, जिन्होंने विश्व में सर्वप्रथम अपनी रचना सूर्य सिद्धांत में सूर्य का अध्ययन किया था।
नीचे दिए गए श्लोक (जो फोटो में हैं) एक ज्योतिर्विद के लिए आवश्यक योग्यताओं के बारे में बताते हैं। फोटो के नीचे उनके हिंदी अनुवाद दिए गए हैं।
ज्योतिषीय गणनाओं में, एक ज्योतिषी को समय की माप होनी चाहिए। जैसे युग, वर्ष, आयनांत, ऋतु, मास, प्रहर, दिन और रात, यम (डेढ़ घंटे का समय), मुहूर्त (48 मिनट का समय), नाड़ी (24 मिनट का समय), प्राण (एक श्वास के लिए आवश्यक समय), त्रुटि (समय की एक सूक्ष्म माप) और उसके उपभाग एवं ग्रहण इत्यादि जो पंच सिद्धांतों पौलिश, रोमक, वसिष्ठ, सौर एवं पैतामह में वर्णित हैं। (4)
एक ज्योतिर्विद को समय के मापन की चार व्यवस्थाओं के बारे में भी जानना चाहिए। ये चार व्यवस्थाएँ हैं, सौर अर्थात सौरमंडल, सावन अर्थात क्षेत्रीय समय (किसी गृह अथवा तारे के दो लगातार उदय के बीच का समयांतराल), नक्षत्र काल और चंद्र समय। इसके साथ ही उसे अधिक मास एवं घटते-बढ़ते सौर दिवसों की जानकारी भी होनी चाहिए। (5)
इसके अलावा उसे 60 वर्षों के समयचक्र, एक युग (5 वर्षों के समयांतराल), एक वर्ष, एक मास, एक दिन, एक होरा (एक घंटा) की गणना एवं इनके क्रमशः अधिपतियों की जानकारी होनी चाहिए। (6)
एक ज्योतिर्विद को सौर एवं अन्य समय पद्धतियों के मध्य समानता, असमानता, संबंध, विच्छेद, तर्क एवं तथ्य और उनके वर्णन की क्षमता भी होनी चाहिए। (7)
विभिन्न सिद्धांतों में अयनांतों के अंत के बारे में विभिन्न विचारों के बावजूद एक ज्योतिर्विद में सही गणना और शंकु एवं जल-यंत्र के द्वारा निर्मित छाया के द्वारा बनाए गए वृत्त के आकलन के संबंध को उचित रूप से प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए। (8)
एक गणक (ज्योतिर्विद) को विभिन्न ग्रहों की विभिन्न गतियों का भी ज्ञान होना चाहिए। जैसे, तीव्र, मंद, दक्षिणवर्ती, उत्तरावर्ती, पृथ्वी के निकटवर्ती और दूरस्थवर्ती। (9)
उसमें यह क्षमता होनी चाहिए कि वह गणना के द्वारा चंद्र ग्रहण और सूर्यग्रहण के प्रारंभ, अंत, दिशा, तीव्रता, अंतराल, माप और रंग का पूर्वानुमान लगा सके। साथ ही पाँच ताराग्रहों के साथ चंद्रमा की युति और ग्रहों की युति का भी पूर्वानुमान लगा सके। (10)
एक ज्योतिर्विद में प्रत्येक ग्रह की गति, उसकी कक्षा और अन्य सभी आयामों की गणना योजन में करने की क्षमता होनी चाहिए। (11)
उसे पृथ्वी के घूर्णन (सूर्य के चारों ओर एवं अपनी धुरी पर) और नक्षत्रों के चक्र के साथ उसके परिक्रमण, उसके आकार और ऐसे अन्य विवरणों, किसी स्थान के अक्षांश और उसके पूरक की लंबाई में अंतर से अच्छी तरह से परिचित होना चाहिए। इसके अलावा उसे दिन और रात (दिन-चक्र का व्यास), किसी स्थान के कारखंड, किसी दिए गए स्थान पर राशियों की बढ़ती अवधि, छाया की लंबाई को समय में परिवर्तन और समय को छाया की लंबाई में परिवर्तन के तरीके और इस तरह की अन्य चीजों के मापन का भी ज्ञान हो। (12)
2. ज्योतिषशास्त्र की अवधारणा
पृथ्वी का आकार
पश्चिमी खगोलवेत्ताओं के हजारों वर्ष पहले ही भारतीय खगोलशास्त्रियों ने यह बता दिया था कि पृथ्वी का आकार गोल है। वराहमिहिर के दौरान खगोलशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र का विज्ञान अपने सर्वोत्तम बिन्दु तक पहुँच गया था। अपनी पुस्तक पौलिश सिद्धांत में वराहमिहिर ने न केवल पृथ्वी के गोल होने के बारे में बताया बल्कि उसका स्थलाकृतिक (topographical) अध्ययन भी किया।
पौलिश सिद्धांत के श्लोकों (ऊपर का चित्र) में इनका वर्णन किया गया है। इन श्लोकों का हिंदी अनुवाद है:
पृथ्वी गोलाकार है और पाँच तत्वों से मिलकर बनी है। यह अंतरिक्ष में इस प्रकार स्थित है मानो एक लोहे की गेंद किसी चुंबक के पिंजरे में स्थित हो। (1)
पूरी पृथ्वी की सतह में पेड़-पौधे, पहाड़, नदियाँ, समुद्र और कई शहर स्थित हैं। मेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव) देवों का निवास है जबकि जो असुर हैं वो नीचे की तरफ (दक्षिणी ध्रुव) में रहते हैं। (2)
जिस प्रकार किसी जल स्रोत में किसी वस्तु की परछाई उल्टी बनती है, उसी तरह असुर (देवताओं के साथ उनके संबंध) भी होते हैं। असुर भी देवताओं को उल्टा मानते हैं। (3)
जिस प्रकार यहाँ मनुष्यों द्वारा अग्नि की ज्वाला ऊपर उठती दिखाई देती है और ऊपर फेंकी गई वस्तु नीचे की ओर गिरती है, ठीक उसी तरह अग्नि की ज्वाला का ऊपर उठना और ऊपर फेंकी गई वस्तु का नीचे की ओर आना असुरों द्वारा भी महसूस किया जाता है। (4)
आगे वराहमिहिर द्वारा पृथ्वी और उसके निकटतम सहयोगियों के पंचभूतों से निर्मित होने के बारे में जानकारी (नीचे का फोटो) दी गई है। फोटो के नीचे इन श्लोकों का हिंदी अनुवाद भी दिया गया है:
पृथ्वी पाँच तत्वों आकाश, वायु, अग्नि, जल और मिट्टी से बनी हुई है और इन सभी पाँच तत्वों से परिपूर्ण कक्षाओं (चंद्रमा इत्यादि की) से घिरी हुई है। इसके अलावा इसका विस्तार अंतरिक्ष में तारों के क्षेत्र तक है। (1)
जिस प्रकार चुम्बकों के बीच रखा हुआ एक लोहे का गोला बिना किसी आधार के हवा में स्थित राहत है, उसी प्रकार अंतरिक्ष में पृथ्वी बिना किसी आधार के स्थित है। (2)
तीसरा श्लोक कहता है, यमकोटि, लंका (जो पृथ्वी के केंद्र में है) के पूर्व में स्थित है और रोमक पश्चिम में। सिद्धपुर लंका के नीचे है (ठीक विपरीत), मेरु (पर्वत) उत्तर में स्थित है और असुरों का निवास दक्षिण में है। (3)
ये (चारों शहर) द्वीपों पर स्थित हैं। मेरु जमीन पर है और असुरों का निवास जल से घिरा हुआ है। ये 6 स्थान एक दूसरे के अनुप्रस्थ स्थित हैं और माना जाता है कि इनके बीच की दूरी पृथ्वी की परिधि का एक चौथाई है। (4)
जो पृथ्वी की परिधि की आधी दूरी पर स्थित हैं, वो प्रतिलोम (एंटीपॉड) हैं, ठीक उसी तरह जैसे नदी के किनारे खड़े हुए व्यक्ति की परछाई। आकाश सबसे ऊपर है और पृथ्वी उसके नीचे। सभी प्रजातियाँ पृथ्वी की सतह के नीचे ही रहती हैं। (5)
भूकंप का कारण
कमलकार एक भारतीय खगोलशास्त्री और गणितज्ञ थे, जो कि 17वीं शताब्दी के दौरान वाराणसी में रहते थे। कमलकार ने सबसे पहले पृथ्वी की सतह पर आने वाले भूकंपों की जानकारी दी। हालाँकि यूरोपीय भूगर्भ विज्ञानियों को पृथ्वी की आंतरिक संरचना और भूकंपों के कारणों की समझ कमलकार से एक सदी बाद आई।
अपनी पुस्तक सिद्धांततत्वविवेक में कमलकार ने बताया कि भूपर्पटी कठोर और चट्टानों से बनी हुई है। भूकंप को समझते हुए उन्होंने लिखा है, “ताकत की कमी के कारण दरार पैदा होती है, गैसें तेजी से बाहर निकलती हैं, इसी के कारण पृथ्वी में कंपन पैदा होती है और इससे तेज आवाज भी उत्पन्न होती है।“
पृथ्वी की गति
ठीक इसी तरह लल्ला, जो कि एक भारतीय गणितज्ञ, खगोलशास्त्री और ज्योतिर्विद थे, ने 8वीं शताब्दी में ही यह बता दिया था कि पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर गति करती है और यदि कोई उत्तरी ध्रुव के तारे से देखे तो यह बाईं ओर मुड़ जाती है अर्थात वामावर्त।
यूरोपीय खगोलशास्त्रियों के सैकड़ों साल पहले ही भारतीय वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की गति और गति की दिशा की जानकारी दे दी थी। लल्ला ने पृथ्वी की अपने अक्ष पर घूर्णन और घूर्णन की दिशा के बारे में बताया है।
पृथ्वी की भूमध्य रेखा पर खगोलीय क्षेत्र को प्रवाह वायु द्वारा हमेशा पश्चिम की ओर ले जाया जाता है। देवताओं (उत्तरी ध्रुव) के लिए यह बाईं से दाईं ओर गति करता दिखाई देता है, वहीं असुरों (दक्षिणी ध्रुव) के लिए यह दाईं से बाईं ओर गति करता हुआ दिखाई देता है। (3)
पृथ्वी का घूर्णन
एक दूसरे ज्योतिर्विद थे, चतुर्वेद प्रितुदाक स्वामी। यह अपने गणितीय समीकरणों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने बताया कि पृथ्वी दिन में एक बार घूर्णन करती है। उन्होंने यह भी बताया कि तारों का क्षेत्र स्थिर है, जिसके कारण ग्रहों और तारों का उदय एवं अस्त होता है।
अपनी पुस्तक ब्रह्मस्फुटसिद्धांत में प्रितुदाक स्वामी ने दिन और रात होने के पीछे के कारण की व्याख्या की है।
चतुर्वेद प्रितुदाक स्वामी ने अपनी पुस्तक में लिखा है, “पृथ्वी के घूर्णन को आर्यभट्ट ने भी स्वीकार किया, उनके शब्दों के अनुसार, ‘पृथ्वी एक सेकंड प्रति एक प्राण के अनुसार घूमती है।’ लोगों के द्वारा संभावित आलोचना के चलते भास्कर प्रथम और अन्य लोगों ने इसकी व्याख्या दूसरे ढंग से की।”
आर्यभट्ट निश्चित तौर पर विश्व के सबसे पुराने खगोलशास्त्री थे। उन्होंने अपनी पुस्तक आर्यभट्टीयम में पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूर्णन की व्याख्या की थी।
अपनी पुस्तक में आर्यभट्ट ने लिखा है, “जिस प्रकार एक नाव में बैठा हुआ व्यक्ति जब आगे बढ़ता है तब उसे नदी के दूसरी ओर स्थित वस्तुएँ अपनी विपरीत दिशा में चलती हुई दिखाई देती हैं। उसी प्रकार लंका (भूमध्य रेखा पर स्थित) के लोगों को स्थिर तारे पश्चिम की ओर गति करते हुए दिखाई देते हैं।“ (9)
यह ऐसा प्रतीत होता है मानो संचालित करने वाली वायु के द्वारा इनका उदय और अस्त होता है, और इन्हीं वायु के द्वारा ग्रहों के साथ-साथ तारों के पुंज की पूरी संरचना लंका के पश्चिम की ओर चली गई है। (10)
इसके पहले भी कई ग्रंथों में पृथ्वी की घूर्णन गति के बारे में बताया गया है। मक्कीभट्ट में भी यह दर्शाया गया है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व की ओर गति करती है।
पृथ्वी का आयाम या परिमाण
ऋग्वेद के श्लोक जो आज से लगभग 5000 साल पहले लिखे गए थे, पृथ्वी के परिमाप को बताते हैं। यहाँ ऋग्वेद का वह श्लोक दिया जा रहा है, जिसमें धरती और उनके परिमाप का बखूबी वर्णन किया गया है। भले ही यह पृथ्वी के आकार और परिमाप के बारे में पूरी जानकारी न दे पाए, लेकिन यह सबसे पुराना दस्तावेज (नीचे फोटो, फोटो के नीचे हिंदी अनुवाद) है।
हे इन्द्र (भगवान), क्या यह पृथ्वी भी अपने आपको 10 गुणा तक बढ़ाती है? इस पर रहने वाले मनुष्य दिन-ब-दिन कई गुणा बढ़ते जा रहे हैं, क्योंकि केवल तभी आपकी शक्ति और महानता स्वर्ग के समान विशाल होगी।
वराहमिहिर ने ऋग्वेदिक मान्यताओं के आधार पर पृथ्वी की परिधि की माप 3200 योजन बताई थी। एक योजन लगभग 12-15 किलोमीटर होता है। इसके हिसाब से पृथ्वी की परिधि लगभग 38000 किमी से 45000 किमी हुई, जो कि आधुनिक मापन के तुल्य है। वर्तमान में भूमध्यरेखा के आस-पास में मापी गई पृथ्वी की परिधि की माप 40075.017 किमी है।
भूमध्यरेखा पर जब सूर्य स्थित होता है तो यह ध्रुवों से सभी अक्षांशों पर दिखाई देता है, (दिन और रात के बराबर होने पर)। पृथ्वी का केंद्र (उत्तरी ध्रुव) उज्जैन से उत्तर में 586 2/3 योजन तथा लंका से 800 योजन की दूरी पर है।
पृथ्वी का व्यास और परिधि
इसी तरह अपनी पुस्तक खंडखद्यक में ब्रह्मगुप्त ने भी पृथ्वी की परिधि की गणना की। उनकी पुस्तक में यह वर्णित (फोटो नीचे है, अनुवाद फोटो के नीचे) है कि उन्होंने गणितीय विधि से पृथ्वी की परिधि का मापन किया।
किसी स्थान के संपार्श्विक माप की थेज्जा को 5000 से गुणा करके प्राप्त परिमाण को त्रिज्ड से भाग देने पर उस स्थान पर पृथ्वी की परिधि ज्ञात होती है (Multiply 5000 by thejja of the colatitude of the place and divide the product by the trijyd. The result is the correct circumference of the Earth at that place. (6a)
देव, जो एक और प्राचीन खगोलविद थे, उन्होंने पृथ्वी की परिधि का सही मापन किया। इसके अलावा देव ने उज्जैन (मध्य प्रदेश) से लंका के बीच की दूरी का मापन भी किया। उनके अनुसार दोनों स्थानों के बीच की दूरी 200 योजन या लगभग 3000 किमी है।
3299 योजन पृथ्वी की परिधि है और इसे 16 से भाग देने पर लंका और उज्जैन (अवन्ति) के बीच की दूरी ज्ञात होती है।
इसी प्रकार भास्कर द्वितीय ने अपनी रचना सिद्धांत शिरोमणि में यह बताया है कि पृथ्वी की परिधि लगभग 4967 योजन है। भास्कर द्वितीय ने सिद्धांत शिरोमणि में लिखा (फोटो नीचे, हिंदी अनुवाद फोटो के नीचे) है:
“पृथ्वी का व्यास 1581 1/24 योजन है। इसका पृष्ठीय क्षेत्रफल (surface area) 785034 वर्ग योजन है। इससे यह पता चलता है कि किसी गोलाकार वस्तु की परिधि और उसके व्यास का गुणनफल ही उस गोलाकार वस्तु का पृष्ठीय क्षेत्रफल बताता है।“ (52)
भास्कर द्वितीय के अनुसार:
एक योजन = (दो स्थानों के बीच की दूरी*360) / (परिधि – (एक ही स्थलीय याम्योत्तर पर दो स्थानों के अक्षांशों में डिग्री में अंतर)
a yojana = (distance between the two places*360) / (circumference – (difference in the latitudes of two places on the same terrestrial meridian in degrees)
अपनी पुस्तक में भास्कर द्वितीय ने लिखा, “पृथ्वी की विषुवतीय परिधि को cos 0 से गुणा करने पर और R से भाग देने पर अथवा 12 से गुणा करने पर और विषुवतीय भूमध्यरेखीय छाया के द्वारा निर्मित शंकु से बने दक्षिणावर्ती समकोणीय त्रिभुज के कर्ण से भाग देने पर जो परिमाण प्राप्त होता है, वह पृथ्वी की परिधि के समतुल्य होता है और भूमध्यरेखा के समानांतर होता है।
पृथ्वी के व्यास का अनुमान लगाते हुए खगोलविद नीलकंठ ने पृथ्वी का व्यास लगभग 1050 योजन बताया, अर्थात लगभग 12000 किमी (फोटो नीचे)।
यहाँ एक और प्राचीन ग्रंथ का श्लोक दिया गया है, जो पृथ्वी की परिधि के मापन के लिए गणितीय माप (फोटो नीचे, फोटो के नीचे अनुवाद) प्रदान करता है।
बिल्कुल उत्तर और दक्षिण में स्थित दो स्थानों पर नियत करके, उनके अक्षांश और उनके बीच के योजन की संख्या निर्धारित करें।
फिर तीन का नियम लागू करें: यदि अक्षांशों में उनके अंतर के कारण दो स्थानों के बीच की दूरी है, तो एक वृत्त (यानी, 360°) में डिग्री के लिए कितनी (दूरी होगी)? यही परिणाम पृथ्वी की परिधि होगी। (12-13)
Then apply the rule of three: If their difference in latitudes causes the distance between the two places, how much (will the distance be) for the degrees in a circle (i.e., 360°)? The result will be the circumference of the Earth. (12-13)
अगला श्लोक कहता है: यदि दो अक्षांशों के डिग्री में अंतर उनके बीच के योजन के बराबर है, तो 90° के लिए कितनी योजन होंगी, जो मेरु का अक्षांश है? यही पृथ्वी की परिधि का एक चौथाई हिस्सा देगा। (14)
3. दशमलव संख्या
भारतीय गणितज्ञों ने सबसे पहले दशमलव संख्या प्रणाली का आविष्कार किया, जो आज आधुनिक गणित का आधार है। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय गणितीय रचनाएँ, जो सभी संस्कृत में रचित हैं, संख्याओं की दशमलव प्रणाली पर चर्चा करने वाले कई सूत्रों से मिलकर बनी हैं।
वो भारतीय ही थे, जिन्होंने सभी संख्याओं को दस प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करने की सरल विधि दी – दशमलव प्रणाली। दशमलव अंकन की सादगी ने गणना की सुविधा प्रदान की और भारतीयों द्वारा आविष्कार की गई इस प्रणाली ने व्यवहारिक आविष्कारों में अंकगणित के उपयोग को बहुत तेज और आसान बना दिया।
अपनी रचना आर्यभट्टीयम में, आर्यभट्ट संख्याओं की दशमलव प्रणाली की व्याख्या (फोटो नीचे, अनुवाद फोटो के नीचे) करते हैं, जहाँ एक अंक का संगत स्थानीय मान हमेशा उसके दाईं ओर के अंक के स्थानीय मान से 10 गुना अधिक होता है।
आर्यभट्ट की रचना का अनुवाद जो मूल रूप से संस्कृत में लिखा गया है, इस प्रकार है: एक (इकाई का स्थान), दास (दस स्थान), शत (सौ स्थान), सहस्र (हजार स्थान), आयुता (दस हजार स्थान), नियुता (सौ हजार स्थान), प्रायुत (मिलियन स्थान), कोटि (दस मिलियन स्थान), अर्बुदा (सौ मिलियन स्थान), और वृंदा (हजार मिलियन स्थान) क्रमशः एक स्थान से दूसरे स्थान पर पूर्ववर्ती से प्रत्येक दस गुना हैं। (2)
मध्ययुगीन काल के उत्तरार्ध में खगोलशास्त्री-गणितज्ञ शंकर वर्मन ने भी दशमलव प्रणाली की व्याख्या (फोटो नीचे, फोटो के नीचे अनुवाद) की, जो आर्यभट्ट के समान ही थी। यह इस प्रकार है:
एका (1), दशा (10), शत (100), सहस्र (1000), आयुता (10,000), नियुता (लाख), प्रायुत (10 ^ 6), कोटि ( 10^7), अर्बुदा (10^8), वृंदा (10^9), खर्व (10^10), निखर्व (10^11), महापद्म (10^12), संकू (10^13), वरिधि (10^9) ^14), अंत्य (10^15), मध्य (10^16), परार्धा (10^17) संख्याएँ हैं, प्रत्येक संख्या पिछले की दस गुना है।
यहाँ एक यजुर्वेदिक श्लोक (फोटो नीचे, फोटो के नीचे अनुवाद) है, जो वैदिक युग में दशमलव प्रणाली के उपयोग के बारे में बताता है। इसके अलावा यजुर्वेदिक सूक्तों में अनुष्ठानों में भी दशमलव मूल्य प्रणाली के उपयोग का उल्लेख है।
हे अग्नि, ये (यज्ञ) ईंटें मेरे लिए फायदेमंद हो सकती हैं: एक और एक दस, एक दस और एक सौ, एक सौ और एक हजार, एक हजार और एक दस हजार, एक दस हजार और एक लाख, एक लाख और एक दस लाख, एक दस लाख और एक सौ मिलियन, एक हजार मिलियन, एक दस हजार मिलियन, एक सौ हजार मिलियन, एक लाख-मिलियन या अरब। ये ईंटें मेरे लिए फायदेमंद हो सकती हैं उस दुनिया में भी और इस दुनिया में भी।
4. समय की माप
भारत में, समय मापन की एक प्रणाली प्रारंभिक वैदिक युग की शुरुआत में थी, जो 2500 ईसा पूर्व की थी। वेदों और उपनिषदों में समय के मापन के कई संदर्भ हैं।
यहाँ एक ऋग्वैदिक सूक्त है, जो बताता है कि वैदिक युग में समय को कैसे मापा जाता था। उपरोक्त सूक्त (फोटो ऊपर) में लिखा है कि वैदिक युग में समय का विभाजन वर्ष, मास और दिनों के आधार पर होता था।
ऊपर के ऋग्वेद स्तोत्र के अनुवाद के अनुसार बारह तीलियों से बना चक्र (समय का) बिना थके आकाश के चारों ओर घूमता है। हे अग्नि! उसके 720 संतान हैं (अर्थात दिन और रात)। उपरोक्त श्लोक कहता है कि समय को 12 तीलियों (प्रति घंटा) में विभाजित किया गया था, जिसमें 720 दिन और रातें शामिल थीं, जिससे यह 360 कैलेंडर दिन का समय बन गया।
एक अन्य ऋग्वैदिक स्तोत्र (फोटो ऊपर) के अनुसार, चाप बारह हैं, पहिया एक है, तीन (विभाजित) धुरी हैं, लेकिन इसे कौन जानता है? इसके भीतर 360 (तीलियाँ) एकत्र हैं जो जैसे पहले थे – चल और अचल – अभी भी वैसे ही हैं।
ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि धृतव्रत बारह महीनों को जानते थे। वैदिक दस्तावेजों से पता चलता है कि वैदिक लोग 360 दिनों, 12 महीनों से युक्त एक परिष्कृत प्रणाली को जानते थे और उसका अभ्यास करते थे, जो लगभग हजारों साल बाद आए कैलेंडर की ग्रेगोरियन प्रणाली के समान है। और आज भी इस्तेमाल किया जाता है।
यहाँ एक और यजुर्वेद प्रार्थना है, जिसमें दिन और रात के निर्माण के लिए जिम्मेदार सूर्य, चंद्रमा, तारे जैसे अंतरतारकीय पिंडों की जयकार की गई है।
यजुर्वेद के इस श्लोक (फोटो ऊपर, अनुवाद इसी लाइन में) में संसर्पा (अन्तरालीय मास) को आहुति, चन्द्रमा को आहुति, दीप्तिमानों को आहुति, मालिमलुका (अन्तरालीय मास) को आहुति, सूर्य को आहुति दी गई है।
तैत्तिरीय ब्राह्मण कैलेंडर की चंद्र प्रणाली के अनुसार 13 महीनों के नाम भी सूचीबद्ध (फोटो नीचे, अनुवाद फोटो के नीचे) करते हैं:
अरुणा, अरुणराज, पुंडरिका, विश्वजीत, अभिजीत, आर्द्रा, पिन्वमन, अन्न-वन, रस-वन, इरावन, सरवौषध, सांभर और महास्वन।
तैत्तिरीय ब्राह्मणों द्वारा 24 अर्ध मास (पक्षों) के नामों का भी उल्लेख (फोटो नीचे, अनुवाद फोटो के नीचे) मिलता है:
24 अर्धमाह (पक्ष) हैं – पवित्रा, पविस्यन, पूत, मेध्य, यसस, यशस्वन, आयुस, अमृत, जीव, जीविस्यन, सर्ग, लोक, सहस्वान, सहल्याण, ओजस्वन, सहमन, जयन, अभिजयन, सुद्रविना, द्रविनोदास, अर्द्रपवित्र, हरिकेश, मोद और प्रमोद।
शतपथ ब्राह्मणों द्वारा 354 दिनों के चंद्र वर्ष का भी उल्लेख (फोटो नीचे, अनुवाद फोटो के नीचे) है:
शतपथ ब्राह्मणों के अनुसार, “निश्चय ही जो पूर्णिमा और अमावस्या का यज्ञ करते हैं, इसे पंद्रह साल तक निभाना चाहिए। लेकिन, इन पंद्रह वर्षों में तीन सौ साठ पूर्णिमा और अमावस्या होती है। और एक वर्ष में तीन सौ साठ रातें होती हैं और यही वह रातें हैं, जहाँ उसे कुछ न कुछ प्राप्त होता है।“ (10)
इसके अलावा, उसे फिर एक और पंद्रह साल के लिए यज्ञ करना चाहिए। इन पन्द्रह वर्षों में तीन सौ साठ पूर्णिमा और अमावस्या होती हैं और एक वर्ष में तीन सौ साठ दिन होते हैं। यही वे दिन हैं, जब वह कुछ न कुछ प्राप्त करता है। (11)
इस धरा पर जन्म लिए लेखकों ने अपनी महान रचना में 3,000 से अधिक छंदों का दस्तावेजीकरण किया है, जो पश्चिमी वैज्ञानिकों के सैकड़ों साल पहले भारतीयों की प्रमुख वैज्ञानिक उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हैं।
यह लेख मूल तौर पर अंग्रेजी में लिखी गई है, जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। लेख का अनुवाद ओम द्विवेदी ने किया है। कहीं-कहीं हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी कंटेंट दिया गया है, ताकि समझने में आसानी हो।