महाराष्ट्र राज्य का गठन 1 मई 1960 को हुआ था। तब से अब तक हर साल इस दिन को ‘महाराष्ट्र दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इसी दिन ‘बॉम्बे रीऑर्गेनाईजेशन एक्ट’ पास हुआ था। इससे पहले अलग राज्य की माँग को लेकर प्रदर्शनों की झड़ी लग गई थी। ये एक्ट उसका ही परिणाम था।
यहाँ हम नेहरू के जिद्दी रुख की बात करेंगे। लेकिन पहले कुछ और बातें समझनी पड़ेंगी। पहले ‘स्टेट ऑफ बॉम्बे’ के अंतर्गत मराठा, गुजराती, कच्छी और कोंकणी बोलने वाले लोगों के क्षेत्र आते थे लेकिन ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ के कारण तस्वीर बदल गई। उक्त एक्ट ने बॉम्बे को गुजरात और महाराष्ट्र के रूप में पुनर्गठित किया।
कैसे गठन हुआ महाराष्ट्र और गुजरात का?
मराठी और कोंकणी भाषी क्षेत्र महाराष्ट्र का हिस्स्सा बने, जबकि गुजराती और कच्छी गुजरात का हिस्सा बने। मुंबई के दादर स्थित शिवाजी पार्क में हर वर्ष इसके आलोक में भव्य आयोजन होता है। राज्यपाल, मुंबई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार के साथ-साथ अधिकारीगण इस कार्यक्रम का हिस्सा बनते हैं।
इस बार कोरोना वायरस के कारण परेड और कार्यक्रम वगैरह संभव नहीं हो सका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे सहित कई बड़े नेताओं ने ‘महाराष्ट्र दिवस’ पर शुभकामनाएँ प्रेषित कीं। ‘बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम 1960’ जब पास हुआ, तब केंद्र में जवाहरलाल नेहरू की सरकार थी। असल में गुजरातियों ने भी अपने अलग राज्य के लिए आंदोलन तेज़ किया हुआ था।
1956 में आए राज्यों के पुनर्गठन अधिनियम के तहत भाषा के आधार पर राज्यों का बँटवारा हुआ लेकिन मराठियों को अलग राज्य नहीं मिला। उस समय कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को कर्नाटक, तमिल को तमिलनाडु, तेलुगु को आंध्र और मलयालम को केरल के रूप में पुनर्गठित किया गया था। इसके बाद ही ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ शुरू हुआ, जिसमें 105 से भी अधिक लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। ये सामान्य मराठियों का आंदोलन था, जो अपने लिए अलग राज्य की माँग कर रहे थे। ब्रिटिश के समय से ये माँग चल रही थी और पहली कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा छले जाने के बाद ये घाव और गहरे हो गए थे।
बेलगाम में 1946 में हुए मराठी साहित्य सम्मलेन में ही ज्वाइंट महाराष्ट्र के गठन के लिए प्रस्ताव पारित किया गया था और वहीं ज्वाइंट महाराष्ट्र काउंसिल (संयुक्त महाराष्ट्र परिषद् समिति) का गठन हुआ। इतिहास में आगे बढ़ने से पहले उस समय का भूगोल समझाना ज़रूरी है। विदर्भ के 6 जिले उस समय मध्य प्रदेश का हिस्सा थे। इसी तरह लगभग सारा मराठवाड़ा हैदराबाद का भाग था। मुंबई का कुछ हिस्सा पूर्वी गुजरात का भाग था, जबकि महानगर का कुछ हिस्सा कर्नाटक स्टेट का भाग था। इसी कारण महाराष्ट्र की माँग तेज़ हुई।
यशवंतराव चव्हाण सहित दक्षिण महाराष्ट्र और विदर्भ के कई बड़े नेताओं के साथ सलाह कर 1953 में नेहरू सरकार ने एक एग्रीमेंट बनाया। इसके अनुसार महाराष्ट्र को अलग राज्य और मुंबई को राजधानी बनाने का निर्णय लिया गया। लेकिन, केंद्र सरकार ने बाद में मुंबई को केंद्रशासित प्रदेश बनाने का फ़ैसला कर मराठियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उस समय मोरारजी देसाई, मुंबई स्टेट के मुख्यमंत्री थे जो आगे जाकर भारत के प्रधानमंत्री भी बने। मराठियों के गुस्से का परिणाम कॉन्ग्रेस को 1957 के विधानसभा चुनाव में झेलना पड़ा। कॉन्ग्रेस को गुजरात वाले भाग से वोट तो मिले लेकिन मराठा क्षेत्रों में उसे निराशा हाथ लगी।
1st May 1960
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बॉम्बे और महाराष्ट्र के शुरुआती दौर के चुनाव
महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास के इस अहम चुनाव में 339 सीटों के लिए चुनाव हुआ था। इनमें से 57 सीटों पर दो-दो प्रतिनिधियों के लोए मतदान हुए। इस तरह 396 सीटों में से कॉन्ग्रेस को 234 मिली और उसकी 35 सीटें कम हो गईं। ‘स्टेट्स रीऑर्गेनाईजेशन एक्ट, 1956’ के बाद यशवंतराव चव्हाण बॉम्बे के मुख्यमंत्री बने थे, उन्हें 1957 में कुर्सी दोबारा मिली। फिर महाराष्ट्र के गठन के बाद भी वे पहले मुख्यमंत्री बने। इस तरह बॉम्बे के अंतिम और महाराष्ट्र के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कार्यभार सँभाला था। कॉन्ग्रेस द्वारा महाराष्ट्र का गठन करना भी वहाँ के लोगों की विश्वसनीयता जीतने का प्रयास ज्यादा था।
जवाहरलाल नेहरू को इस समस्या का भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, क्योंकि उनके इस एक्सपेरिमेंट्स की वजह से खून बहे। 16 जनवरी 1956 को उन्होंने विदर्भ और मराठियों के लिए महाराष्ट्र और कच्छ और सौराष्ट्र को गुजरात के रूप में पुनर्गठन की घोषणा करते हुए मुंबई को केंद्रशासित प्रदेश बना डाला। अगले 5 दिनों तक भारी विरोध-प्रदर्शन हुआ और पुलिस फायरिंग में 67 लोगों की मौत हुई। जनता नेहरू की इस घोषणा से ख़ुश नहीं थी। जयप्रकाश नारायण और हैदराबाद कॉन्ग्रेस का भी ये विचार था कि मुंबई को महाराष्ट्र का हिस्सा होना चाहिए। फ़िरोज़ गाँधी ने भी संसद में यही कहा। केंद्रीय मंत्री सीडी देशमुख ने इस मुद्दे पर अपना इस्तीफा ही सौंप दिया।
मराठा नेतागण केंद्र को अलग राज्य का गठन करने की सलाह देकर फायदे में रहे और पार्टी को भी लोगों ने हाथोंहाथ लिया। 1962 का चुनाव इसका प्रत्यक्ष गवाह बना। उस चुनाव में कॉन्ग्रेस ने 264 में से 215 सीटें जीत कर भारी कामयाबी हासिल की। कई राजनीतिक पुस्तकें लिख चुके वीएम सिरसिकर बताते हैं कि कॉन्ग्रेस केवल महाराष्ट्र में संसदीय और विधानसभा चुनावों में ही सफल नहीं रही थी, बल्कि लोगों की सामाजिक ज़िंदगी को प्रभावित करने वाले हर एक क्षेत्र में कॉन्ग्रेस का बोलबाला था। वो लिखते हैं कि सुदूर गाँव के प्रधान से लेकर विधानसभा के सदस्य तक और डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के अध्यक्ष तक, सब कॉन्ग्रेसी थे। यानी, हर जगह एक ही पार्टी की सत्ता थी।
यशवंतराव चव्हाण को आधुनिक महाराष्ट्र का शिल्पी भी कहा जाता है। आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले यशवंतराव चव्हाण पेशे से वकील थे। वे जवाहरलाल नेहरू के क़रीबी थे और नेहरू की विचारधारा से ही इत्तेफाक रखते थे। नेहरू ने अपनी ‘इन्क्लूसिव और प्लुरलिस्टिक’ एक्सपेरिमेंट्स के चक्कर में मराठियों और गुजरातियों को उनका अलग राज्य नहीं दिया था। नेहरू भारत में सभी प्रकार के लोगों के साथ रहने’ की बातें करते हुए अपने इस निर्णय को सही ठहराते थे और चव्हाण ने भी ‘पहले भारतीय, फिर महाराष्ट्रियन’ जैसी बातें कर नेहरू की विचारधारा का समर्थन तो ज़रूर किया लेकिन कॉन्ग्रेस के ये एक्सपेरिमेंट फेल रहा।
जब आलाकमान ने यशवंतराव चव्हाण से महाराष्ट्र की स्थिति के बारे में पूछा तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि यहाँ तो कुछ भी सही नहीं है, सब गड़बड़ और एक नहीं बल्कि कई सारी समस्याएँ हैं। इस तरह ‘महा गुजरात समिति’, ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ के भारी दबाव और यशवंतराव चव्हाण का मज़बूरी में कॉन्ग्रेस आलाकमान को सच्चाई से अवगत कराने से महाराष्ट्र के गठन का रास्ता साफ़ हुआ, जिसने नेहरू को एहसास दिला दिया कि ‘द्विभाषीय राज्य’ वाले एक्सपेरिमेंट एकदम फेल हो गया है। चव्हाण को बाद में केंद्र में बुला लिया गया, जहाँ उन्होंने जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी की कैबिनेट में गृह, विदेश, रक्षा और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों के कार्यभार सँभाले।
जब बात महाराष्ट्र की हो रही हो तो राजधानी मुंबई की बात ज़रूर होगी, क्योंकि राज्य के गठन के बाद से सभी गतिविधियों का यही केंद्र रहा। इसने बाल ठाकरे और जॉर्ज फर्नांडिस के इशारे पर चलना और रुकना सीखा। इसने शरद पवार को उभरते हुए देखा और 90 के दशक में अंडरवर्ल्ड के उभार के बाद यही मुंबई ख़ून-ख़राबे का गढ़ भी बना। देश की आर्थिक राजधानी, जिसे मायानगरी भी कहते हैं, आज भी रोज तमाम तरह की उठापटक के बीच चमचमाती रहती है। अगर मुकेश अम्बानी का एंटीलिया यहाँ है तो दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गी धारावी भी यहीं है। आज भी गुजरती समुदाय यहाँ सुख-चैन से रहता है, जो साबित करता है कि नेहरू का ये सोचना कि अलग राज्य न देने से ही सब साथ रहेंगे, ग़लत था।
शिवसेना: बाल ठाकरे का प्रादुर्भाव
अब बात महाराष्ट्र के राजनीति की कर लेते हैं। 60 के दशक का अंत होते-होते बाल ठाकरे का प्रभाव दिनोंदिन बढ़ने लगा था। मुंबई महानगरपालिका के अपने पहले ही चुनाव में शिवसेना ने 42 सीटें जीत कर दमदार एंट्री की। मध्यम वर्ग के बीच शिवसेना की लोकप्रियता की कोई सीमा न थी, उस क्षेत्रों में उसे भारी वोट मिले थे। शिवसेना के मजबूत होते ही वामपंथियों का प्रभाव घटने लगा। ‘सामना’ के पूर्ववर्ती ‘मार्मिक’ में तो स्पष्ट कहा गया था कि वामपंथ का अंडकोष निकाल कर उन्हें नपुंसक बनाने के लिए ही शिवसेना का जन्म हुआ है। दिसंबर 27, 1967 को शिवसैनिकों ने कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर पर हमला कर दलवी बिल्डिंग को जला डाला।
इसके कुछ ही दिनों बाद शिवसैनिकों ने सीपीआई की रैली पर हमला किया। कुछ दिनों बाद सीपीआई के कुछ लोगों पर फिर से हमला किया गया। सेना के शाखा से लोगों को ज़रूरी सामानों की सप्लाई मिलती, पानी की व्यवस्था ठीक की गई और सड़कों की मरम्मत कराई गई। इससे मजदूरों का एक बड़ा तबका कम्युनिस्टों की जगह शिवसेना की तरफ आया। दिवंगत लेखक वीएस नायपॉल ने भी अपनी पुस्तक में मुंबई के एक झुग्गी के दौरे के बारे में लिखा है। उन्होंने पाया कि किस तरह चमचमाती दुनिया से दूर रहने वाले मजदूरों के लिए भोजन-पानी, घर और शौचालय की व्यवस्था में शिवसेना ने जान लगा दी थी।
बाल ठाकरे के प्रभाव का असली अंदाज़ा दुनिया को तब लगा, जब 9 फ़रवरी 1969 को उन्हें गिरफ्तार किया गया। उसके बाद शिवसैनिकों ने मुंबई में जो तांडव मचाया, वैसा वहाँ शायद ही अब तक देखा-सुना गया हो, ख़ासकर किसी नेता के लिए। कई होटलों को जला दिया गया। पुलिस चौकियों और कमर्शियल इमारतों को निशाना बनाया गया। सेना को अलर्ट पर रहने बोल दिया गया। कर्फ्यू कई हफ़्तों तक यूँ ही चलता रहा। सरकार फेल हो गई और अंत में बाल ठाकरे से शांति के लिए एक लिखित अपील जारी करवाई गई। लेखक वैभव पुरंदर बताते हैं कि स्वतंत्र भारत में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब ‘प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट’ के तहत जेल में बंद व्यक्ति से अपील लिखवा कर उसकी प्रतियाँ लोगों में बाँटी गईं, ताकि शांति बहाल हो।
इसेक बाद शिवसेना कार्यकर्ता समाजसेवा में जुट गए। ठाकरे की अपील का असर इतना था कि शिवसैनिक झाड़ू लेकर अपनी ही फैलाई गंदगी को साफ़ करने निकल पड़े। हिंसा का ये दौर यूँ ही चलता रहा और सीपीआई से लड़ते-लड़ते 80 के दशक में कब शिवसेना कॉन्ग्रेस के लिए ख़तरा बन गई, पता ही नहीं चला। 1989 में ‘सामना’ लॉन्च किया गया। एक कार्टूनिस्ट मजदूरों से लेकर मध्यम वर्ग के लोगों का नेता बन चुका था। शहरी मराठियों में उसकी तूती बोलती थी। फिल्म इंडस्ट्री के लोग चक्कर काटते थे। 1995 में शिवसेना ने भाजपा के साथ मिलकर राज्य में सरकार बनाई। मनोहर जोशी और उसके बाद नारायण राणे मुख्यमंत्री बने। बाल ठाकरे मातोश्री से सरकार चलाते रहे।
इस दौरान भाजपा के दो दिग्गज नेता गोपीनाथ मुंडे और प्रमोद महाजन की बात न हो तो 90 के दशक और अटल युग की चर्चा भी अधूरी रह जाती है। शिवसेना को साध कर रखने में इन दोनों नेताओं की अहम भूमिका थी, जो महाराष्ट्र में अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे प्रमुख सिपहसालार थे। देश को इन दोनों नेताओं से काफी कुछ मिलता लेकिन दोनों ही असमय चल बसे। प्रमोद महाजन की हत्या एक पारिवारिक विवाद में हुई, वहीं केंद्रीय मंत्री बनने के कुछ ही दिन बाद एक कार एक्सीडेंट में मुंडे भी चल बसे। प्रमोद महाजन भाजपा के प्रचार तंत्र के शिल्पी हुआ करते थे। दोनों कई गुटों को एक साथ लेकर चलने में सक्षम थे।
धीरे-धीरे बाल ठाकरे की पकड़ कमजोर होने लगी और 1999 से लेकर 2014 तक राजग गठबंधन महाराष्ट्र में विपक्ष में ही बैठा रहा और कॉन्ग्रेस लगातार राज करती रही। एनसीपी का प्रभाव बढ़ा। उद्धव ठाकरे में अपने पिता जैसी क्षमता नहीं थी। लिहाजा शिवसेना में परिवारवाद के चलते दूसरी पंक्ति से कोई ओजस्वी नेता नहीं उभर पाया। राज ठाकरे ज़रूर भाषण और चाल-ढाल में अपने चाचा की तरह थे, लेकिन 2006 आते-आते उन्होंने शिवसेना छोड़ ‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना’ का गठन किया। मनसे के गठन के बाद शिवसैनिकों से उसकी कई बार झड़प भी हुई लेकिन इससे शिवसेना का आधार सिकुड़ता गया।
वामपंथी आज भी कहते हैं कि शिवसेना का जन्म कॉन्ग्रेस के आशीर्वाद से हुआ था। सीपीआई के संथापक और वयोवृद्ध वामपंथी नेता श्रीपद अमृत डांगे की बेटी रोजा देशपांडे का मानना है कि शिवसेना के उद्भव से लेकर उसके पूरे सेटअप के लिए कॉन्ग्रेस ही जिम्मेदार है। वह अपने इस बयान के पीछे तर्क देते हुए याद दिलाती हैं कि जब शिवसेना की स्थापना की घोषणा हुई थी, तब कॉन्ग्रेस नेता रामराव आदिक मंच पर मौजूद थे। शिवसेना की स्थापना 1966 में हुई थी। प्रसिद्ध वकील रामराव आदिक आगे जाकर महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री भी बने।
जेल जाने से बचने के लिए बाल ठाकरे ने आपातकाल और इंदिरा गाँधी का समर्थन किया, ऐसा कहा जाता है। इसके बाद न सिर्फ़ 1977 लोकसभा और 1978 के बीएमसी चुनाव बल्कि 1980 के लोकसभा चुनाव में भी बाल ठाकरे ने कॉन्ग्रेस का समर्थन किया था। उन्होंने कॉन्ग्रेस के ख़िलाफ़ प्रत्याशी ही नहीं उतारे। शिवसेना ने बहाना बनाया कि बाल ठाकरे के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री एआर अंतुले के साथ निजी रिश्ते हैं, इसलिए शिवसेना समर्थन कर रही है।
महाराष्ट्र और मोदी युग
2014 में देश की राजनीति बदल गई क्योंकि नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय पटल पर उदय हुआ और महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश की राजनीति इसी एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमने लगी। उधर देवेंद्र फडणवीस की मेहनत के कारण ‘दिल्ली में नरेंद्र, महाराष्ट्र में देवेंद्र’ का नारा उछला। मोदी करिश्मे ने काम किया और शिवसेना भी इस लहर के सहारे खड़ी हुई। 5 साल सत्ता की मलाई चाभने के बाद उद्धव ठाकरे ने गठबंधन धर्म को धता बताते हुए बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री पद की लालच में भाजपा को धोखा दे दिया। बाल ठाकरे जिस कॉन्ग्रेस-एनसीपी का ताउम्र विरोध करते रहे, उद्धव उन्हीं की गोद में बैठ कर सत्ता के सिरमौर बने।
इससे पहले देवेंद्र फडणवीस ने एक सफल सरकार चलाई थी। मुख्यमंत्री फडणवीस ने व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप कर अन्ना हजारे के अनशन पर पानी फेर दिया था। अन्ना को झुकना पड़ा और अपने अनशन की योजना को त्यागना पड़ा था। जुलाई 2018 में जब मराठा आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा तब महाराष्ट्र के कई इलाक़ों में जबरदस्त हिंसा भड़क गई। फडणवीस ने इसे नियंत्रित किया। शिवसेना राष्ट्रीय स्तर पर तो मोदी के ख़िलाफ़ ख़ूब बोलती थी, लेकिन महाराष्ट्र में फडणवीस पर सीधे हमले नहीं करती थी। उन्होंने बाल ठाकरे की प्रतिमा का अनावरण कर उद्धव को साधा था। जब 35,000 गुस्साए किसान 200 किलोमीटर की पदयात्रा के बाद झंडा लेकर प्रदर्शन करते हुए मुंबई के आज़ाद मैदान पहुँचे थे, तब फडणवीस ने बिना बल प्रयोग आंदोलन को काबू किया।
Uddhav Thackeray takes oath at packed Shivaji Parkhttps://t.co/AUZlGryQLT pic.twitter.com/BfLCoqPmFq
— Hindustan Times (@htTweets) November 29, 2019
इन सबके बीच एक व्यक्ति की चर्चा न की जाए तो शायद महाराष्ट्र की राजनीति की बात ही अधूरी रह जाएगी। वो एक ऐसे शख्स हैं, जिन्हें कभी जनता ने बहुमत नहीं दिया लेकिन तब भी वो चार बार सरकार बनाने में कामयाब रहे। कभी कॉन्ग्रेस को धोखा दिया, फिर उसके साथ ही सरकार बनाई। कभी शिवसेना से लड़ते रहे, फिर उसे ही समर्थन दिया। कभी अपने ही राजनीतिक गुरु को धोखा देकर सरकार बनाई तो कभी चुनाव बाद मौकापरस्त गठबंधन कर सरकार चलाई। कभी केंद्र में मंत्री बन कर राजनीति तो कभी भी राज्य में अपनी धमक बनाने के लिए मेहनत नहीं छोड़ी। कभी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा तो कभी चीनी मिलों पर प्रभुत्व कायम किया। मुलायम की तरह अपने परिवार के दर्जनों लोगों को किसी न किसी पद पर बिठाया।
मराठा क्षेत्र के पवार-प्ले: राजनीतिक उठापटक के दक्ष
यहाँ हम शरद पवार की बात कर रहे हैं। बाल ठाकरे क़रीबी सम्बन्ध होने के बावजूद राजनीतिक रूप से पवार से दूरी बनाकर ही चलते थे। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा था कि शरद पवार जैसे ‘लुच्चे’ के साथ तो वो कभी नहीं जा सकते। बाल ठाकरे के भाषण सुन कर राजनीतिक में आए छगन भुजबल ने 1990 में शिवसेना तोड़ दी थी। मनोहर जोशी को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के बाद कॉन्ग्रेस में आए भुजबल को मंत्री बनाया गया था। ठाकरे को लगा कि पवार व्यक्तिगत संबंधों के कारण इस टूट के ख़िलाफ़ होंगे लेकिन पवार ने चुप्पी साध ली। बाल ठाकरे ने इस धोखे को याद रखा। ये वही शरद पवार हैं, जिन्होंने 1978 में वसंतदादा पाटिल की सरकार तोड़ दी और राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे। ठाकरे मानते थे कि शरद पवार ने अपने मेंटर यशवंतराव चव्हाण को भी धोखा दिया है।
पवार ने मुंबई बम ब्लास्ट के दौरान धमाकों की संख्या को 12 से 13 कर दिया था। उन्होंने 1 अतिरिक्त बम धमाका अपने मन से गढ़ा। उन धमाकों में केवल हिन्दू बहुल इलक़ों को निशाना बनाया गया था। पवार ने एक मस्जिद में विस्फोट होने की बात कह यह दिखाया कि यह ‘सेक्युलर’ धमाका था। ये वही शरद पवार हैं, जिन्होंने सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के होने की बात को लेकर कॉन्ग्रेस तोड़ दी थी, लेकिन बाद में उसी कॉन्ग्रेस के साथ सत्ता का सुख भोगा। 80 के दशक से लेकर अब तक वो महाराष्ट्र की राजनीति में प्रभावी बने हुए हैं और राज्य की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए किसी तरह उन्होंने तीन पार्टियों के बेमेल गठबंधन की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई।
महाराष्ट्र दिवस पर हमने यहाँ राज्य के गठन के इतिहास और राजनितिक द्वंद्व की बातें की है। अगर हम और पीछे जाएँ तो हमें माधवराव पेशवा पुणे में बैठ कर दिल्ली को नचाते हुए दिखेंगे। थोड़ा और पीछे जाएँ तो छत्रपति शिवाजी हिंदुत्व और स्वदेश के लिए शक्तिशाली औरंगज़ेब से पंगा लेते दिखेंगे। और पीछे जाएँ तो महाभारतकाल में यहाँ भोज यादवों का साम्राज्य दिखेगा। और पीछे जाएँ तो नासिक की पंचवटी में माँ सीता के कहने पर श्रीराम मायामृग के पीछे भागते दिखेंगे।
(सोर्स 1: he Journey of Maharashtra congress (1947-2000) By Dr. Dinakar Vishnu Patil)
(सोर्स 2: Bal Thackeray and the rise of Shiv Sena By Vaibhav Purandare)
(सोर्स 3: History of Maharashtra: History of Maharashtra By Abhishek Thamke)