साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्य में इस बात का प्रमाण है कि सदियों से तमिलों का काशी और बाबा विश्वनाथ के प्रति अगाध श्रद्धा रही है। आम जनमानस के साथ ही तमिल राजा और प्रबुद्ध वर्ग काशी की यात्रा करते रहे हैं। प्रमाण मिलते हैं कि 2300 साल पहले भी तमिलनाडु के नगर-ग्रामों की गलियाँ काशी की महिमा बखानने वाले गीतों से गूँजती थीं। ऐतिहासिक तथ्यों का साक्ष्य लें तो कोई 2000 वर्ष पहले से ही तमिलजनों की काशी यात्रा का क्रम प्रारंभ हो चुका था।
तमिल भाषा तो इतनी समृद्ध है कि इस भाषा में ‘अगटिटयम अगस्त्यम’ नामक एक व्याकरण ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है, जिसका रचना काल ईसा पूर्व का है। पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ की तरह इसकी उत्पत्ति भी शंकर के डमरू की ध्वनियों से निकली बताई जाती है। एक तरफ से पाणिनि का संस्कृत व्याकरण और दूसरी तरफ से तमिल का व्याकरण। इन दोनों ही भाषाओं का परस्पर संबंध संगम के दौरान हो गया होगा।
कहा जाता है कि प्रथम तमिल संगम मदुरै में हुआ था जो पाण्ड्य राजाओं की राजधानी थी और उस समय अगस्त्य, शिव, मुरुगवेल आदि विद्वानों ने इसमें हिस्सा लिया था। इसके बाद जो द्वितीय संगम हुआ उसका केंद्र कपातपुरम में था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भारतीय प्राच्य इतिहास के प्रोफेसर रह चुके डॉक्टर विशुद्घानंद पाठक के मुताबिक, कपातपुरम का संगम ही इतिहास का सबसे बड़ा संगम था और उसमें उत्तर और दक्षिण के विद्वानों ने संगति की थी।
इन प्रथम दोनों संगम के बारे में विद्वानों में मतभेद जरूर हों पर उस समय का ग्रन्थ ‘तोल्लकाप्पियम’ आज भी उपलब्ध है। इसके रचनाकार तोल्लिकाप्पियार थे और उन्होंने दूसरा व्याकरण ग्रन्थ लिखा था। तमिल परंपरा में हर साहित्य तमिल अस्मिता वाले क्षेत्र का अदभुत वर्णन करते हैं।
कालांतर में भाषाई विवाद भी बढ़े। विद्वानों का मत है कि तमिल क्षेत्र के पांड्य राजाओं का संगम साहित्य में बहुत योगदान है और मूल रूप से सारा तमिल साहित्य इन्हीं पाण्ड्य राजाओं के संरक्षण में ही पनपा। पल्लव और पाण्ड्य राजाओं के बीच हुए परस्पर युद्धों ने तमिल भाषा को उत्तर की संस्कृत भाषा से दूर किया। दरअसल पल्लव राजा संस्कृत को बढ़ावा देते थे तथा वैदिक धर्म के संरक्षक थे, जबकि पाण्ड्य राजाओं के काल में शैव और वैष्णव परंपरा पनपी व तमिल भाषा पर जोर दिया गया। हालाँकि, पाण्ड्य राजा कोई संस्कृत के विरोधी नहीं थे पर वे तमिल का भी बराबर का प्रचार-प्रसार चाहते थे।
16वीं सदी में मुगल आक्रांताओं के भय से तमिल समाज की काशी यात्रा का मार्ग अबाध नहीं रह गया। काशी विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस हो चुका था। काशी के तीर्थ पुरोहितों के कर्मकांडीय अनुष्ठानों पर रोक लगी हुई थी। ऐसे में काशीय वैभव के क्षरण से दुखी तमिलनाडु के पांड्य वंश के राजा जटिल वर्मन पराक्रमम ने ताम्रवर्णीय नदी (इस नदी की चर्चा रामायण में भी है) के तट पर एक नई काशी का निर्माण किया, जो आज भी तेनकाशी के नाम से विख्यात है।
17वीं शताब्दी में तिरु नेलवेली में पैदा हुए संत कुमारगुरु पारा ने काशी पर कविताओं की व्याकरणिक रचना ‘काशी कलमबकम’ लिखी और कुमारस्वामी मठ की स्थापना की।
जहाँ काशी ने पंडित परंपरा को स्थापित किया, वहीं तमिलनाडु ने तमिल इलक्कियापरंबराई (तमिल साहित्यिक परंपरा) का उदय देखा। बनारस हिंदू विविद्यालय के शिलान्यास समारोह में महान वैज्ञानिक सीवी रमन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे और भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसके कुलपति थे।
श्रीकांची शंकराचार्य मठ के प्रबंधक व तीर्थ पुरोहित सुब्रमण्यम मणि के अनुसार, सातवीं सदी के तमिल लोक साहित्य काशी के महिमागान वाली रचनाओं से भरे पड़े हैं। तमिल लोकसाहित्य में यह भी वर्णन मिलता है कि सातवीं सदी के तत्कालीन शैव परंपरा में उस समय 63 शैवपंथ शाखाएँ सक्रिय थीं। इन सभी पंथों के 63 धर्माचार्य भी हुआ करते थे। इनमें से एक प्रमुख धर्माचार्य अप्परस्वामी कैलाश मानसरोवर की यात्रा के दौरान कई मास तक काशी प्रवास पर रहे।
संगमम में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारतीय भाषा संस्थान तथा केंद्रीय शास्त्रीय तमिल संस्थान के स्टॉल लगाए गए हैं। ये पुस्तकें प्राचीन संगम व शास्त्रीय साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक के बारे में हैं। इन ग्रंथों में तिरुवल्लूवर की तिरुकुरल, शिल्पादिकारम, चितलाई चतनार का मणिमेकलई, कपिलर का पट्टू पट्टू आदि शामिल हैं।
रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, “यदि ईश्वर की इच्छा होती, तो सभी भारतीय एक ही भाषा बोलते… भारत की शक्ति अनेकता में एकता रही है और हमेशा रहेगी।” देश में आज 19500 से अधिक भाषा -बोलियाँ बोली जाती हैं, जिनमें काशी और तमिलनाडु दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं-संस्कृत और तमिल के केंद्र रहे हैं। सुब्रमण्यम भारती जैसे दिग्गज काशी में रहे, उन्होंने संस्कृत और हिंदी सीखी और स्थानीय संस्कृति को समृद्ध किया और तमिल में व्याख्यान दिए। विभिन्न जीवंत परंपराओं को इस तरह से आत्मसात करने के कारण से ही भारत सांस्कृतिक लोकाचार की विशेषता वाले समकालिक संपूर्णता को बनाए रखने में सक्षम रहा है।
(लेखक सुभाष चंद्रा स्वतंत्र पत्रकार हैं)