अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का सम्बोधन आज भी हर एक भारतीय के दिलों-दिमाग में रचा-बसा हुआ है। कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष रहे महात्मा गाँधी को हम सब जानते हैं। लेकिन, एक गाँधी ऐसे भी थे जिन्हें हमने भुला दिया। उन्होंने भी स्वामी विवेकानंद की तरह ही विश्व धर्म संसद में हिस्सा लिया था। वो सनातन के ही अंग जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में वहाँ पहुँचे थे। दुनिया भर में जैन धर्म के सिद्धांतों व विचारों को पहुँचाने का श्रेय उन्हें जाता है। नाम है – वीरचंद राघवजी गाँधी।
गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है भावनगर जिला। यहीं के महुवा इलाके में 25 अगस्त, 1864 को वीरचंद राघवजी गाँधी का जन्म हुआ था। भावनगर में ही शुरुआती शिक्षा के बाद उनका दाखिला एलफिनस्टन महाविद्यालय में कराया गया। 1834 में स्थापित ये कॉलेज मुंबई के सबसे पुराने कॉलेजों में से एक है। उन्होंने यहाँ से ऑनर्स से स्नातक किया। काफी उम्र में उन्होंने 14 भाषाओं में दक्षता प्राप्त की।
मात्र 21 वर्ष की उम्र में उन्हें ‘ऑल इंडिया जैन एसोसिएशन’ के ऑनररी सेक्रेटरी का पद दिया गया। उन्होंने भारतीय साहित्य व धर्म को देश-विदेश में पहुँचाने में बड़ी भूमिका निभाई। 1893 में शिकागो में हुए ‘पार्लियामेंट ऑफ वर्ल्ड रिलीजंस’ के पहले अधिवेशन में उन्होंने स्वामी विवेकानंद के साथ हिस्सा लिया था। इस दौरान उन्होंने भारत की आत्मा व संस्कृति को पश्चिमी जगत के सामने रखा। अमरिका के धार्मिक संगठनों, चर्च समाज व मनोवैज्ञानिक समाज ने उन्हें हाथोंहाथ लिया।
अमेरिका के लोग जैन धर्म को लेकर प्रभावित हुए और वहाँ के बड़े अख़बारों ने उनके सम्बोधन को जगह दी। उन्होंने इस नैरेटिव को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई कि भारत महाराजाओं, बाघों और साँपों का देश है। वो 2 वर्षों तक अमेरिका में रहे और इस दौरान वहाँ के कई शहरों में घूम कर भारतीय चेतना का संचार किया। इसके बाद भी 2 बार वो अमेरिका गए। ये वो समय था, जब भारत के कई इलाके सूखा दे जूझ रहे थे।
ऐसे में 1896 में जब वीरचंद गाँधी अमेरिका गए तो उन्होंने अपने देश के लिए एक जहाज भर कर अन्न व 40,000 रुपए भी जुटाए, ताकि यहाँ के गरीबों की मदद हो सके। उन्होंने इंग्लैंड, फ़्रांस व जर्मनी सहित यूरोप के कई देशों का भी दौरा किया। लंदन की अदालत में उन्हें बतौर बैरिस्टर काम करने की भी अनुमति मिली। अमेरिकी प्रशासक हर्बर्ट वॉरेन ने उनसे जैन धर्म की शिक्षा ली। वॉरेन ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के कुलपति थे। वो जैन शिक्षाओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ये धर्म अपना लिया।
स्वामी विवेकानंद ने नवंबर 1894 में लिखे गए एक पत्र में बताया था कि वीरचंद गाँधी शुद्ध सब्जियों के अलावा कुछ नहीं खाते हैं, भले ही मौसम कितना भी ठंडा क्यों न हो जाए। उन्होंने लिखा था कि वीरचंद गाँधी हमेशा अपने धर्म व देशवासियों का बचाव करने में लगे रहते हैं, इसीलिए भारत के लोग उन्हें काफी पसंद करते हैं। अक्टूबर 1893 में ‘The Rochester Herlad’ अख़बार ने लिखा कि उनके सम्बोधनों को अमेरिका के सभी बूढ़े-बच्चों को सुनना चाहिए।
वीरचंद गाँधी के पिता एक ज्वेलर थे और वो परिवार जैन धर्म के सारे नियम-कानूनों का पालन करता था। उनके पिता ने धर्म के नाम पर चली आ रही कई कुरीतियों को भी ख़त्म किया था, अतः वो एक सुधारवादी भी थे। 1880 में मैट्रिक करने वाले वीरचंद गाँधी ने सबसे पहले तो जैन धर्म के अनुयायियों और पालीताना के राजा के बीच समझौता कराया। जैन धर्म में पवित्र शत्रुंजय तीर्थ में दर्शन के लिए जाने पर श्रद्धालुओं को कर देना होता है।
वीरचंद गाँधी इसके निपटारे के लिए बॉम्बे के गवर्नर तक पहुँचे और उनके सामने अपनी बात रखी। अंत में फैसला हुआ कि पालीताना राज को हर साल 15,000 रुपए दिए जाएँगे और उन्हें जैन श्रद्धालुओं से किसी प्रकार का टैक्स नहीं वसूलना होगा। गरीब जैनों को इससे बड़ा फायदा हुआ और वीरचंद गाँधी की ख्याति चारों तरफ फ़ैल गई। पालीताना में जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव का मंदिर है और आज भी ये कानूनी रूप से विश्व का एकमात्र शहर है।
इसी से आप इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस समय इस निर्णय का कितना बड़ा असर हुआ होगा। जैन संघ के अधिकारी के रूप में उनका काम इतना अच्छा था कि कानून की पढ़ाई के लिए कई अमीर जैन कारोबारियों ने उन्हें वित्तीय मदद की पेशकश की। 1891 में खबर आई कि एक यूरोपियन ने गिरिडीह में जैन के पवित्र स्थल सम्मेद शिखर में एक बूचड़खाना खुलवाया है, जिसमें सूअर काटे जाते थे।
जैन धर्म के अनुयायियों को ये स्वीकार्य न था। कलकत्ता की अदालत में मामला दायर हुआ, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। वीरचंद गाँधी खुद कलकत्ता पहुँचे और हाईकोर्ट में अपील दायर की। उन्होंने इसके धार्मिक व कानूनी पक्ष गिनाए। वो कई महीनों तक शहर में रहे व बंगाली दस्तावेजों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। सभी धार्मिक व कानूनी दाँव-पेंच को समझा। शिलालेखों व प्राचीन दस्तावेजों की मदद से उन्होंने इस केस में फतह हसिल की व बूचड़खाना बंद हुआ।
Born in Gujarat, Mr. Gandhi studied law and at a young age he learnt 14 languages, including Gujarati, Hindi, Bengali, English, Prakrit, Sanskrit, and French.
— Anmol Jain 🇮🇳 (@im_anmoljain) March 2, 2021
In 1885, at the age of 21, he became the first honorary secretary of the Jain Association of India.2/5 pic.twitter.com/7uPithqKjW
जैन धर्म के लिए ये उनका दूसरा मैराथन प्रयास था, जो सफल रहा। उस समय आचार्य विजयानंद सूरी (गुजराँवाला के आत्मराम) जैन धर्म के सबसे बड़े गुरु माने जाते थे। असल में विश्व धर्म संसद में हिस्सा लेने के लिए उनके पास ही आमंत्रण आया था, लेकिन तब जैन गुरु विदेश की यात्रा नहीं करते थे। इसीलिए, जैन समुदाय ने वीरचंद गाँधी को अपना प्रतिनिधि चुना। वो शिकागो पहुँचे और वहाँ के विद्वानों के बीच भी अपनी प्रतिष्ठा हासिल की।
वहाँ से बॉम्बे लौटने के बाद भी उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों पर कई लेक्चर देकर लोगों को धर्म का पाठ पढ़ाया। 1896 में वो दोबारा अमेरिका पहुँचे। इसके बाद वो कुछ दिनों के लिए भारत आए। फिर इंग्लैंड के बार में प्रैक्टिस के लिए वो वहाँ गए। लेकिन, उनका मन फिर भी स्वदेश में ही लगा। जैसे स्वामी विवेकानंद मात्र 39 की उम्र में चल बसे थे, वीरचंद गाँधी का निधन भी मात्र 37 वर्ष की आयु में 7 अगस्त, 1901 को हुआ।
Herbert Warren, who studied Jainism under Mr. Gandhi adopted the religion, published a book Herbert Warren's Jainism.
— Anmol Jain 🇮🇳 (@im_anmoljain) March 2, 2021
American newspaper, Buffalo Courier, said that of all Eastern scholars Gandhi's lectures on Jain faith were listened with "greatest interest and attention" pic.twitter.com/7WIX4oKzTD
उन्होंने अपने जीवनकाल में जैन सिद्धांतों व भारतीय धर्म व दर्शन पर 535 संबोधन दिए, जो उनकी उम्र के हिसाब से एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। विश्व धर्म संसद में भी 3000 विद्वानों के बीच भारतीय पारंपरिक वेशभूषा में पहुँचे स्वामी विवेकानंद और वीरचंद गाँधी, दोनों ही युवा थे। गुजरती, हिंदी, बंगाली, अंग्रेजी, संस्कृत प्राकृत और फ्रेंच जैसी भाषाओं का ज्ञान रखने वाले वीरचंद गाँधी के सम्बोधन से अमेरिकी इतने प्रभावित थे कि उन्हें अमेरिका में रुकने के लिए निवेदन किया गया।
योग पर भी उनके कई लेक्चर हैं। उन्होंने कभी जैन धर्म का प्रचार करते समय किसी अन्य मजहब की बुराई नहीं की। उन्होंने भारत के आलोचकों पर प्रहार करते हुए दुनिया को बताया कि सांस्कृतिक योग्यता, कृषि, साहित्य, कला, अच्छा व्यवहार, ज्ञान आतिथ्य, फेमिनिज्म, प्यार और सम्मान – ये भी भारत में अलग-अलग रूपों में मौजूद हैं। अमेरिका में उन्होंने ‘द गाँधी फिलोसॉफिकल सोसाइटी’, ‘द स्कूल ऑफ ओरिएण्टल फिलॉसोफी’ और ‘द सोसाइटी फॉर द एजुकेशन ऑफ़ वीमेन ऑफ इंडिया’ की स्थापना की।