भारत की महान धरती पर हर सनातनी संप्रदाय में एक से बढ़ कर एक विद्वान और योद्धा हुए हैं, जिनके पदचिह्नों पर चल पर हमारी सभ्यताएँ फली-फूलीं उन्हीं में से एक नाम है सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव जी का, जिन्होंने अपना बलिदान दे दिया लेकिन मुगलों के सामने नहीं झुके। 15 अप्रैल, 1563 को पंजाब के तंरतारन स्थित गोयंदवाल जन्मे गुरु अर्जुन देव जी को मुग़ल आक्रांता जहाँगीर के अत्याचारों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपना सिर नहीं झुकाया और न ही अधर्मियों की बात मानी।
जहाँगीर हर हाल में सिख गुरु अर्जुन देव को मृत देखना चाहता था, जिसके काई कारण थे। मुगलों को लगता था कि गुरु ग्रन्थ साहिब में इस्लाम को लेकर कुछ गलत बातें लिखी गई हैं, जिन्हें हटाया जाना चाहिए। जहाँगीर को ये भी लगता था कि गुरु अर्जुन देव जी बागी शहजादा खुसरो की सहायता कर रहे हैं। लेकिन, सबसे बड़ा कारण ये था कि सिख संप्रदाय जिस तरह से आगे बढ़ रहा था, उससे इस्लामी आक्रांता भयभीत हो उठे थे। गुरु अर्जुन देव जी को ‘शहीदों का सरताज’ कहा जाता है।
सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव जी: जीवन परिचय
गुरु रामदास की पत्नी बीबी भानी के तीन पुत्र थे – जिनमें सबसे बड़े का नाम पृथ्वी चंद्र था और सबसे छोटे तीसरे पुत्र अर्जुन देव थे। इन दोनों के बीच में जो थे, उनका नाम महादेव रखा गया था। उन दिनों सिखों के तीसरे गुरु अमरदास गोयंदवाल में ही रहा करते थे। गुरु अर्जुन दास तीनों भाइयों में सबको सबसे ज्यादा योग्य लगते थे और साथ ही उनमें अपने पिता और नाना अमर दास के गुण भी भरे पड़े थे। इस कारण सभी उनसे प्रेम करते थे।
उनका विवाह जालंधर जिले के मऊ गाँव के कृष्ण चंद्र की पुत्री गंगा देवी से हुआ था। गंगा देवी की कोख से ही सिखों के छठे गुरु हरगोविंद का जन्म हुआ था। असल में ये उनका दूसरा विवाह था, क्योंकि पहली पत्नी का देहांत हो चुका था और उनकी कोई संतान नहीं हुई थी। एक बार गुरु राम दास ने बेटे की परीक्षा लेने के लिए उन्हें लाहौर में अपने एक रिश्तेदार के विवाह में भेजा और कहा कि उनके बुलाने पर ही वो वहाँ से वापस आएँ।
कार्यक्रम ख़त्म होने के बावजूद जब गुरु का बुलावा नहीं आया तो बेटे को उनकी याद आने लगी। उन्होंने लाहौर में ही गुरु वाणी का सन्देश फैलाने के साथ-साथ सिखों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। उन्होंने तीन पत्र पिता को भेजा, लेकिन उनके ईर्ष्यालु भाई पृथ्वी चंद्र ने इन पत्रों को गुरु तक जाने ही नहीं दिया। अंत में एक पत्र उन्होंने अपने किसी विश्वस्त के माध्यम से भेजा, जब गुरु राम दास ने बाबा बुड्ढा को अर्जुन देव को लाने के लिए भेजा।
गुरु राम दास ने अर्जुन देव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर के चिरनिद्रा को अपना लिया। लेकिन, पृथ्वी चंद्र को ये रास नहीं आया और वो दिल्ली में मुगलों से जा मिला। उस समय दिल्ली की मुग़ल सत्ता भी हिल रही थी, क्योंकि अंदरूनी बगावतों ने उसे तबाह कर रखा था। जिस तरह अकबर के खिलाफ बेटे सलीम ने बगावत की थी, अब जहाँगीर बन चुके उस सलीम के बेटे खुसरो ने भी अपने अब्बा के खिलाफ बगावत ठोक दी थी।
हालाँकि, उसे युद्ध में हार मिली थी। जब वो पराजित होकर लाहौर जा रहा था तो उसने रास्ते में गुरु अर्जुन देव जी से मुलाकात की थी। शहजादा खुसरो ने सहायता माँगी, लेकिन आक्रांताओं की इस लड़ाई में गुरु अर्जुन देव ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और इसे राजकीय मामला बताया। वो गुरु अर्जुन देव ही थे, जिन्होंने पिछले सिख गुरुओं और कई भारतीय संतों की वाणियों को संग्रहित किया। इसके लिए पुस्तकालय तैयार किया गया।
इस संकलन को उन्होंने ‘पोथी साहिब’ नाम दिया था। जहाँगीर के दीवान चन्टू शाह ने भी अपनी बेटी की शादी गुरु अर्जुन दास के बेटे से करने की पेशकश रखी थी, लेकिन गुरु ने उसे साफ़ मना कर दिया। इससे वो बिलबिला उठा था। वो बदला लेने की ताक में रहता था। इसी बीच उसने जहाँगीर को उकसा दिया कि गुरु अर्जुन देव ने शहजादा खुसरो के साथ बैठक की है और युद्ध में सहायता का आश्वासन दिया है। जहाँगीर ने गुरु अर्जुन देव को अपने दरबार में पेश किए जाने का हुक्म दिया और फ़ौज को भेजा।
गुरु अर्जुन देव जी को हो गया था जहाँगीर की बुरी मंशा का अंदेशा
गुरु अर्जुन देव भाँप गए थे कि जहाँगीर उन्हें जीवित नहीं छोड़ेगा, इसीलिए उन्होंने दिल्ली जाने से पहले हरगोविंद को गद्दी सौंपते हुए अंदेशा जताया कि वो शायद लौट नहीं पाएँगे। उन्होंने कहा कि सिखों में जागृत हुई नई चेतना से जहाँगीर भयभीत हो उठा है। उन्होंने हरगोविंद को शक्तिशाली होने के फायदे समझाते हुए सिखों को संगठित करने में पूरी शक्ति लगाने का आदेश दिया। उन्होंने समझाया कि शक्तिशाली से टकराने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता।
गुरु अर्जुन देव जी पर जब शहजादा खुसरो की सहायता का आरोप लगाया गया, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि गुरु के दरबार में आने से किसी को रोका नहीं जा सकता और यहाँ जाति-पाति या धर्म-मजहब का भेदभाव भी नहीं चलता है, ऐसे में अन्य लोगों के समान खुसरो भी गुरु के दरबार में आया था और उसे रोकना गुरु परंपरा के विरुद्ध था। 30 मई, 1606 को उन्हें जहाँगीर के आदेश पर मार डाला गया। वो बलिदान हो गए।
उनकी जीवनी के लेखक प्रोफेसर गुरप्रीत सिंह ने लिखा है कि उन्हें पहले रावी नदी के किनारे ले जाया गया। वहाँ एक जलती हुई भट्ठी के ऊपर लोहे की चादर डाली गई, जो काफी गर्म हो उठी थी। उन्हें तपती हुई लोहे की चादर पर बिठा दिया गया और ऊपर से गर्म बालू डाला गया। इस तरह गुरु अर्जुन देव जी को सिख संप्रदाय में ‘प्रथम शहीद’ का दर्जा मिला। इस तरह उन्हें मृत्युदंड दिए जाने के पीछे जहाँगीर के मन में एक और कारण था, वही विचारधारा, जिस पर चल कर आज भी हिन्दू विरोधी हिंसा की जाती है।
Mughal Emperor Jahangir admitted in his autobiography of killing Guru Arjan Dev. The guru was asked to erase some lines of the Gurbani from ‘Adi Granth’ nd convert to Islam.
— Sanskriti Pathak 🇮🇳 (@SanskritiWrites) August 17, 2021
Upon refusal, he was brutally tortured for 5 days until death.
HISTORY BOOKS WON’T TELL U THIS pic.twitter.com/DL41y4qw2V
जहाँगीर चाहता था कि ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में इस्लाम के खिलाफ जो बातें लिखी हैं, उन्हें हटा दिया जाए। साथ ही वो सिख गुरु के साथ उनके अनुयायियों को इस्लाम में धर्मांतरित भी करना चाहता था। गुरु अर्जुन देव जी ने उसकी शर्तों को मानने से साफ़ इनकार कर दिया। एक और बात ध्यान दने लायक है कि गुरु अर्जुन देव को 6 दिन तक घोर प्रताड़ना देने और उनके बलिदान के पीछे सूफियों का हाथ है, जिन्हें आज इस्लामी कट्टरपंथी सूफी संत’ कहते हैं। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है कि गुरु अर्जुन देव ने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया था।
इन सूफियों ने जहाँगीर को ज़हर भरा पत्र भेजा था, जिसमें सिख गुरु को मार डाले जाने का हुक्म दिया गया था। इसमें सबसे बड़ा हाथ नक्षबंदी समुदाय के सूफी फकीर शेख अहमद सरहिंदी का हाथ माना जाता है। प्रताड़ना के लिए गुरु अर्जुन देव को लाहौर के शासक को सौंप दिया गया था। ये सब इसके बावजूद हुआ, जब गुरु अर्जुन देव ने हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) का नींव रखने के लिए ‘सूफी संत’ मियाँ मीर को आमंत्रित किया था। कई दस्तावेजों में ये बात लिखी है।